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आलेख/समीक्षादेशसामयिकसोनमाटी टुडे

बदलते वक़्त का भैरंट

पुस्तक-समीक्षा

‘बातें बेमतलब’ युवा व्यंग्यकार अनुज खरे का तीसरा व्यंग्य संग्रह है। इनके ‘परम श्रद्धेय मैं खुद’ और ‘चिल्लर चिंतन’ संग्रह चर्चित हो चुके हैं। व्यंग्य के अलावा अनुज खरे ने नाटक विधा में भी हाथ आजमाया है। इनके नाटक ‘नौटंकी राजा’ का कई शहरों में मंचन हुआ और यह काफी लोकप्रिय रहा। अनुज खरे मूलत: व्यंग्यकार ही हैं। इनके 250 से भी ज़्यादा व्यंग्य लेख विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। युवा व्यंग्यकारों में अनुज खरे की शैली अलग ही हट कर है ।  इन्होंने कुछ नये शब्दों की ईजाद की है। कहा जा सकता है कि एक्सपेरिमेंटल होते हुए वह अपने शब्दों में ‘भैरंट’ ही बन गए है।

दैनिक भास्कर डॉटकॉम के एडिटर अनुज खरे के नये व्यंग्य संग्रह ‘बातें बेमतलब’ की समीक्षा लेखक-पत्रकार मनोज कुमार झा द्वारा

हिंदी में व्यंग्यकार तो एक से बढ़ कर एक हुए, पर ‘भैरंट’ व्यंग्यकार के रूप में अनुज खरे पहली बार सामने आए हैं। देखना है, यह परंपरा किस तरह से आगे बढ़ती है। फ़िलहाल, इतना तो तय है कि व्यंग्य के लिए ये समय सबसे मुफ़ीद है और आने वाले समय में भी इसकी तूती बोलेगी। कहा जा सकता है कि अब ‘भैरंट’ व्यंग्य का भविष्य उज्ज्वल है। अनुज खरे की खासियत है व्यंग्य की भाषा में नये प्रयोग। यह इनके तमाम व्यंग्य लेखों को पढ़ते हुए शिद्दत से महसूस होता है। संग्रह के शीर्षक से ही व्यंग्य की तल्ख़ी पाठक महसूस कर सकता है – बातें बेमतलब। ज़ाहिर-सी बात है कि मतलब की बातें भी अब बेमतलब-सी लगने लगीं तो इस किताब की ज़रूरत सामने आई। मतलब की हर बात ही बेमतलब होती जा रही है। तो करें क्या, इसका जवाब सीधे तरीके से मिल नहीं सकता। बांके-टेढ़े तरीके से ही मिल सकता है।

गुदगुदाता और मार करता व्यंग्य का बांकपन और टेढ़ापन

अनुज खरे के व्यंग्य में बांकपन और टेढ़ापन है जो गुदगुदाता तो है, पर मार करता है ऐसी कि बंदा आह भी न भर सके।  व्यंग्य संग्रह  ‘बातें बेमतलब’  में कुल 36 व्यंग्य शामिल किए गए हैं। करने को ज्यादा भी किए जा सकते थे, पर व्यंग्यकार को पता है कि पाठकों पर ज़्यादा वजन लादना ठीक नहीं होता। शनै: शनै: ही उन्हें काबू में लेना है। ज़्यादा वजन देख कर पाठक घबराता है, क्योंकि आज कौन है जो आसानी से पढ़ना चाहता है। वॉट्सऐप-फेसबुक के ज़माने में वीडियो देखने में रम जाता है। ऐसे में पाठक बनाना या कहें मूंडना भी बड़ी कला है, जिसे कवि नहीं सिर्फ़ व्यंग्यकार ही साध सकता है। व्यंग्य लेखों को पढ़ने से पता चलता है कि अनुज खरे इस कला को साधने में सफल रहे हैं।

संग्रह की भूमिका के रूप में ‘चंद शब्द उर्फ़ ख़ुद से ख़ुद का साक्षात्कार’ प्रस्तुत किया गया है। ख़ुद ही ख़ुद का साक्षात्कार ले लेना इस युग की ही मांग है, क्योंकि कौन किसके पीछे चक्कर लगाता रहे और साक्षात्कार देने की जुगाड़ लगाता रहे। ख़ुद के सवाल, ख़ुद के जवाब। ये है आज का नया हिसाब। इस साक्षात्कार में लेखक ‘क्यों लिख डाली किताब?’ ‘चुनिंदा व्यंग्यों के पीछे क्या चक्कर है?’ ‘आपकी रचनाएं समाज में किस तरह का आदर्श स्थापित कर रही हैं?’ ‘आपकी रचनाओं में काफ़ी सपाटबयानी होती है?’ और ‘व्यंग्य लेखन को मिशन-विशन तो नहीं मान लिया आपने?’ जैसे कुछ सवालों या कहें आरोपों के जवाब देता दिखाई पड़ता है। इन जवाबों से हमें इस किताब के प्रकाशन का औचित्य-अनौचित्य पता चल जाता है।

‘लव जेहाद’ के जवाब में रोमांटिक ‘लव देहात’ की बात

आज जो ‘लव जेहाद’ का मुद्दा गरम है तो लेखक ने उसके जवाब में बहुत ही रोमांटिक ‘लव देहात’ की बात बताई है, जिसके जो अनुभवी होंगे, वे ज्यादा मजा ले सकेंगे। आज के आतंकी माहौल में जब तरह-तरह के बम फोड़े जाते हैं, लेखक ने उन आतंकियों के बारे में बताया है जो ‘बुद्धिबम’ फेंकते हैं। ये आतंकी कितने ख़तरनाक हो सकते हैं, ये नहीं बताया जा सकता, ये तो किताब पढ़ कर ही जाना जा सकता है। हद तो ये है कि एक लेख में व्यंग्यकार बन जाने के बावजूद भी व्यंग्यकार ये दुख प्रकट करता है कि ‘हम व्यंग्यकार क्यों नहीं बन पाए’। लेकिन व्यंग्यकार बने या न बने, लेखक ने ये साफ़ घोषणा कर दी है कि ‘बंदा अमेरिका के लिए ही बना है बंधु!’ बात वाजिब है, अमेरिका के लिए बना है तो उसकी डिमांड है, नहीं तो कौन पूछता है। अमेरिका के लिए ही बनने में जो गौरव है, क्या अब रूस के लिए बनने में होगा। कहा जा सकता है कि किताब में जो बातें हैं, बेमतलब होते हुए भी ज्ञानवर्द्धक और उद्बोधक हैं।

आज जब पत्रकारिता में डॉटकॉम का ही बोलबाला है और व्यंग्यकार भी डॉट कॉम का ही एडिटर है, वहीं जोर सारा अब देशभक्ति पर ही है तो ‘ये है हमारी देशभक्ति डॉट कॉम’ का मुज़ाहिरा होना भी ज़रूरी है। इससे समझा जा सकता है कि इस संग्रह में लेखक ने हर ज़रूरी बात भर रखी है, ताकि आप हमेशा अपडेट रहें और किसी मुसीबत में ना पड़ें। देशभक्त हैं तो क्या क्रांतिकारी न होंगे। विरुद्धों की एकता का सिद्धांत क्या ग़लत है? नहीं, तो इसे साबित करते हुए लेखक ने ‘लगभग रूटीन के क्रांतिकारी’ लेख में हमारा परिचय उनसे भी कराया है जो इस व्यवस्था को बदलने के लिए सन्नद्ध हैं, पर कैसे, यह जानने के लिए किताब पढ़नी होगी।

संग्रह में है ‘मायके गई पत्नी को लिखा गया भैरंट लैटर’

इस संग्रह के एक व्यंग्य की चर्चा किए बिना रहा नहीं जा सकता, क्योंकि किताब में जो सबसे जानदार चीज़ है, वो वही है और वह है ‘मायके गई पत्नी को लिखा गया भैरंट लैटर’। इस लैटर को पढ़ना हर युवा, अधेड़, वृद्ध का सपना होना चाहिए। इसमें जो भैरंट है, वही इस संग्रह का प्राण-तत्व है यानी करंट है। बाकी तो इस संग्रह में एक से एक चीज़ें हैं। यह ऐसा पिटारा है जो खुलता है तो आंखें चक्कर खा जाती हैं कि ये देखें कि वो देखें, क्या देखें और जब देखें तो देखते ही रह जाएं। कब राजनीति में सेवा की गुंजाइश नहीं बच पाती, वो कौन-सा क्षण होता है जब बनता है कोई कवि, कस्बाई कवि सम्मेलन वाया फ्लैशबैक कैसा दिखता है, सुपरफास्ट लवस्टोरी कैसी होती है, इशकवाला लव और ट्रकवाला टैलेंट कैसा होता है, इंटरनेट के सहारे गुज़र रही ज़िंदगी को भी क्या किसी सहारे की ज़रूरत होती है, मोबाइल की राह में जो शहीद हुए उनकी ज़रा कुर्बानी कैसी होती है, वर्चुअल वर्ल्ड के वैरागी कैसे होते हैं, विकास की मादक योजनाएं कैसी होती हैं, भगवान क्यों कभी नेता के रूप में अवतरित नहीं होने वाले आदि जो सवाल हैं, उनके जवाब आपको सिर्फ़ यहीं मिल सकेंगे।

वैसे तो लेखक ने बुंदेलखंड में जन्म लिया और किताब में जो परिचय छपा है, उसके अनुसार घाट-घाट का पानी पी चुका है, पर हाल मुकाम चूंकि भोपाल है तो आपको ‘सूरमा भोपाली का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू’ भी पढ़ने को मिल जाएगा, यह बहुत ही अपेक्षित था और इसीलिए खासकर दिया गया है जिसकी तस्दीक ख़ुद लेखक से भी की जा सकती है। बाकी छिटपुट और चीज़ें हैं जिसमें एक लंबी-सी फ़िल्म समीक्षा है तो ‘सत्ता के लाइलाज साइड इफ़ेक्ट से कैसे बचेंगे’, यह भी बता दिया गया है। बहरहाल, किताब का नाम ही है ‘बातें बेमतलब’, लेकिन बातें मतलब वाली हैं।

 – मनोज कुमार झा

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