डेहरी-आन-सोन (बिहार)-विशेष प्रतिनिधि। भारत में तिब्बत के शरणार्थी इस बार अपने धर्मगुरु दलाई लामा को नोबल पुरस्कार दिए जाने के दिन को शांति दिवस के रूप में मनाएंगे और बिहार में सोन नद तट पर बसे सबसे बड़े शहर डेहरी-आन-सोन सहित देशभर में फैले अपने कार्य-व्यापार स्थलों पर गरीब-वंचित परिवारों के भारतीय बच्चों को गर्म कपड़ा बांटकर सामूहिक धन्यवाद-ज्ञापन करेंगे। भारत में छह दशक से शरण ले रखे तिब्बतवासियों को संरक्षण और अपनापन का माहौल देने के लिए निर्वासित तिब्बती सरकार के 60 साल पूरा होने के के उपलक्ष्य में इस सरकार के अध्यक्ष लोबसांग सांग्ये के निर्देश पर ऐसा किया जा रहा है।पिछले साठ सालों में तिब्बत से विस्थापित हुए करीब 20 लाख तिब्बती आज दुनिया भर में फैले हुए हैं, जिनमें से करीब एक लाख ने भारत में शरण ले रखी है।
50 सालों से सोन नद तट के डेहरी-आन-सोन में शिविर डालते हैं तिब्बती शरणार्थी
बीती आधी सदी से इनका एक नियमिति अंशकालिक कारोबार केेंद्र डेहरी-आन-सोन भी रहा है, जहां शरणार्थी लगातार आता और महीनों तक ठहरता और फिर अपने शरणार्थी शिविर-स्थलों पर लौट जाता है। 60 साल पहले तिब्बत पर चीन के आक्रमण करने (कब्जा जमाने) के बाद वहां से नवयुवा दलाई लामा थुबतेन ग्यात्सो ने मां के गर्भनाल की तरह जुड़े तिब्बत से अपने अनुयाइयों के साथ चलकर मैकमोहन रेखा (भारतीय सीमा) पार करने के बाद भारत के तवांग (अरुणाचल प्रदेश) में शरण ली थी। तिब्बत के राष्ट्र-अध्यक्ष रहे 14वें दलाई लामा और उनकी निर्वासित सरकार के लिए भारत सरकार की ओर से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में शरण देने की और उनके अनुयाइयों को पूर्वोत्तर भारत, उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों में शरण देने की व्यवस्था की गई। भारत मेें शरण लेने के 30 साल बाद 10 दिसम्बर 1989 को इन्हें (मूल नाम ल्हामो धोंडुंग) अपने देश तिब्बत की आजादी के अहिंसक संघर्ष के लिए विश्व का सबसे बड़ा और सबसे प्रतिष्ठित शांति नोबेल पुरस्कार मिला। तिब्बत के इस राजकीय प्रमुख ने 2011 में अपनी राजनीतिक शक्ति लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित तिब्बती नेतृत्व को सौंपकर केवल अध्याात्मिक गुरु (दलाई लामा) बने रहने की घोषणा की।
रमजान मंजिल के सामने डाला डेरा, शंकरलाज को बनाया बसेरा
कोई पचास सालों से बिहार के सोन तट पर डेहरी-आन-सोन में तिब्बती शरणार्थियों का जत्था सपरिवार हर साल सर्दी के मौसम में आता और यहां अपना गांव-बाजार बसाता है। आरंभ में रेलवे स्टेशन रोड में मालगोदाम चौक के पास रमजान मंजिल के सामने तिब्बती शरणार्थियों का जत्था उतरता, डेरा जमाता और वहींऊनी कपड़ों का अपना बाजार सजाता था। शरणार्थी तिब्बतियों का परिवार पहली बार 1969 में डेहरी-आन-सोन में जिस गैर-आवासीय भवन में अपना ठिकाना बनाया, वह था शंकरलाज। हालांकि अपने हिस्सेदारों में बंटने और बिक जाने के कारण कभी शहर का आलीशान भवनों में से एक रहा रमजान मंजिल अब अपने मूल रूप में नहींहै, मगर शंकरलाज अभी भी लगभग उसी रूप में है और पड़ोस में डा. रागिनी सिन्हा का अस्पताल अब उसकी स्टेशन रोड में होने की नई पहचान है। शंकरलाज अपने समय में पुराने शाहाबाद जिले अर्थात आज के रोहतास, कैमूर, भोजपुर व बक्सर जिलों का सबसे पहला लौज है। तब धर्मशाला, सराय का ही चलन था, मगर इससे पहले पूरे शाहाबाद में न कोई होटल था और न ही लौज यानी कोई भी ऐसा प्रतिष्ठिान आधिकारिक तौर पर कम-से-कम पंजीकृत नहींथा। शंकरलाज को 1968 में डालमियानगर श्रमायुक्त कार्यालय से प्रतिष्ठान लाइसेंस निर्गत हुआ।
जैसाकि शंकरलाज के मालिक दयानिधि श्रीवास्तव उर्फ भरतलाल का कहना है, डालमियानगर कारखाना में एक इकाई प्रभारी के रूप में कार्यरत इनके पिता स्व. सीताराम श्रीवास्तव ने आवासीय भवन 1962-63 में बनाया था, जिसे बाद में शंकरलाज के रूप में तब्दील कर यात्रियों को किराये पर दिया जाने लगा और किराया था तीन रुपये प्रति कमरा। उस वक्त शहर (डेहरी-आन-सोन) में दो ही धर्मशाला सिनेमा रोड में सरावगी धर्मशाला और रेलवे स्टेशन के पास बांक धर्मशाला थे, कोई होटल नहीं था।
जब तक तिब्बत आजाद नहीं कर दिया जाता, तब तक हमारा तो मरना-जीना ही भारत में
डेहरी-आन-सोन में स्टेशन रोड के कई स्थानों पर बाजार लगाने के बाद अब तिब्बतियों के गर्म कपड़ों का बाजार पाली रोड में जीवन बीमा निगम के पुरानी बिल्ंिडंग के पास लगता है। पहले के मुकाबले यहां आने वाले परिवारों या दुकानों की संख्या अब कम हो गई है। इस बार नौ परिवारों ने अपनी दुकानें लगा रखी हैं, जिनके नाम छाम्बा, जिम्बा, एस. डोलमा, टी.छोइटुन, करमा, यानचांम, पी. डोलमा, टी. यानचांम और टी. डाम्बा हैं। डेहरी-आन-सोन के तिब्बती बाजार के टीम लीडर दंपति छाम्बा, जिम्बा का कहना है कि पहली पीढ़ी के तिब्बत शरणार्थियों के लिए उनकी तस्वीर व परिचय के साथ दलाई लामा के कार्यालय (धर्मशाला) से आधिकारिक पत्र कलक्टर, एसपी और ठहरने की जगह के प्रबंधक के नाम आता था। अब तो भारत में पैदा हुए तिब्बतियों का आधारकार्ड भी बन चुका है। हम शरणार्थियों के वंशजों को पता ही नहींचला कि हम दूसरे देश में हैं। जब तक तिब्बत आजाद नहींकर दिया जाता, तब तक हमारा तो मरना-जीना ही भारत में है, भारत के लिए है।
शरणार्थी गांव से सितम्बर में निकल जाता है तिब्बती परिवार
छाम्बा के अनुसार, डेहरी-आन-सोन में बाजार लगाने वाला तिब्बती परिवार अपनी तैयारी, पूंजी और बेचे जाने वाले माल (गर्म कपड़ों) के हिसाब से सितम्बर में अपने घर (शरणार्थी गांव) से सितम्बर में निकल जाता है। पहले हम लुुधियाना (पंजाब) जाकर गर्म कपड़ों की खरीददारी करते हैं। गर्म कपड़ों (मुख्यत: स्वेटर) को अंतिम रूप देकर बेचे जाने योग्य बनाने में महीने भर का समय लगता है। नवम्बर से दुकान लगती है और हम जनवरी के तीसरे हफ्ते में माल बेचकर अपना सामूहिक नववर्ष मनाने के लिए डेहरी-आन-सोन से भारत सरकार से आवंटित मैसूर, बंगलुरू के शरणार्थी गांव लौट जाते हैं। शरणार्थी गांव में ंहमें खेती के लिए भी जमीन आवंटित है, जिस पर चावल के साथ सुपारी, गोलमिर्च आदि मसाला की सपिरवार खेती करते हैं। इससे भी आय होती है।
(विशेष रिपोर्ट : कृष्ण किसलय, साथ में इनपुट व तस्वीर : निशांत राज)