कविता के कलमकार : कृष्ण किसलय, मनोज मित्र, कुमार बिंदु, चितरंजन भारती, मिथिलेश दीपक

उन्होंने लिखा था
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….सोनमाटी में स्व. प्रेमचंद के व्यक्तित्व और साहित्य पर बहुत महत्वपूर्ण सामग्री संकलित हुई है। अभी तक माटी से ही ‘किसलयÓ उत्पन्न होता था। अब कृष्ण किसलय ने ‘सोनमाटीÓ को जन्म दिया है। बधाई!

-डा.रामकुमार वर्मा (प्रसिद्ध साहित्यकार,समालोचक)


 

कविता के कलमकार
सोनमाटी की प्रस्तुति विशेष में इस बार
कृष्ण किसलय, मनोज मित्र, चितरंजन भारती, कुमार बिंदु, मिथिलेश दीपक
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सोनमाटी संपादक की टिप्पणी

सोनघाटी में मंच-मुक्त काव्य-स्पंदन की गूंजती अंतरध्वनि

-कृष्ण किसलय-

राम के पैदा होने के सैकड़ों साल पहले कान्यकुब्ज (कन्नौज) के राजा कुशिक के पुत्र विश्वरथ विश्वमित्र ने महामंत्र ‘गायत्रीÓ की रचना की थी। तब अयोध्या में सत्यव्रत (त्रिशंकु) का राज था। विश्वरथ और सत्यव्रत दोनों मित्र थे या, अयोध्या और कान्यकुब्ज मित्र ‘देशÓ थे। सत्यव्रत ने कुलगुरु देवराज वसिष्ठ से ऐसा यज्ञ करने को कहा कि वह सीधे स-शरीर स्वर्ग जाए। ऐसा संभव नहींथा, देवराज ने मना कर दिया। उधर, विश्वरथ की तपस्या के बावजूद देवराज ने विश्वरथ को ब्राह्म्ïाण मानने से इनकार कर दिया था। तब विश्वरथ ने घोर तपस्या के लिए राजपाट त्याग दिया, जिसके बाद तो कान्यकुब्ज राजवंश ही समाप्त हो गया। विश्वरथ ने तरह-तरह से तपस्या की। हठी देवराज ने विश्वरथ को राजर्षि माना, पर ब्रह्म्ïार्षि (ब्राह्ण) नहीं। विश्वरथ अज-मेरू (अजमेर) चले गए और सविता (सूर्य) की उपासना में जुट गए और यह मंत्र रचा- ‘ततसविर्वरेण्यम, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो न: प्रचोदयत (अर्थात हम सूर्य के उस परम तेज पर ध्यान लगाते हैं, जो हमें बुद्धि प्रदान करे)। नई सृष्टि अर्थात 24 अक्षरों वाले इस गेय मंत्र (गायत्री) की रचना करने के कारण देवराज ने अंतत: विश्वरथ को ब्राह्म्ïाण मान लिया।
आदि राजपुरुष मनु के समय यज्ञ संस्था की स्थापना हुई, जिसके बाद यजुष मंत्रों (गद्य में) की रचना शुरू हुई, जो यजुर्वेद में संकलित हुए। पहली बार विश्वरथ ने जिस ऋचा (छंद) की रचना की, वह गाने लायक थी। वह जन सामान्य के जुबान पर ऐसी चढी कि अब तक चढ़ी हुई है। वसिष्ठों के वंश में तो छंदबद्ध या गेय मंत्र (कविता) की रचना गायत्री के सैकड़ों सालों के अंतराल पर राम के बाद की अगली सदी में दाशराज महायुद्ध काल के बाद संभव हुई। महर्षि मैत्रावरुण वसिष्ठ ने अपने वंश (वसिष्ठ कुल) के प्रथम सूक्त (छंद) की रचना की।
अयोध्या के राम के समय से बहुत पहले की इस कथा का जिक्र करने का दो आशय है। पहला कि शब्दों की गेयता अर्थात कविता का आरंभ कितना पुराना है? और, दूसरा कि सोन नद अंचल कविता के आदि कलमकारों (रचनाकारों) के सरोकार की भूमि है। इस कथा से जुड़ी दूसरी कथा है कि वसिष्ठ के स-शरीर स्वर्ग भेजने से मना करने के बाद सत्यव्रत को विश्वरथ ने स्वर्ग भेजने का उपक्रम किया, पर सफलता नहींमिली। तब सत्यव्रत न धरती के रहे, न स्वर्ग जा सके, आसमान-जमीन के बीच की चीज (त्रिशंकु) बन गए। इसी त्रिशंकु के पुत्र राजा हरिश्चंद्र और पौत्र रोहिताश्व थे, जिनके राज-क्षेत्र में विंध्य पर्वत की कैमूर श्रृंखला का इलाका विश्वविश्रुत सोन नद अंचल भी था। इस तरह विश्वमित्र-वंश के पुरखे विश्वरथ सोन घाटी और संपूर्ण भारतीय भूभाग के प्रथम कवि थे।
भारत भूमि की वैदिक सभ्यता से भी पूर्ववर्ती मागधी अर्थात सोनघाटी सभ्यता के संदर्भ में उल्लेखनीय है कि महात्मा बुद्ध को खीर खिलाकर उनका 49 दिनों का उपवास तोडऩे वाली वणिक की बेटी सुजाता बौद्ध संघ में शामिल होकर सम्मानित कवियत्री बनी, जिसकी कविता बौद्धग्रंथ थेरीगाथा में सम्मिलित है। सोनघाटी के विश्वस्तर के कवियों में वाणभट्ट (कन्नौज के राजा हर्षवद्र्धन के दरबारी) सोनतट वासी थे। कविता संग्रह ‘अक्सीर-ए-आजमÓ के कलमकार दाराशिकोह (शाहजहां का बेटा)के काव्यमानस का बीजारोपण कच्ची उम्र (बचपन) में सोन तट के कैमूर पठार पर रोहतासगढ़ में हुआ और इसी शाही खानदान की जेबुन्ननिशां (शाहजहां की पोती) की दीवान-ए-मख्फी (फारसी की शायरी) तो जगप्रसिद्ध है।
जाहिर है, सोनघाटी के आदिम बाशिंदों अंडमान के वंशजों शब्बरों-उरांवों की बोली कुड़ुख, मागधी (मगही,भोजपुरी), मैथिली, पाली, उडिय़ा, बंगला, अवधी, संस्कृत, फारसी, उर्दू आदि भाषाओं की परंपरा से जुड़े सामाजिक जीवन और संस्कृति के सम्ममिश्रण से गुजरकर ही आधुनिक हिंदी कविता ने आकार ग्रहण किया है। टाइम्स आफ इंडिया समूह के संचालकों, भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापकों का केेंद्र-स्थल होने से इनके परिवारों की पद्मभूषण सम्मानित विदुषी कवयित्रयों दिनेशनंदिनी डालमिया व इंदु जैन के कारण सोनतटीय औद्योगिक परिसर डालमियानगर दशकों तक साहित्य सृजन, कवि-सम्मेलन का राष्ट्रीय मंच बना रहा। प्रगतिशील धारा के कलमकारों ने भी इसे कवि-सम्मेलन का राष्ट्रीय मंच बनाया, जिसमें नागार्जुन, कैफी आजमी, पद्मश्री रामेश्वर सिंह कश्यप, डा. खगेन्द्र ठाकुर, हबीब हाशमी, मथुरा प्रसाद नवीन, नासेह नासरीगंजवी जैसे नामधन्यों ने शिरकत की।
सन बयालिस के स्वाधीनता आंदोलन की उपज महेश्वरी प्रसाद उर्फ बच्चा बाबू (डेहरी-आन-सोन) निर्भीक श्रेष्ठ पत्रकार होने के साथ कुशल कथाकार-कवि भी थे, जिनकी कविताएं प्रफुल्लचंद्र ओझा मुक्त के संपादन में प्रकाशित बिजली (पटना) में और कहानी (कैदी ओ कैदी) कथासम्राट प्रेमंचद के संपादन में प्रकाशित हंस में प्रकाशित हुई। हवलदार त्रिपाठी सहृदय, प्रो. अरुण कमल जैसे यशस्वी कवि सोनघाटी के ही अक्सीर हैं। हिंदी व्यंग्य गजल लिखने वाले रामाधार दुबे (बाहियात औरंगाबादी) वर्षों तक डालमियानगर के साहित्याकाश के नक्षत्र रहे। सोनमाटी के संपादकीय टीम में रहे अवधेश कुमार श्रीवास्तव की बाल कविता दक्षिण भारत में बालपाठ्यक्रम में शामिल थी। सातवें दशक में डालमियानगर के रंगमंच पर सक्रिय रहीं प्रसिद्ध कथाकार मृदुला गर्ग ने कथाओं में कविताएं लिखी हैं। डेहरी-आन-सोन के नेहरू कालेज में अध्यापक अमरेंद्र कुमार (संपादक, जनविक्रांत) ने आठवें दशक के पूर्वाद्र्ध में ‘आग्नेयÓ कविताएं और दाउदनगर में विज्ञान अध्यापक श्रीशचंद्र सोम ने गंभीर कविताएं रचीं। मूलत: उर्दू शायर मीर हसैनन मुश्किल ने भी हिंदी में शायरी की, जिनसे हिंदी जगत को सोनमाटी ने सर्वप्रथम परिचित कराया। ये 20वींसदी के 80 के दशक से पूर्व के कविता के कलमकार थे।
80 के दशक पूर्वअदब की इस दुनिया की कितनी इज्जत थी? इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा दिल्ली में हुए कवि-सम्मेलन में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री बतौर मुख्य अतिथि गए थे। उन्होंने साहित्य सम्मेलन कार्यालय को पत्र लिखा, व्यास जी (गोपाल प्रसाद व्यास), कवि सम्मेलन सफल रहा। आपको और कवियों को बधाई। क्षमा चाहता हंू कि आपको और कवियों को मेरे कारण असुविधा हुई। मैं कवि-सम्मेलन के मंच का अनुशासन नहीं जानता, इसलिए अच्छा श्रोता न बन सका।
यहां यह सवाल उठ सकता है कि जब विषय सोनघाटी में ‘कविता के कलमकारÓ है और कवित्तसृजन परपंरा की जड़ें सदियों पुरानी हंै, तब गुजरी सदी के आठवें दशक के बाद लिखनेवालों की ही कविताएं क्यों? इसलिए कि कविता-प्रस्तुित के सशक्त माध्यम कवि-सम्मेलन के मंच की गंभीरता 8वें दशक के बाद खत्म होती गई। उसका स्थान हास्य मंचों ने ले लिया। नौवें दशक में तो पूर्ववर्ती प्रवृत्ति का विस्थापन कर नई प्रवृत्ति ने कब्जा जमा लिया। कविसम्मेलन का मंच हास्य और फिर लाफिंग ट्रेंड में बदल गया। गंभीर, मर्यादित प्रेम की कविता के लिए तो मंच पर कोने वाली जगह भी नहीं बची। इस तरह परिवर्तित सामाजिक प्रवृत्ति व बाजारू संस्कृति से स्वीकृत कवि-सम्मेलनों का फार्मेट ही अलग हो गया।
सृजन आत्मप्रदर्शन भी है और प्रदर्शन में ही किसी कला की पहचान निहित है। रचना-कर्म के प्रदर्शन में व्यष्टि से गुजरकर समष्टि से जुड़ाव की क्षमता ही सृजन की सफलता की कसौटी है। स्वधीनताआंदोलन और आजादी मिलने तक कविता में राष्ट्रप्रेम सर्वोपरि था। आजादी के बाद राष्ट्र-समाज में मूल्य परिवर्तन आरंभ हुआ और परिवर्तन के विभिन्न सोपानों के अक्स स्वतांत्र्योत्तर कविताओं में रेखांकित हुए, जो आठवें दशक तक आते-आते आक्रोश, विद्रोह और विद्रूपता में बदल गए। आठवां दशक सोनघाटी में सुदूर पश्चिम बंगाल के नक्सल बाड़ी से निकलकर नक्सलवाद के प्रवेश का भी समय है। तब तक राज-व्यवस्था संगठित छल-छद्म में बदलने लगी, समाज में अराजकता का बोलबाला हो गया और राजनीति के चोले ने भ्रष्टाचार का कम्बल ओढ़ लिया। इसीलिए 20वींसदी के पिछले दशकों के मुकाबले आठवें दशक के बाद कविता का स्वर एकदम भिन्न हो गया।
कविता मंचमुक्त हुई तो छंदमुक्त भी हुई। इस कारण कवि सम्मेलन के मंचीय मैदान में छंदमुक्त कविताएं रणयोग्य (श्रोता को प्रभावित करने लायक)नहीं रह गईं और वे(कविताएं) कलमकारों के मन के जंगल में एक ‘नए रागÓ में अरण्यरोदन भी करने लगीं। तब कवि श्रोताओं से सीधे मंचसंवाद करने के बजाय स्वयं से वार्तालाप कर रहे थे और खामोशी से महात्मा बुद्ध की तरह अंतर्यात्रा भी। विश्वविश्रुत सोन नद के तट पर स्थित सबसे बड़े शहर डेहरी-आन-सोन को केेंद्र में रखकर 20वींसदी के आठवें दशक बाद के कवियों की प्रस्तुत श्रृंखला (कविता के कलमकार) में अपने समय, समाज, परिस्थिति का प्रतिबिंबन है। सोन-धारा पर, समय के बहते पानी पर काव्यरस की लकीर खींचनेवालों को सामने लाने का सोनमाटी का उपक्रम आगे भी जारी रहेगा।


 

मनोज मित्र : वो भी क्या शै थी जो बस जलती रही…

दैनिक भास्कर सहित अनेक समाचारपत्रों में संपादकीय विभाग में कार्यरत रहे मनोज कुमार झा कवि, लेखक, समीक्षक और राजनीतिक टिप्पणीकार भी हैं। बिहार के रोहतास जिला के डेहरी-आन-सोन में 35 साल पहले इन्होंने 1981-82 में दो वर्ष तक मासिक ‘कलमकारÓ का प्रकाशन किया था, जिस पत्रिका ने सोन नद अंचल के रोहतास और औरंगाबाद जिलों में नए साहित्यिक परिवेश का निर्माण किया था। इनके दो कविता संग्रह ‘लाल-नीली लौÓ और ‘तुमने विषपान किया हैÓ प्रकाशित हो चुके हैं। कविता संग्रह (तुमने विषपान किया है) की समीक्षा करते हुए हिंदी के वरिष्ठ प्रतिष्ठित कवि दिविक रमेश ने लिखा है कि मनोज कुमार झा की कविताओं में जीवन, समाज और आस-पास घट रहे के प्रति गहरी दृष्टि है और गहरा सरोकार भी। मोर्चे पर डटे रहने के बावजूद इनकी कविता की शैली शोर मचाने वाली न होकर गम्भीर है, चिंतन-प्रशस्त करने वाली है। मनोज कुमार झा बेबाकी से सच कहने और निर्भीक अभिव्यक्ति के खतरे उठाने वालों में से हैं। संपर्क : 2 डी-74, एनआईटी, फरीदाबाद (हरियाणा)  फो. 7509664223

1. नया घोषणापत्र
लिखा जाएगा गणतंत्र का नया घोषणापत्र
जब लुटेरे और हत्यारे लोगों में खौफ पैदा नहीं करेंगे
जब धोखेबाज और मक्कार नेताओं के भाषण सुनने से
कर देगी जनता इनकार
जब बूथ तक वोटर नहीं जाएगा
जब समझ में आ जाएगा धोखा है यह गणतंत्र
तो टिकट खरीद कर इसका तमाशा देखने कोई नहीं जाएगा
जिस मौके पर देश की जनता को धकिया कर दुनियाभर में
लूट का डंका बजाने वाला आता है बनकर मुख्य अतिथि
जब लुटेरे, हत्यारे और दंगाई हाथ मिलाते हैं
गलबहियां देते हैं
लूट की नई योजनाओं के साथ जनता के लिए
झूठी घोषणाएं करते हैं
और भाड़े के भोंपू, अखबार, टीवी उनकी विरुदावली गाते हैं
जनता हक्की-बक्की रोटी-पानी के लिए हलकान होती है
वो दिन आएगा, आएगा जल्दी
जब जनता कुटिलता भरी बात पर लगाएगी जोरदार ठहाका
भाड़े के गुंडों, बटमारों, रंगे सियार संत-साध्वियों,

बलात्कारियों और थैलीशाहों के हर प्यादे को
सड़कों पे खदेड़ेगी, करेगी तुरंत हिसाब
जनता के धन की लूट पर झूठे गणतंत्र का बाजा बजाने वालों

हर जगह ख़तरा सूंघने वालों
पुलिस-फौज-सिक्युरिटी तुम्हारी हिफाजत नहीं कर पाएगी
इस सदी में दुनिया में गणतंत्र का नया घोषणापत्र लिखा जाना तय है।

2. आओ मेरे पास
आज तुम्हारी पुकार फिर से सुनाई पड़ी है
लगता है युगों के बाद न जाने कितने युगों के बाद
मैं फिर जागा, ये कैसी नींद में था डूबा
मानो मृत्यु के आलिंगन में
ध्वनिमय इस संसार में फिर आया
तेरी ये पुकार से मैं जागा
आओ मेरे पास पकड़ो मेरा हाथ
ले चलो, ले चलो मुझे वहां
वहां मृत्यु के विरुद्ध जो यज्ञ शुरू हुआ है
वहां शस्त्र पूजा होगी, वहां अस्थियां
हमारी समिधा बनेगी
वहा जो रक्त फैला है, वहां उस रक्त-चंदन से
वहां किस मन्त्र पाठ से
जीवन का, नवजीवन का अभियान शुरू होगा युद्ध का
मुझे ले चलो वहां,
आओ मेरे पास, पकड़ो मेरा हाथ, मेरे साथी !

3. तो अब बताओ
क्या यह दुनिया बदलेगी
कितना कुछ बदला
बदलता ही चला गया निरन्तर
धरती से आसमान का सफर
पाताल की गहराइयों में उतर गया मनुष्य
महासागरों को बार-बार मथता रहा
ग्रहों की गतियों को गिन कर
अंतरिक्ष में बस्तियां बनाने को है अग्रसर
क्या-क्या नहीं बदला
फिर भी तुम पूछते हो ये दुनिया बदलेगी
अब क्या बदलना चाहते हो
धरती पर वैसे ही बिक रहे मनुष्य
जैसे बिकते थे हजारों साल पहले मंडियों में
भूख का वैसा ही दावानल है
हजार-हजार वर्षों में भी बुझा नहीं
वैसा ही भीषण रक्तपात है
वैसा ही है शोषण मनुष्य का,
कि और भी विकराल हुआ है
समता का स्वप्न तो अभी भी बस स्वप्न है
ईसा, बुद्ध, महावीर, माक्र्स, गांधी, लेनिन
इनकी शिक्षाओं, बलिदानों का
क्या हुआ, मुझे बताओ साथी
अब भी लुटेरा करता है राज पूरी दुनिया पर
अभी भी हत्यारों का जश्न चलता है जनतंत्र में निर्बाध
और हम बेबस धनबल पशुबल से
तो अब दुनिया कैसे बदलेगी, ये बताओ?

4. भयानक युद्ध होगा
यह एक भयानक युद्ध होगा बहुत ही भयानक
इतनी हिंसा होगी इतना ख़ून बहेगा
कि इतिहास की किताब लाल-लाल हो जाएगी
वह किताब जो युगों से लिखी जाती रही
प्रकाशित हो जाएगी
इस बच्चे की विकल भूख से
युद्ध का आह्वान करो
भूख मनुष्यता को चुनौती देती है
यह शर्मिन्दा करती है मनुष्यता को
युगों-युगों से निरन्तर चली आ रही
यह भूख दुनिया पर छा गई है
इस भूख का अन्त अब कब…
यह भूख नहीं मिटी तो मनुष्यता मिटेगी
पर, यह भूख ऐसे नहीं मिटेगी
इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध लड़ा जाएगा
भूख के अन्त के लिए

इस बच्चे की भूख के अंत के लिए
इस बच्चे की आँख को देखो और बताओ
युद्ध की शुरुआत के बारे में

एटम बम से युद्ध की शुरुआत नहीं होगी
भूख से होगी इस बच्चे की भूख से
फिर देखना, क्या होगा
इतिहास का अन्त या नये इतिहास की शुरुआत!

5. नहीं तो मिट जाओगे
धूप की कोई जगह तो निकलने दो
धूप को खिलने दो
घुट गई आवाज अब सांस आती-जाती है
यूँ ही आवाज आती-जाती है
कोई बात हो रही हो वो बात तो होने दो
धूप खिल रही है
कोई जगह तो निकलने दो
घेरते हो तो ख़ुद भी घिर जाओगे
बचोगे कैसे बेमौत मर जाओगे
अब भी छोड़ो राह इस राह को खुलने दो
देखो वन खेत में हो सके तो रेत में
जिन्दगी है जिन्दगी की बात तो चलने दो
धूप की कोई जगह तो निकलने दो
फूल कोई खिलने दो
मरोगे बेमौत गर होश में न आए
वक्त है ऐसा खत्म हो जाओगे जो कहीं टकराए,
होश में आ जाओ, जगह छोड़ो
नहीं तो मिट जाओगे।

6. और धूप वहीं रह गई
धूप तो वहीं रह गई थी जहां तुम थी
वहां से मैं निकल चुका था
मैं दर-ब-दर हो चुका था
मैं बहुत ही अंधेरे सफर का राही बन चुका था
अब कहां कोई मुलाकात थी
कहां कोई बात थी नहीं था कोई हमसफर
धूप का इक टुकड़ा बस यादों में बसा था
कि मेरे अंधेरे जिस्म में मुकम्मल पूरी की पूरी धूप
बस वहीं रह गई थी जहां तुम थी!

 

कुमार बिन्दु : प्यास बुझती नहीं है कभी खंजरों की…

डेहरी-आन-सोन (बिहार) में छात्र जीवन से ही कविता लेखन, रंगमंच पर अभिनय और कवि-सम्मेलनों में काव्य पाठ। जेपी आंदोलन के खत्म होने के बाद वामपंथी राजनीतिक धारा से जुड़ाव। रोहतास जिला में प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा के संस्थापक सदस्य। 20वीं सदी के नौवें दशक के पूर्वाद्र्ध में डेहरी-आन-सोन में निरंतर विचार गोष्ठियों, कवि-सम्मेलन का संयोजन। साहित्यिक पत्रिकाओं उत्तरशती, कदम, प्रगतिशील समाज, अब, आदि और हिन्दुस्तान, आज, जनशक्ति, सोनमाटी आदि समाचारपत्रों में दर्जनों कविताएं, लेख, भेंटवार्ताएं प्रकाशित। आकाशवाणी से अनेक वार्ताएं प्रसारित। दो भोजपुरी फिल्मों (हमार दुल्हा और घर अंगना) में अभिनय। भोजपुरी फिल्म (शिव चर्चा) के संवाद लेखक। डीडी नेशनल से प्रसारित धारावाहिक (नदियां गाती हैं) में सोन नद पर केेंद्रित एपीसोड में हिस्सेदारी। उत्तरशती में प्रकाशित कविता (पेड़) का लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार प्रभाकर माचवे द्वारा मराठी में अनुवाद।
संप्रति : हिन्दुस्तान (दैनिक) में वरीय संवाददाता। फोन 9939388474

1. मौसम की करवट
मौसम ने बदली जब अपनी अदाएं।
लहू के रंग से हुई रंगीन फिजाएं।।

और खिल उठे जख्म फूलों की तरह,
जब भी हासिल हुईं उनकी दुआएं।

फिर ली अंगड़ाई जुनून-ए-इश्क ने,
फिर दिल के तजवीज होंगी सजाएं।

ये कहां ले आए मुझे तुम कोलंबस,
न साकी न मय है न अजां की सदाएं।

प्यास बुझती नहींहै कभी खंजरों की,
आ सागर उठा प्यास दिल की बुझाएं।

2. यादों के चिराग
चिराग यादों के जलते रहे रात भर।
हम गीत वफा के गाते रहे रात भर।।

छेड़ी थी रात ने फिर कोई गजल,
दर्द सीने में जागते रहे रात भर।

न जाने क्या बहा गई शोख पुरवाई,
जिस्म पत्तों-सा डोलते रहे रात भर।

जरा-सा सरका था रुख से नकाब,
अक्स आंखों में उभरते रहे रात भर।

दिल से गुजरा जब कोई हमसाया,
ख्वाब आंखों में मचलते रहे रातभर।

3. पेड़
पेड़ नहीं जानता
किसने उसको रोपा किसने उसको सींचा
किसने उसको पाला-पोसा किसने उसकी रखवाली की
हिंसक तत्वों से बनैले जीवों से।
पेड़ नहीं जानता
उसका कोई मालिक भी है
जिसके लिए पूरी दुनिया
मंडी के सिवा और कुछ भी नहीं
जो पेड़ को पेड़ नहीं, मंडी का माल समझता है।
पेड़ नहीं जानता
पेड़ आज कुछ भी नहीं जानता,
लेकिन क्या होगा उस दिन जब सब कुछ जान जाएगा पेड़?

4. ऐसा क्यों हुआ?
गुलाम अली तुम्हारी गाई हुईं गजलों का कैसेट
कल घंटों सुनता रहा और मुग्ध होता रहा
तुम्हारी गायन कला पर,
उस घड़ी अपनी समस्त चिंताओं को भूल
तुम्हारे जादुई सप्त स्वर के आरोह-अवरोह के साथ
डूबता-उतराता रहा मैं सुर सागर में,
किन्तु किसी क्षण यह ख्याल नहीं आया कि
तुम उस मुल्क के वासी हो
जो मेरे देश पर बार-बार करता है फौजी हमला
रचता है नित दिन नई-नई साजिशें,
और तो और, मेरा हिन्दू मन भी चुप रहा
उसने यह नहीं कहा- अरे मुर्ख, तू मुग्ध है
जिसके गायन पर, वह विधर्मी है, मलेच्छ है, मलेच्छ
मैं नहींजानता ऐसा क्यों हुआ
क्या तुम बता सकते हो गुलाम अली?

5. आखिर ऐसा क्यों हो रहा
ऐसा क्यों हो रहा है अपनी फसल की बर्बादी पर
खुश हो रहा है खेतीहर हलकू,
ऐसा क्यों हो रहा है

पुश्त-दर-पुश्त की बंधुआ मजदूरी के बावजूद
चुकता नहीं महाजन का सवा सेर गेहूं,
ऐसा क्यों हो रहा है
प्रसव पीड़ा से छटपटा रही है बुधिया
और घिसू-माधव खा रहे गर्म-गर्म आलू,
जंगल को गांव बनने में लगे हैं हजारों साल
गांव देखते-देखते जंगल बन रहा है
ऐसा क्यों हो रहा है, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?

6. खूंटे की गाय
खूंटे से बंधी गाय अपने नवजात बछड़े की सारी देह
चूमने-चाटने के बाद कर रही है पागुर
कितनी बेवकूफ है यह गाय
जो यह नहीं जानती कि अभी थोड़ी देर पहले
उसने जिस व्यक्ति को अजनबी जानकर
मात्र अपने बछड़े को छू लेने पर
अपने नुकीले सींगों का निशाना बनाया था
वह उसका मालिक है मालिक, पचास बीघे का काश्तकार
वह चाहे तो क्या नहींकर सकता
वह उसे पीट सकता है, गोलियों से भून सकता है
कसाई के हाथों बेच सकता है
कितनी बेवकूफ है यह गाय
जो अपने मालिक को नहीं जानती
और सानी-पानी करने वाले उस मालिक के नौकर बुधना को
मानती है अपना सब कुछ
उसकी आहट उसकी आवाज उसकी गंध तक
पहचानती है यह गाय
उफ, कितनी बेवकूफ है यह गाय
जो अपने मालिक पर करती है हमला
और उसके एक अदने से नौकर को मानती है सब कुछ
उसके आगमन पर अपने सिर को हिला-डुला कर
बजाती है गर्दन में बंधी
पीतल की घंटिया करती है उसका स्वागत
सचमुच कितनी बेवकूफ है यह गाय।

7. आत्मालाप
मैं चला जाऊंगा
मैं चला जाऊंगा अब यहां से
अपने पूरे परिवार समेत
वर्ना कल कुछ भी हो सकता है मेरे साथ
लूट ली जाएगी मेरी दुकान
नष्ट हो जाएगी मेरी घर-गृहस्थी
यह भी हो सकता है कुछ उन्मत्त जन बरजोरी
मेरे घर की चौखट-दीवार लांघ कर
मेरे बाल-बच्चों की मेरे बूढ़े मां-बाप की
मेरी पत्नी मंजीत की
परिवार के हरेक सदस्य की कर देंगे हत्या
नहीं-नहीं, मैं यह नहीं होने दूंगा
मैं नहीं होने दूंगा यह सर्वनाश
अब और कुछ भी अप्रिय घटित होने से पूर्व
मैं चला जाऊंगा
मैं चला जाऊंगा अब यहां से
अपने पूरे परिवार समेत
किन्तु छोड़ जाना होगा मुझको यह शहर
यह शहर, जिसे बड़े गर्व से कहता रहा हूं अपना
जिसके प्रत्येक गौरव से होता रहा हूं गौरवान्वित
इसी की मिट्टी में पला ्और फला-फूला
इसी का अन्न-जल करके ग्रहण
और यही सब संगी-साथी हैं लंगोटिया यार
नंदुआ, मंटुआ, फिरोजवा, रजुआ और बिंदुआ
जिसके संग गली-गली में खेल-कूद कर गुजरा बचपन
और यह मेरा घर जिसके कण-कण में रचा-बसा है
मेरे दादा-बाबा का स्वप्न

जिसके एक कमरे में मैंने एक दिन अपनी
नई नवेली दुल्हन का उठाया था घूंघट
और मनाई थी सुहाग रात
यह सब कुछ भूलकर, यह सब कुछ तज कर
हाय, जाना होगा मुझको अब बेगानों की बस्ती में
अजनबी गलियों में लेनी होगी सांस
यह घर, यह शहर मैं सब विस्मृत कर जाऊंगा
लेकिन अपने बचपन को व्यतीत अपने जीवन को
मंजीत से प्रथम मिलन को
कैसे भूल पाऊंगा, कैसे भूल पाऊंगा
आह, मैं कैसे भूल पाऊंगा…?

 

कृष्ण किसलय : अंतस के चीत्कार के साथ जिंदगी का सफर…

1974-80 के दौरान कविता, कहानी, नाटक लेखन और कविसम्मेलनों में कविता-पाठ, नाटक मंचन, त्रैमासिक नई आवाज का संपादन। चर्चित नाटक समाज ने क्या दिया प्रकाशित। दैनिक प्रदीप, आज के वार्षिक विशेषांक में कविताएं। राजस्थान के संकलन में लघुकथा और दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक में विज्ञान पत्रकारिता पर शोध लेख। भोजपुरी फिल्म में अभिनय। आकाशवाणी पटना से भोजपुरी में कहानी, वार्ता व दूरदर्शन से भी प्रसारण। सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार के सचिव के रूप में प्राचीन सोन सभ्यता पर खोज-अध्ययन। जिला संवाददाता : नवभारत टाइम्स (डेहरी-आन-सोन), वरिष्ठ राजनीतिक संवाददाता : दैनिक जागरण (देहरादून), संयुक्त संपादक : दैनिक ‘प्रभातÓ (मेरठ)। दैनिक जागरण में सबसे लंबा विज्ञान धारावाहिक। भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा खोजी विज्ञान पत्रकारिता पर आयोजित राष्ट्रीय कार्यशाला में समूह चर्चा में शिरकत व आलेख पाठ। दर्जनों विशेष रिपोर्ट राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित। कई रिपोर्ट अंग्रेजी व मैथिली में अनुदित। सुभारती विश्वविद्यालय पत्रकारिता विभाग में संस्थान परीक्षक का भी कार्य। नेशनल बुक ट्रस्ट आफ इंडिया से पुस्तक (सुनो मैं समय हूं) प्रकाशनाधीन। कई राष्ट्रीय, आंचलिक पुरस्कार। संप्रति : राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित-पुरस्कृत आंचलिक हिन्दी पाक्षिक सोनमाटी और भारत के सोन नद अंचल केेंद्रित ग्लोबल न्यूजपोर्टल सोनमाटीडाटकाम  का संपादन।

1.  क्षणिकाएं
1. (फर्क)
मेरी जिंदगी
बनकर मोमबत्ती
जल रही है
तिल-तिल गल रही है
पर, देखने वाले
कहते हैं कि
वह रोशनी मेंंबदल रही है।
2. (डर)
मुहब्बत का दिया
जो जला दिया है
तेरे दिल में,
डर है जमाने की हवा
कहींउसे बुझा न दे।
3. (इंतजार)
वक्त पिघलता रहा
और आंख की राह
बस ढरकता रहा
तुम आए न आए, क्या पता
मगर उम्र भर
इंतजार कसकता रहा।

2. और सुनता रहता हूं…
किसे सुनाऊं पीड़ा अपनी!
किसको क्यों मैं दुखी बनाऊं
नहीं चाहता कि लोग-बाग आकर समझाएं
और, सांत्वना-आशा के कुछ शब्द सुनाएं
मैं अपनी वेदना सांस-सी जो सहगामिनी सिसकन-सी
नख से शिख तक व्यापी जो तन में
अंतस का चीत्कार सुनाना क्यों चाहूंगा?
तूफां-झंझा को आने में नहीं सोचना पड़ता
हाहाकर हृदय के कमरे की दीवार तोड़ बाहर जाएगी
भय है, यह वेदना कहीं निश्ंिचत जनों की शांति
और आराम व्यर्थ न कर दे!
इस अनिष्ट की आशंका से झुलसाता मन को, तन को
जिंदगी निरुद्देश्य करता हूं
पर, नहीं किसी से कहता-दिखलाता अंतस को
चुपचाप सांसों के गीतों में ढाल स्वयं सुनता रहता हूं।

3. कालखंडों का बोझ
दशकों की अमानवीय परंपराओं को ढोते-ढोते
माधव अब बूढ़ा हो चुका है
कालखंडों के बोझ ने उसकी रीढ़ की हड्डियों को
वक्र बना दिया है।
आजादी के ऊंचे मंचों और गणतंत्र के भव्य पताकों से
खंड-खंड की राजनीति करने वालों की
हवा में तैर कर आते झूठे वादों और भ्रामक नारों को
उसने चुपचाप हर बरस अपनी हताश आंखों की
अंधेरी गुफाओं में समेट लिया है।
लेकिन, उसका एक बेटा
होठों पर पपरियां लिए धूप और बारिश में
आदमी को खींचते-खींचते दाल-रोटी के लिए
अपनी बंधी मुट्ठियां अब हवा में लहराने लगा है।
गगनचुंबी चिमनियों की नींव में
पसीने से लथपथ मशीनी आग की गर्मी में तपने, जूझने वाला
उसका दूसरा बेटा अपने खून-पसीने की कीमत
को लेकर लौह चिमनियों से टकराने को हुमकने लगा है।

4. गर्म रेत पर तेज धूप में
कैसे पढ़ूं समझाओ मुझे कि तुम्हारे चेहरे का भाव?
बतलाओ मुझे,सीखलाओ मुझे कि कैसे पकड़ूं
तुम्हारे ओठों पर तैरते इशारे की नाव?
प्रिये! समझो कि गर्म रेत पर, तेज धूप में
चलकर आया हूं मैं नंगे पांव
बियावान घोर जंगल में ढंूढ रहा हूं तुम्हारे घर की ठांव
जहां होगी नेह की नर्म छांव
हालात की बाढ़ में वक्त के तूफान से
कि कहीं तुमने बदल तो नहीं लिया है अपना गांव?

5. प्रेम का तुलसी चौरा

तुम आओ या न आओ
कि ना पहुंच सको प्रेम के उस तुलसी चौरा पर
अनुराग का दीया जलाने तो मैं आऊंगा जरूर।
संबंधों के घनघोर जंगल में
जहां जाने से तुम ठिठकते होगे
जरा गौर से देखना कि होगा कोई एक रौशन चिराग
समझ जाना तुम कि जरूर वहां दिल के नेह की
बाती ही जल रही होगी।
मुश्किलें बहुत हैं जमाने की समझ में आता है मुझे भी,
जुबान पर बंदिश होगी, पांव में लगाम,  निगाह उठाने की भी होगी मनाही
और, उम्र का ऊंचा होगा पहाड़।
मगर सपनों की पतंग उड़ाने से
कौन रोक सकेगा तुम्हें
लिख देना प्रीत-मीत की भाषा पतंग के पत्ते पर और
घिस देना मांझा उसकी डोर पर अपने मनके चंदन की कोर से।
तुम्हें तो पता होगा

कुछ ठीक-ठीक है जिसका थोड़ा भान मुझे भी
कि इस दुनिया में, इस धरती पर
बेजुबान भी समझते हैं प्रेम की मौन भाषा
और महसूस करते हैं नेह-छोह की गंध।

6. उम्मीद का सफर
अहसास अब भी कितना ताजा है
कि बहुत खुशनसीब गुजरा था
बीते वर्षों का हर नया सबेरा
हां, कितना हसीन था
आकाश से जमीन पर प्रेम के पानी का झरझराना,
और उग आए संबंधोंकी पौध में
हर साल आहिस्ता-आहिस्ता एक-एक कर
फूलों-पत्तियों का भरना।
जमाने की बंदिश की बर्फानी ठंड
प्रतीक्षा की तपस्या की कड़ी धूप
और बेकरारी की बाढ़
के बावजूद हरा-भरा है यादों का वह पौधा
महक बरकरार है मोहब्बत के फूलों की,
लाखों-करोड़ों की तरह मैंने भी देखा था एक सपना
गुजरे बरसों की रात में

कि नए बरस का उगता नया सबेरा
और हसीन और गुलनशीन और मनतरीन होगा,
मगर अफसोस रात लंबी खिंच गई
राह में पत्थर फिर बिखर गए
आह, रास्ते जुदा-जुदा हो गए।
फिर भी आदमी की जिंदगी तो दरअसल उम्मीद का सफर है
और संयोग से अब भी हमसफर जुगनू
संबंधों की हरियाली में चमक रहे हैं
आओ, उन्हींकी रोशनी के सहारे
मंजिल के मिलन तक पहुंचने का सफर
फिर से शुरू किया जाए।

7. रागिनी रूठ गई मेरी
रागिनी रुठ गई मेरी बजते नहींवीणा के तार
उंगलियां सधती नहीं हुईं याचनाएं तार-तार।
रोम-रंध्रों में उष्मा चुकती रही सर्जना का स्वेद टपका नहीं
आस्था की लौ बुझती रही जीवन प्रभात लौटा नहीं।
संवेदनाएं पत्थर हुईं सारी मूक हृदय का है सितार
आंखें बनींदर्पण नहीं हुईं भावनाएं तार-तार।
यत्न करता रहा स्पंदनों में लय की पांत जागी नहीं,
घर्षणों में रहा, सर्द शिलाओं से स्फुलिंग निसृत हुए नहीं।
तूलिका बिखर गई मेरी टूट गई मन की मीनार
श्रद्धा बनींमूत्र्तियां नहीं हुईं कामनाएं तार-तार।

 

चितरंजन भारती : कलम जरा मुलायम हाथ से पकडि़ए…

चितरंजन भारती (डालमियानगर) ने लेखन 1980 में सोनमाटी संवाददाता के रूप में आरंभ किया था। सैकड़ों रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में और कहानी संग्रह, लघुकथा संग्रह, उपन्यास प्रकाशित। एक लघुकथा एनसीईआरटी की कक्षा-2 की पूरक पाठ्यपुस्तक में। अनेक साहित्य संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत। लघुकथा संग्रह ‘आम जनता के लिएÓ पर दक्षिण भारत हिंदी प्रचारसभा के शोध संस्थान की एमफिल उपाधि के लिए उपशोध प्रबंध। संप्रति एचपीसीएल, असम में वरिष्ठ हिंदी अधिकारी।

1. आतंक का आक्टोपस
तैयार होकर बैठा है आतंक का आक्टोपस।
अष्टभुजाएं खोले है सत्यनाशी आक्टोपस।।

धर्म, जाति, संप्रदाय और भाषा के बीच
बखूबी बांटना जानता है आक्टोपस।

गरीबी, बीमारी, बेकारी, हताशा की प्रत्याशा
अपना शिकार पहचानता है आक्टोपस।

नफरत, दहशत और अफरा-तफरी के बीच,
अपनी गिरफ्त में लेता है आक्टोपस।

उत्तर के प्रश्न का उत्तर मिला नहीं कि
दक्षिण में सवाल खड़ा कर गया आक्टोपस।

पूर्वी बयार गरम कर गया, गया किधर वह
पहचान उसे, पश्चिम पहुंचा है आक्टोपस।

धर्म नहीं, ईमान नहींहोता कुछ उसका,
अपने मजे के लिए मस्त है आक्टोपस।

सतर्क रहो, देशहित करो कुछ भाई मेरे,
नाश करना जरूरी है आतंक का आक्टोपस

2. कलम की ताकत
कलम जरा मुलायम हाथ से पकडि़ए।
ताकत कलम की यूं मत कम आंकिए।।
ढीले पड़े हाथ तो सुविधाएं बहुतेरी मिलेंगी,
पर नया इतिहास बनाने की कोशिश कीजिए।
खतरे बहुत हैं इस कलम से खेलने में,
पर खतरा उठाने की आदत तो डालिए।
मय से लेकर जन्नत की बात बहुत सारी हुई,
अब जमीनी सच्चाइयों से वाकिफ तो होइए।
राह दिखाने वाला रास्ता तैयार कर चुका,
चलकर मंजिल पाने की कोशिश तो कीजिए।
अभिमन्यु तैयार है चक्रव्यूह भेदन को,
जरा सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम तो कीजिए।

3. मानवता के लिए मित्र
जूतों-कपड़ों से, शानो-शौकत से अथवा धन-दौलत से
नहीं आती मानवता,
मित्र, इसके लिए तो करुणा और प्यार की पूंजी चाहिए
और, चाहिए दूसरे के दुख को अपना समझ लेने की संवेदनशीलता,
धर्म-कर्म से, पूजा-पाठ से जप-तप, स्नान-ध्यान से
मन भले ही शांत हो जाए
पर जगत वैसा ही रहता है,
जैसा आप नहींचाहते थे मित्र
इसके लिए तो चाहिए स्वच्छ मानसिकता
सतही अथवा हवाई बातों से बात नहीं बनती
मित्र इसके लिए तो चाहिए उद्यमशीलता,
सिद्धांत के पंखों पर बैठकर उड़ान संभव नहीं
हवाई महल बनाना अथवा सपनों का संसार बसाना
संभव हो सकता है मित्र,
मगर इसके लिए आनी चाहिए व्यावहारिकता।

 

मिथिलेश दीपक : ऐसी खुरदरी होगी जिंदगी, सोचा न था…

बिहार के औरंगाबाद जिले में बारुण प्रखंड के सोन नद अंचल के सहसपुर गांव निवासी। मिथिलांचल के प्रमुख शहर दरभंगा में ललितनारायण मिथिला विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर। छात्र जीवन से ही कविता लेखन और स्थानीय सामाजिक-सांस्कृतिक संयोजनों में भागीदारी के साथ राजनीतिक गतिविधियों में भी रूचि। दर्जनों कविता, कहानी, लेख हंस, सोनमाटी, आज, राष्ट्रीय नवीन मेल, नवबिहार टाइम्स आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित और इमाटाइम्स, सोनमाटीडाटकाम वेब न्यूजपोर्टल पर प्रसारित। सोनमाटी से पत्रकारिता की मुख्यधारा का आरंभ। करीब एक दशक तक राष्ट्रीय नवीन मेल और दैनिक जागरण के बारुण प्रखंड संवाददाता के रूप में कार्य। स्थानीय सांस्कृतिक इतिहास में रुचि। सोनघाटी पुरातत्व परिषद व अन्य संस्थाओं में सक्रिय। मतदान के जरिये सहकारी संस्था बारून व्यापार मंडल के 2012 के बाद 2017 में भी लगातार दूसरी बार अध्यक्ष निर्वाचित। संप्रति : निदेशक, पैरामाउंट पब्लिक स्कूल, बारुण (औरंगाबाद)  मोबाइल फोन : 9006724510, 9431457618

1. यह जिंदगी
जिंदगी इतनी बदसूरत होगी कहां सोचा था बचपन में?
उस समय तो आंखों में थे सपने सुनहरे भविष्य के
नित्य नई आशाओं और आकांक्षाओं के
झूले में झूुलता था मन।
कहां आशंका थी अनगढ़, उबड़-खाबड़ भविष्य की?
कहां पता था कि छूट जाएंगे कहीं पीछे
वे दोस्त, हसीन बातें, खूबसूरत ख्वाब, वे उन्मुक्त ठहाके।
काश, पता होता यह जिंदगी
इतनी बदसूरत भी होती है
तो नहीं देखता सपने सुनहरे
और, बार-बार मन नहीं टूटता,
क्योंकि ढालता मन को और तन को भी
जिंदगी के खुरदरेपन का सामना करने के लिए।

2. सुनो दोस्तों
सुनो दोस्तों सिर्फ सामने ही मत देखो
देखो अपने दायें-बायें भी, आगे और पीछे भी
केवल सपनों में मत डूबे रहो
आंखें खोलकर देखो
क्या हो रहा है तुम्हारे आस-पास।
अनगिनत व्याकुल जन
देख रहे तुम्हें, पुकार रहें तुम्हें
आओ, उनसे आंखें मिलाओ
उनके और अपने सपनों में तालमेल तो बैठाओ।
शायद तभी पूरे हो सकते हैं
उनके सपने और तुम्हारे भी।

3. मेरे बचपन का शहर
मेरे बचपन का शहर, मेरी यादगार
स्मृतियों में रचा-बसा यह शहर
ऐसा तो नहीं था
तुम्हारी यह कैसी हालत है
क्या हो गया है तुम्हें
ऐसे तो नहीं थे, मेरी यादों के शहर तुम।
नफरत के जंगल में क्या तुम्हरा दम नहीं घुटता?
कहां गए वे दिन जब तुम्हारी गोद में
सभी लोग द्वेष से दूर सुख-चैन की सांस लिया करते थे।
चलो, कहीं और चलें
या फिर यही कहीं करीब
बनाएं एक नया संसार
जिसमें लौंट आएं फिर से वे पुराने दिन
ताकि हर कोई रह सके सुख से, चैन से।
मेरे बचपन के शहर तुम्हारा दम घुटता हो या कि नहीं
मैं तो तुम्हारे पास नहीं रह सकता, नहीं रह सकता…।

4. गांधी मैदान में
अपने-अपने कंधों पर पोटलियां टांगे,
हाथ में झंडे लिए लोग लगा रहे हैं नारे
उनके मुखर कंठों से उनका उत्साह फूट रहा है
देने चले हैं वे सत्ता के दरवाजे पर दस्तक
अनेक परेशानियां और कई जोखिम भी उठाकर।
रात भर गांधी मैदान में सो रहे लोग जग गए हैं
तैयार हो रहे हैं वे राजधानी पटना की सड़कों पर
अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए।
लम्बा, अंतहीन जुलूस गुजर रहा है राजधानी की सड़कों पर
गगनचुंबी इमारतों के सामने से गुजर रहे ये लोग
मखमल में टाट के पैबन्द जैसे दिख रहे हैं
फिर भी हताश नहीं दिख रहे हैं ये लोग।
अस्वीकार करते हैं अपने बौनेपन को
और संघर्ष का हुंकार कर रहे हैं
टाट को मखमल में बदलने के लिए।
अब लौट रहे हैं लोग अपने-अपने घरों को
थकान भरे चेहरों पर कुछ पा जाने का अहसास लिए हुए।

5. मेरी मां
मां, मेरी मां तुम्हारी लोरियां सुने
न जाने कितने दिन हो गए
न जाने कितना वक्त गुजर गया
मां, मेरी मां लोरियां सुनाओ न,
उसी तरह जिस तरह तुम
मुझे बचपन में सुनाती थी।
लोरियों के सहारे मैं आंखें मुंद कर
अपने बचपन के सुंदरवन में विचरण करना चाहता हूं
अपने भीतर के बच्चे को उन सुनहरे सपनों को
फिर से बुनना चाहता हूं।

6. कविता के शब्द
शब्द छिटक कर बाहर निकल रहे हैं मेेरी कविता से,
मेरी कविता के ये शब्द देते हैं आकाश को सहारा
कविता के सहारे ही चलती है यह दुनिया।
मगर मेरी कविता के शब्दों से निकलती हैं लपटें
उन लपटों से जलती-जलाती और पकती-पकाती,
खाती है यह दुनिया।
जिस दिन कविता से छिटकना बंद कर देंगे शब्द
उस दिन से यह दुनिया चलना, बोलना, खाना-पीना-सोना
जीना-मरना और लडऩा भी बंद कर देगी।

7. पत्थर बनतीं लड़कियां
हर रोज हजारों-हजार आंखों की अंगार
अपनी आंख की पुतलियों के रास्ते
अपने भीतर बतौर आग पैबस्त करती हैं
चाय बेचती लड़कियां, भींख मांगती लड़कियां
और मजबूरी में देह भी बेचतीं लड़कियां,
और यह आग जो जलाती है
हर रोज सुबह, दोपहर, शाम
उसकी कोमल संवेदना
इस कदर पत्थर बन रही हैं
अपने बचपन को मारकर
अपने भोलेपन की हत्या कर
अपने सपनों का कब्र बनाकर
हसरतों की तिलांजलि देकर
हर रोज हजारों लड़कियां।

8. आक्रोश मेरी पूंजी
पापा कहते हैं नहीं करना चाहिए गुस्सा
सेहत के लिए खराब है यह
मां भी मना करती है
इससे परहेज करने को कहती है
मित्र नाराज हो जाते हैं
कड़ी सच्ची बातें कहने पर
सब सुनना चाहते हैं चिकनी-चुपड़ी बातें
और चाहते हैं मेरे अंदर उकेरना खुशामदी आदमी,
पर, मेरे पास इसके सिवा और क्या है पूंजी
जिस पर मैं अभिमान कर सकूं
जमाने से लड़ सकूं
क्या बेमौत घुट-घुट कर मर न जाऊंगा
गर जाहिर न कर सकूं अपना आक्रोश।

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