=o स्मृतियों का झरोखा : डेहरी-आन-सोन o=
बिहार के डेहरी-आन-सोन में सत्तर साल से तब के अकबरपुर-कोईलवर रोड के पश्चिम सिरे पर शहर के एक पुराने भवन के रूप में खड़े जयहिन्द टाकिज की कारोबारी पहचान आज भले ही देश-प्रदेश के अन्य सिनेमाघरों की ही तरह करवट लेते समय के प्रवाह में हाशिये पर सरक आई हो, मगर एक जमाना था कि इसकी टिकट खिड़कियों पर पूरे शहर व पास-पड़ोस के ग्रामीण इलाके की भीड़ उमड़ती थी और इसके हाल के अंदर लोगों का दिल धड़कता था। सरकारी, गैर सरकारी दस्तावेजों में दर्ज अकबरपुर-कोईलवर रोड का नाम जल्द ही लुप्त होकर लोकमानस में सिनेमा रोड प्रचलित हो गया, जबकि जयहिन्द टाकिज के लेटरहेड पर भी पते के रूप में जयहिन्द, अकबरपुर-कोईलवर रोड ही छपा होता था।
70 साल चार जिलों में थे तीन ही सिनेमाघर
पूरे शाहाबाद (रोहतास, भोजपुर, कैमूर, औरंगाबाद जिलों) में 70 साल पहले तीन ही सिनेमाघर मोहन, रूपम (आरा), आनन्दी (सासाराम) थे। तब डेहरी-आन-सोन के लोग सिनेमा देखने ट्रेन से, एक्का, बैलगाड़ी से या पैदल भी सासाराम जाते थे, जो जयहिन्द से दो साल पहले बन चुका था। जयहिन्द के खुलने से पहले इसके मालिकों का परिवार भी सिनेमा देखने के लिए बग्धी से सासाराम जाता था। शहर में उन दिनों दो ही बग्धी थी, एक डालमियानगर में कारखाना प्रबंधन प्रमुख के पास और दूसरी डेहरी-आन-सोन में करीब एक सदी पुराने कला निकेतन (वस्त्र प्रतिष्ठान) वाले भवन में रहने वाले अग्रणी कपड़ा कारोबारी सरावगी परिवार के पास।
पहले नही होती थी आल इंडिया रिलीज फिल्म
डेहरी-आन-सोन के उप नगर डालमियानगर में एशिया-प्रसिद्ध बड़े-बड़े कई कारखानों के होने के बावजूद जयहिन्द के 15 साल बाद ही 1961 में डिलाइट टाकिज का निर्माण तिलौथू राज परिवार के विनोदविहारी सिन्हा (भूतपूर्व उद्योग मंत्री विपिनविहारी सिन्हा के बड़े भाई) ने किया था। जयहिन्द टाकिज 300 दर्शक-सीट से शुरू हुआ था, जो एक दशक बाद 1956 में 600 सीट वाला और फिर बीस साल बाद 1976 में 812 सीट वाला हो गया। पहले कोई भी फिल्म आल इंडिया रिलीज नहीं होती थी, क्योंकि महंगी फिल्म-रील की कई कापियां बनाना खर्चीला था और उसमें समय भी ज्यादा लगता था।
भव्य प्रचार करने के लिए हाफ डाला ट्रक का इस्तेमाल
कोई भी नई फिल्म पहले बड़े शहरों में रिलीज होती थी। छह महीने, साल भर बाद ही छोटे शहरों के सिनेमाघरों का क्रम आता था। तब सिनेमाघर में लगी फिल्म का प्रचार बैलगाड़ी के जरिये होता था। उस वक्त डेहरी-आन-सोन में पांव से चलाए जाने वाले रिक्शा नहींपहुंचा था। जब भव्य प्रचार करना होता था, तब इसके लिए हाफ डाला छोटे ट्रक का उपयोग होता था। फिल्में आम तौर पर 35 मिलीमीटर की रील में बनती थीं। बाद में 70 मिलीमीटर में बनने लगीं। 70 एमएम का ट्रेंड लोकप्रिय नहीं हुआ, क्योंकि इसके लिए सभी सिनेमा हाल में पर्दा, प्रोजेक्टर उसी अनुरूप होना चाहिए। जो तब देश में सब जगह सभी सिनेमाघरों में संभव नहीं था।
बालगोविन्दबिगहा में लगता था मेला, रातभर चलते थे सिनेमा-शो
बीती सदी में डेहरी-आन-सोन के लिए नागपंचमी और मकरसंक्रांति बड़े उत्सव के रूप में आते थे। सावन की नागपंचमी के दिन साहू जैन परिवार द्वारा संचालित होने वाले डालमियानगर कारखानों के गेट आम लोगों के लिए खोल दिए जाते थे। लोग कारखानों के भीतर जाकर दिनभर देखते थे और शाम या रात में जयहिन्द पहुंचकर सिनेमा देखते थे। तब सिनेमा देखने वालों की खूब हुजूम उमड़ती थी और सबको टिकट नहीं मिल पाता था। मकरसंक्रांति पर थाना चौक के पास बालगोविन्द बिगहा में तिलौथू राजपरिवार की जमीन पर एक महीने का मेला लगता था। इस वजह से फिल्म के शो एक महीने के लिए रातभर चलते थे। तब गांव के लोग सिनेमा देखने के बाद जयहिन्द के खुले परिसर में ही सोकर रात काटते थे।
तब मनोरंजन और टैक्स का भी बड़ा संसाधन था सिनेमाघर
बीती सदी में नब्बे के दशक तक सपरिवार देखा जाने वाला मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय और सरकार को टैक्स देने वाला साधन सिनेमा उद्योग का स्वर्णिम काल था। तकनीक बदली, ट्रेंड बदला, जीवनशैली बदली। सिनेमाघरों में 60 फीसदी सीट खाली रहने लगी। डेहरी-आन-सोन के 5 सिनेमा घरों में से दो ही चल रहे हैं, तीन बंद हो गए। 50 साल पहले बाहर से पढ़ाई कर घर लौटे शंकरलाल सरावगी के एकलौते बेटे विश्वनाथ प्रसाद सरावगी ने 30 मई 1968 से जयहिन्द का प्रबंध और अन्य पारिवारिक कारोबार संभालना शुरू किया था।
(धारावाहिक-दो …)
(जय हिन्द के मालिक विश्वनाथ प्रसाद सरावगी से बातचीत पर आधारित।
प्रस्तुति : कृष्ण किसलय, तस्वीर : निशान्त राज)