सोनमाटी के न्यूज पोर्टल पर आपका स्वागत है   Click to listen highlighted text! सोनमाटी के न्यूज पोर्टल पर आपका स्वागत है
कारोबारमनोरजंनराज्यविचारसमाचारसोनमाटी टुडे

अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव पर टिप्पणी विशेष : समय लिखेगा इतिहास का प्रस्थान बिंदु है दाउदनगर फिल्मोत्सव

अंतरराष्ट्रीय बाल फिल्मोत्सव पर टिप्पणी विशेष :

समय लिखेगा इतिहास का प्रस्थान बिंदु है दाउदनगर फिल्मोत्सव

कृष्ण किसलय, समूह संपादक, सोनमाटी मीडिया समूह


बिहार के विश्वविश्रुत सोन नद अंचल के दाउदनगर (औरंगाबाद) में फिल्मोत्सव-2020 (इंटरनेशनल चाइल्ड फिल्म फेस्टिवल) का आयोजन राज्य के आंचलिक कीर्तिमान की शिखर-यात्रा का प्रस्थान-बिन्दु है। यह उस वट-वृक्ष का बीजारोपण है, जिसमें भविष्य में शाखा प्रस्फुटन की संभावना निहित है। यह नए बिहार के निर्माण की नींव का एक आधार-प्रस्तर है। यह मेधा और समय-श्रम साध्य तपस्या का संगम है। अंतरमुखी होते जा रहे और अपने स्व-अर्थ के दायरे में सिमटते जा रहे समय-समाज की आंचलिक पृष्ठभूमि वाले दाउदनगर में फिल्म की ज्ञान-तकनीक और विज्ञ-विमर्श का संयोजन बड़े साहस का काम है, गंगा अवतरण जैसा उपक्रम है। आज चर्चा-चिंतन का विषय है तो कल संग्रह-बद्ध अनुभव का विषय होगा। इसके महत्व का आकलन तब होगा, जब इतिहास लिखा जाएगा। तब यशोकामी सोन अंचल दपदप गर्व से लबालब होगा। बेशक समय इसका इतिहास लिखेगा।
1913 में बनी पहली फिल्म ‘हरिश्चंद्रÓ में सिर्फ चित्र थे। इसे भारतीय सिनेमा के आदिपुरुष दादासाहब फाल्के ने बनाया था। सात महीने तीन हफ्ते की कड़ी मेहनत से तैयार हुई इस मूक फिल्म का प्रथम प्रदर्शन 21 अप्रैल 1913 को मुंबई के ओलंपिया थियेटर में हुआ था। स्त्रीपात्र का अभिनय एक रेस्टुरेंट पुरुषकर्मी पतले-दुबले अन्ना सालुंके ने किया था। इसमें राजकुमार की भूमिका दादासाहब के बेटे बालचंद्र डी फाल्के ने की थी, जो भारतीय सिनेमा के प्रथम बाल कलाकार थे। प्रथम महिला बाल कलाकार (1919) होने का श्रेय इनकी ही बेटी मंदाकिनी को है। 1930 में फिल्म में आवाज डालने की तकनीक विकसित हुई और 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलम आराÓ बनी। 107 सालों के सफर में फख्र के कई मीलस्तंभ हैं। 20वींसदीं के फर्श पर चीटीं जैसी रेंगने वाली ‘आलमआराÓ के मुकाबले 21वीं सदी का ‘बाहुबलीÓ तो भारतीय सिनेमा के अर्श का क्वांटम जंप है।
भारत सर्वाधिक फिल्म निर्माता देश है, जहां 20 भाषाओं में हर साल दो हजार फिल्में बनती हैं। फिर भी प्रभावशाली लोकप्रिय बाल फिल्मों का नाम न तो पुरानी पीढ़ी के जुबान पर चढ़ा है, न नई पीढ़ी के। वर्ष 1987 में बनी ‘मिस्टर इंडियाÓ को लोकप्रिय मिश्रित बाल फिल्म मान सकते हंै। इसका अर्थ क्या यह नहीं है कि भारतीय फिल्मी दुनिया को बच्चों की, नई पीढ़ी की, भविष्य की चिंता बेहद कम है! भारतीय सिनेमा का कमजोर पक्ष है कि हजारों फिल्मों के बावजूद 21वीं सदी के गुजरे सालों में भी उगली पर गिनी जा सकनेभर भी श्रेष्ठ बाल फिल्में नहीं बनीं।
सिनेमा साहित्य-कला के अन्य माध्यमों की तरह समाज का दर्पण है। जैसा समाज, जैसा युग होता है, उसकी प्रतिध्वनियां, उसके प्रतिबिंब कला विधाओं में अंतर-गुंफित और अंतर-प्रस्फुटित होते हैं। दुनिया में प्रकृति से अलग सब कुछ समाज का ही प्रतिबिम्ब है। समाज वास्तव में प्रकृति के विरुद्ध मनुष्य की रचना है, उसका सर्वकालिक आविष्कार है। सभ्यता-आरंभ के बाद भोजन, कपड़ा, मकान से लेकर जीवन के सभी जरूरतों की पूर्ति, संसाधनों का उत्पादन-निर्माण किसी व्यक्ति का फल नहीं हैं। भले ही व्यक्ति नेतृत्वकर्ता हो और अग्रगामी निमित हो। सभ्यता-स्थापना के बाद संपदा संग्रह की अपरिहार्यता से समाज का रूप और जीवन का मायने बदलता गया। 20 जनवरी को जारी हुई मानवाधिकार की पैरोकार संस्था ‘आक्सफोमÓ की रिपोर्ट ‘टाइम टु केयरÓ समाज के बदलते रूप-चरित्र के साथ आदमी के संघनित होते स्वार्थ का एक आईना है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया के एक फीसदी सबसे अमीरों के पास दुनिया के 90 फीसदी गरीबों की कुल दौलत से दोगुनी संपत्ति है। दुनिया के 2153 अरबपतियों के पास जितनी दौलत है, वह दुनिया के 60 फीसदी लोगों (सभी 4.6 अरब गरीबों) के पास मौजूद संपत्ति के बराबर है। भारत में भी एक फीसदी सबसे अमीरों (63 अरबपति) के पास 70 फीसदी (95.3 करोड़) लोगों के बराबर दौलत है।
10 प्रमुख देश सैन्य प्रबंध पर हर साल 1500 अरब डालर खर्च करते हैंं। भारत भी करीब 50 अरब डालर खर्च करता है। मगर भाारत में बच्चों के भविष्य-निर्माता शिक्षा का सालाना बजट आम बजट का चार फीसदी से भी कम है और उसमें भी बच्चों के लिए प्रावधान तो बेहद कम है। स्वास्थ्य बजट भी दयनीय स्थिति में है। महिलाएं और बच्चे रोज 3.26 अरब घंटे ऐसे काम करते हैं, जिसके लिए पैसे नहीं मिलते। यह श्रम 19 लाख करोड़ रुपये का होता है। परमाणु बम जैसा ही खतरनाक जलवायु परिवर्तन का संकट पृथ्वी पर तलवार की तरह लटक रहा है, जिसकी वजह संपदा संग्रह की निरंकुश वृत्ति है। इस संकट की चेतावनी वैज्ञानिक 70 सालों से दे रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर पर्यावरण संकट का कारण बने अमीर देश और उनकी सरकारें अनसुनी करती रहीं। 16 साल की लड़की ग्रेटा थनबर्ग को अकेले 18 अगस्त 2018 से स्कूल छोड़ कर अपने देश स्वीडन की संसद के सामने स्ट्रांगर क्लाइमेट एक्शन की तख्ती लिए धरना (फ्राइडे फार फ्यूचर) शुरू करनी पड़ी। उसने संयुक्त राष्ट्र में कहा, चंद संगठित लोगों ने दौलत के लिए पूरी दुनिया को सामूहिक विलुप्ति की राह पर झोंक दिया है। 20 सितंबर 2019 को ग्रेटा से प्रेरित होकर 150 देशों के 40 लाख बच्चे स्वत:स्फूर्त सड़कों पर उतर आए।
यह सब पिछले दिनों सामने आए तथ्य हैं। जाहिर है कि अब बच्चों की, समाज के भविष्य की व्यापक चिंता संवेदनशील कला जगत को ही करनी है, क्योंकि समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले समूह-उपक्रम होने के बावजूद सरकारों की चिंता तुष्टिकरण भर है। सिनेमा के कंधे पर प्रभावकारी संचार माध्यम होने के नाते बड़ी जिम्मेदारी है। उम्मीद है, अंतरराष्ट्रीय बाल फिल्म समारोह इस दिशा में रोशनी की किरण बन सकेगा, भले ही वह जंगल के घटाटोप अंधेरे में जुगनू और तूफानी थपेड़ों में टिमटिमाटे चिराग जैसा हो। -0-0-

-0- उत्तर मुगलकालीन शहर दाउदनगर के विद्यानिकेतन विद्यालय समूह के नालेज सिटी परिसर (संस्कार विद्या) में 07, 08, 09 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय बाल फिल्म महोत्सव में बच्चों की वैश्विक स्थिति और सरोकार के विभिन्न पहलुओं पर प्रतियोगिता, गैर प्रतियोगिता श्रेणी में 35 बाल फिल्में प्रदर्शित होंगी। फिल्म समारोह का आरंभ एक अप्रैल : अल्कोहल फ्रीडम डे आफ बिहार (डा. धर्मवीर भारती) से और मुंबई में बनी विकास बहल निर्देशित, ऋतिक रोशन अभिनीत चर्चित फिल्म ‘सुपर थर्टीÓ के विशेष प्रदर्शन से समापन होगा। समारोह में विदेश में बनी तीन फिल्में लेडीज मोस्ट डिजेक्ट (मार्क सल्येर, ब्रिटेन), जर्नी आफ सोल (आयुष आनंद, जर्मनी) और पाराडोक्स (अरुण शर्मा, नेपाल) विशेष तौर पर प्रदर्शित की जाएंगी, जो प्रतियोगिता से अलग होंगी। -0-

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Click to listen highlighted text!