बिहार विधानसभा चुनाव : अगड़े-पिछड़े के बाद अब दलित का सवाल/ मंडलवाद के बाद बंटा बिहारी समाज/ लोकतंत्र बनाम बाहुबल/ द्रोह-काल के पथिक

(कृष्ण किसलय)

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बिहार विधानसभा चुनाव : अगड़े-पिछड़े के बाद अब दलित का सवाल
–कृष्ण किसलय
(संपादक, सोनमाटी)

बिहार में हो रहे विधानसभा चुनाव पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं, क्योंकि यह वैश्विक महामारी कोरोना के काल में विश्व का सबसे बड़ा निर्वाचन है। जैसा कि भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुनील अरोड़ा बता चुके हैं, 70 से अधिक देशों ने कोविड-19 काल में अपने चुनाव स्थगित कर दिए। 17वीं विधानसभा के चुनाव में मुख्यमंत्री के अनेक चेहरों में दो प्रमुख चेहरे हैं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और सदन में प्रतिपक्ष के नेता लालू यादव के पुत्र तेजस्वी यादव, जबकि तीन पूर्व केेंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा, रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान और पप्पू यादव राजनीतिक संभावना के खिलाड़ी के रूप में हैं। नीतीश कुमार केेंद्र में भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए के और राजद सुप्रीमो लालू यादव के पुत्र तेजस्वी यादव कांग्रेस वाले महागठबंधन के मुख्यमंत्री प्रत्याशी हैं। हम (हिंदुस्तानी अवाम पार्टी)के अध्यक्ष पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के मुकेश सहनी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यानी जदयू-भाजपा और सभी वामपंथी दल विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव यानी राजद-कांग्रेस के साथ हैं। विधानसभा की कुल 243 सीटों में सत्ताधारी एनडीए का जदयू 122 सीटों और भाजपा 121 सीटों पर, जबकि प्रतिपक्षी महागठबंधन में राजद सबसे अधिक 144 सीटों पर और कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। राजद ने अपने ही हिस्से से वामपंथी दलों भाकपा-माले, माकपा और भाकपा को 29 सीटें दे रखी हैं। इसी तरह जदयू ने अपने कोटे से हम (पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी) को 07 सीटें और भाजपा ने अपने कोटे से वीआईपी (मुकेश सहनी) को 11 सीटें दे रखी हैं।

नहीं हो सकी बसपा की पकड़ मजबूत :

इस बार का चुनावी युद्ध दलित धारा के नेतृत्व के लिए भी है। राज्य में सभी 23 अनुसूचित जातियों की आबादी 1.70 करोड़ यानी 16 फीसदी है, जिनमें करीब 85 लाख मतदाता हैं। अनुसूचित जातियों में रविदास सबसे अधिक 46 लाख से अधिक, पासवान 45 लाख से अधिक और तीसरे स्थान पर मुसहर 26 लाख से अधिक हैं। इसके बाद सात लाख से अधिक पासी और सात-सात लाख के करीब धोबी, रजक, भुइयां हैं। 11 दलित जातियों की कुल संख्या 50 हजार के आस-पास ही है। अगड़ी-पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल पहले से तय होने की वजह से दलित जातियां राज्य में फ्लोटिंग वोटर हैं। राज्य में दलित नेता जीतनराम मांझी मुसहर और अशोक चौधरी पासी मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो नीतीश कुमार के साथ हैं। वरिष्ठ दलित नेता भूदेव चौधरी और पूर्व मंत्री श्याम रजक तेजस्वी यादव के साथ हैं। मायावती की दलित समर्थक पार्टी बसपा ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में 2.07 फीसदी मत पाया था और उसकी उपस्थिति सासाराम, बक्सर, औरंगाबाद, गोपालगंज, सीवान, पश्चिम चंपारण जिलों में मजबूत थी। जबकि बसपा ने 25 साल पहले ही 1995 में उत्तर प्रदेश से सटे बिहार के सीमांत कैमूर जिला के चैनपुर और मोहनिया विधानसभा क्षेत्रों पर कब्जा जमाया था। मगर बेहतर रणनीति के अभाव और बदले सियासी समीकरण में 2005, 2010 और 2015 के विधानसभा चुनावों में उसका कोई विधायक निर्वाचित नहीं हुआ।

अनुसूचित जाति क्षेत्र में पासवान परिवार का वर्चस्व :

राज्य के पांच जिलों समस्तीपुर, खगडिय़ा, जमुई, वैशाली और नालंदा में दलित वोटों की अधिक आबादी बड़ा चुनावी फैक्टर रहा है। दलित आबादी बहुल आरक्षित लोकसभा सीटों पर भूतपूर्व केेंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के परिवार का कब्जा है। समस्तीपुर लोकसभा क्षेत्र से रामविलास पासवान के भतीजा प्रिंस राज, हाजीपुर संसदीय क्षेत्र से उनके भाई पशुपति कुमार पारस और जमुई लोकसभा आरक्षित सीट से बेटा चिराग पासवान सांसद हैं। लोजपा के पास खोने के लिए कुछ है नहीं, क्योंकि इसके दो ही विधायक हैं। चिराग पासवान के नेतृत्व में बिहार विधानसभा चुनाव में मत प्रतिशत या विधायक संख्या बढ़ जाए तो वास्तव में लोजपा के एकछत्र नेता के रूप में उनके नाम पर मुहर लग जाएगी। छह फीसदी दलित मत को किसी उम्मीदवार के लिए ट्रांसफर करा लेने की क्षमता के कारण ही रामविलास पासवान राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण बने रहे थे। लोजपा को 2005 के विधानसभा चुनाव में 12.62 फीसदी मत के साथ 29 सीटें मिली थीं। तब लोजपा 178 सीटों पर उतरी थी। 2005 में ही दुबारा चुनाव होने पर मत प्रतिशत 11.10 पर खिसक आया और 203 प्रत्याशियों में 10 ही विधायक बन सके थे। 2015 में मत प्रतिशत सरक कर और नीचे चला आया। इसीलिए चिराग पासवान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोलकर प्लोटिंग दलित मतों को आकर्षित करने का प्रयास कर रहे हैं। चिराग पासवान की लोजपा 143 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। चिराग पासवान के राज्य में एनडीए से अलग होकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोले रखने से चुनाव दिलचस्प हो गया है।

चुनाव-समीकरण को दिलचस्प बनाते छोटे दल :

सत्ताधारी भाजपा-जदयू की गठजोड़ के विरुद्ध चुनाव के मैदान में मुख्य रूप से लालू यादव का राजद, कांग्रेस और वाम दल ही हैं। इस दोतरफा चुनावी समीकरण को मोड़-कोण देकर दिलचस्प बनाने का काम राज्य भर में लोजपा, रालोसपा, बसपा के साथ स्थानीय स्तर के छोटे-छोटे दल कर रहे हैं। यह तय नहीं है कि ये दल अपनी स्थानीय ताकत कितनी बनाएंगे, मगर यह तय है कि यह अनेकों का खेल बिगाड़ेंगे। इन खेल-बिगाडऩे वालों में असदुुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्भव ठाकरे की शिव सेना, अरविंद केजरीवाल की आप, पूर्व विधायक प्रदीप जोशी का राष्ट्र सेवा दल, लंदन रिटर्न पुष्पम प्रिया चौधरी की फ्लुरल्स पार्टी, केेंद्रीय मंत्री रामदास अठावले की महाराष्ट्र में सक्रिय आरईपी, पूर्व केेंद्रीय मंत्री देवेन्द्र यादव की समाजवादी जनता पार्टी (डेमोक्रेटिक), थानाध्यक्ष की नौकरी छोड़ विधायक बने सोम प्रकाश की स्वराज पार्टी आदि हैं। इन सबके निशाने पर 15-15 साल सत्ता में रहने वाले नीतीश कुमार और लालू-राबड़ी हैं। इस बार 2005 में चार विधानसभा सीट जीतने वाली मुलायम सिंह यादव की पार्टी सपा का राजद को समर्थन है। बहरहाल, बिहार की 17वीं विधानसभा के लिए तीन चरणों में होने वाले चुनाव के प्रथम चरण में 71 विधानसभा सीटों पर 28 अक्टूबर को मतदान होगा, जिसके लिए सभी दलों के 1065 उम्मीदवार चुनाव के मैदान में है। मुख्य दलों ने अगड़ा, पिछड़ा और दलित में बंटी बिहार की त्रिस्तरीय सामाजिक संरचना में दलित धारा के संभावित समीकरण का अनुमान लगाकर अपनी शतरंजी चालें चली हैं। पिछड़ा समाज बहुल बिहार में आजादी के बाद 38 सालों में मुख्यत: सवर्ण मुख्यमंत्रियों (12 सवर्ण, 03 पिछड़ा, 02 दलित) के अगड़ा वर्ग राज के बाद 1990 से 30 सालों से पिछड़ा वर्ग का ही मुख्यमंत्री होने के सवाल के मद्देनजर अब कसमसाहट और कवायद तीसरी धारा के नेतृत्व यानी दलित वर्ग के मुख्यमंत्री के लिए भी है। इस सवाल को ही इस चुनाव में मुख्य दलों से अलग अपने-अपने तरीके से अन्य दलों ने खड़ा किया, रणनीति बनाई है।

देहरादून (दिल्ली कार्यालय) से प्रकाशिथ चाणक्य मंत्र में पटना (बिहार) से कृष्ण किसलय की रिपोर्ट

….और मंडलवाद के बाद बंट गया बिहारी समाज
(कृष्ण किसलय)

इतिहास साक्षी है, देश की आजादी के लिए स्वाधीनता आंदोलन में बिहार के सर्वसमाज ने आगे बढ़कर सम्मिलित योगदान किया था। इसके बाद 1974 में संपूर्ण क्रांति आंदोलन और 1975 में आपातकाल के जरिये तानाशाही थोपने का विरोध भी प्रदेश के सर्वसमाज ने मिलकर ही किया और अपना समर्थन दिया। मगर मंडलवाद के उभार के बाद जातीय समीकरण के अंतर्गत अगड़ों, पिछड़ों और दलितों का सामाजिक ध्रुवीकरण बिहार में तेजी से हुआ। मंडलवाद युग के आगमन के बाद 1990 में लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने से पहले बिहार के सभी 23 मुख्यमंत्रियों में 12 सवर्ण समाज, तीन पिछड़ा वर्ग, दो दलित वर्ग और एक मुस्लिम समाज के थे। जाहिर है कि लालू के पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री सर्वसमाज का प्रतिनिधित्व करते दिखते हैं, भले ही सर्वसमाज का विस्तार व्यापकता नहींरहा हो। आजादी मिलने के बाद 1952 से गुजरे 68 सालों में अभी तक नीतीश कुमार को मिलाकर बिहार में 19 मुख्यमंत्रियों के हाथों में राज्य सरकारों की बागडोर रही है। इनमें चार मुख्यमंत्रियों श्रीकृष्ण सिंह, लालू प्रसाद यादव, लालू प्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी और नीतीश कुमार के पास 38 साल सत्ता रही है। 1990-2005 तक लालू-राबड़ी और 2005-2020 तक नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं।

ऐसे थे बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह :

बिहार केसरी के नाम से मशहूर श्रीकृष्ण सिंह प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री थे, जो श्रीबाबू के नाम से भी लोकप्रिय थे। अपने वसूल से समझौता नहीं करने वाले श्रीबाबू चुनाव में अपने क्षेत्र (शेखपुरा जिला का बरबीघा) में वोट मांगने नहीं जाते थे। नवादा जिला के खनवां गांव निवासी श्रीकृष्ण सिंह ने बतौर मुख्यमंत्री 1946 से 1961 तक 15 साल बिहार की बागडोर संभाली थी। भारत को अंग्रेजी राज से आजादी मिलने से तीन साल पहले से ही बतौर मुख्यमंत्री रहे श्रीबाबू को बिहार में औद्योगिक क्रांति के लिए याद किया जाता है और आधुनिक बिहार का शिल्पकार भी कहा जाता है। उन्हें बिहार से जमींदारी प्रथा खत्म करने का श्रेय जाता है। मुख्यमंत्री रहते हुए जब वह अपने गांव आते थे, तब अपने सुरक्षाकर्मियों को बाहर ही छोड़ देते थे और कहते थे कि यह मेरा गांव है, यहां मुझे कोई खतरा नहींहै। वह हमेशा लोगों के लिए सुलभ रहते थे। कुछ सालों को छोड़कर आजादी के बाद से जारी कांग्रेस का शासनकाल समाप्त होने के बाद रामविलास पासवान, लालू यादव, और नीतीश कुमार को एक ही वंशवृक्ष की राजनीतिक शाखाएं माने जा सकते हंै, क्योंकि तीनों ही 1974 के जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में करीब आए और बिहार में नए राजनीतिक अध्याय का आरंभ किया। तीनों ने गरीबी से संघर्ष करते हुए शीर्ष सियासी मुकाम हासिल किया।

मलाल मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री नहीं बन पाने का :

बेशक रामविलास पासवान को इस बात का मलाल रहा कि वह बिहार के मुख्यमंत्री नहींबन सके। रामविलास पासवान ने गांव शहरबन्नी में स्कूली पढ़ाई के बाद पटना विश्वविद्यालय से एमए और एलएलबी किया। समाजवादी नेता राम संजीवन के संपर्क में आकर राजनीति का रुख किया और 1969 में अलौली विधानसभा से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे। 1974 में वह राज नारायण और जयप्रकाश नारायण के अनुयायी के रूप में लोकदल के महासचिव बने। 1975 की इमरजेंसी में वह गिरफ्तार हुए और 1977 में जेल से छूटने के बाद जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। सर्वाधिक मतों से चुनाव जीतकर संसद में पहंचने का वल्र्ड रिकार्ड उनके नाम दर्ज है। उन्होंने 1983 में दलित सेना की स्थापना की। उनके दो राजनीतिक निर्णय मील का पत्थर बने। पहला, बिहार के हाजीपुर में रेलवे का जोनल कार्यालय खोलना और दूसरा केन्द्र में अंबेडकर जयंती पर छुट्टी घोषित कराना। रामविलास पासवान के प्रधानमंत्री बनने का भी संयोग साकार नहीं हो सका। पांच दशकों तक बिहार और देश की राजनीति में शीर्ष पर रहे रामविलास पासवान पहली बार 1989 में केन्द्रीय श्रम मंत्री बनने के बाद देश के 6 प्रधानमंत्रियों की कैबिनेट में मंत्री रहे। दलित समाज से आने वाले इस नेता ने ऊंची जाति के लिए ऐसा शब्द प्रयोग नहीं किया, जिससे समाज में कटुता या अलगाव पैदा हो। साल 1996 की बात है। अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की अल्पमत सरकार गिर गई थी। कांग्रेस के समर्थन से केंद्र में संयुक्त मोर्चे की सरकार बनाने की तैयारी हो रही थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रधानमंत्री बनने से मना कर दिया था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने की सहमति नहीं दे रही थी। रामविलास पासवान के देश के पहले दलित प्रधानमंत्री बनने की संभावना बनी थी, मगर मुस्लिमों-पिछड़ों के बड़े नेता मुलायम सिंह यादव ने दक्षिण भारत के नेता एचडी देवेगौड़ा का नाम आगे कर दिया। सियासत में आगे क्या हो सकता है, इसे रामविलास भांप जाते थे। इसीलिए राजद सुप्रीमो लालू यादव ने उन्हें राजनीति का मौसम वैज्ञानिक कहा था।

सदियों के वंचितों को दी हक की आवाज :

बिहार में पत्नी पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के साथ 15 साल तक शासन करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का सियासी सफर 1970 के दशक मेंंजेपी आंदोलन में शुरू हुआ। उन्होंने सड़क से सदन तक दलितों-वंचितो, पिछड़ों के लिए की लड़ाई लड़ी है। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि बिहार के सदियों से दमित दलितों-वंचितों के कंठ में हक की आवाज भरी। पहले बढ़ते अपराध और फिर चारा घोटाला मामले में फंसने पर लालू प्रसाद यादव का वोट बैंक उनसे दूर होता गया और अंतत: 2005 में उन्हें सत्ता से बेदखल होना पड़ा। एक बार फिर 2015 में नीतीश कुमार के जदूय से समझौता कर लालू यादव सत्ता में वापस लौटे तो साबित हुआ कि वह सियासी दांवपेंच के कुशल खिलाड़ी हैं। चारा घोटाले में दोषी करार होने के बाद लालू यादव पिछले तीन सालों से रांची जेल में हैं। बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे लालू यादव के छोटे पुत्र नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के सामने अब चुनावी रणनीति के नेतृत्व की चुनौती है, क्योंकि लोकसभा चुनाव 2019 में उनकी पार्टी राजद को शून्य पर आउट होना पड़ा था। चुनावों में लालू यादव का गंवई अंदाज वाला चर्चित भाषण समाज के निचले पायदान के मतदाताओं को उनसे जोड़ता रहा है। मगर 2020 के विधानसभा चुनाव के परिदृश्य में खास अंदाज वाला उनका भाषण नहींहोगा। फिर भी लालू यादव ने कहा है, सियार के हंसने से हाथी को फर्क नहीं पड़ता, संकट आया है तो जाएगा भी। नीतीश कुमार के लिए उन्हींका दिया हुआ जुमला है पलटीमार, क्योंकि 2017 में राजद को अधर में छोड़कर नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ सरकार बना ली थी।

मुख्यमंत्री बने छह बार, 15 साल से लगातार :

भाजपा के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के साथ एनडीए सरकार का बिहार में नेतृत्व कर रहे मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उनके सात निश्चय कार्यक्रम के कारण फेम इंडिया और इंडिया पोस्ट सर्वे-2020 ने 16वें पायदान पर स्थान दिया है। बिहार के बख्तियारपुर निवासी नीतीश कुमार का चयन 1972 में बिहार कालेज आफ इंजीनियरिंग से बैचलर डिग्री हासिल करने के बाद राज्य बिजली बोर्ड में हो गया था। मगर वह राजनीति में चले गए और प्रदेश के पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में छह बार शपथ लिया यानी छह बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। 1974-1977 में जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में सक्रिय रहने के बावजूद वह लगातार दो बार विधानसभा चुनाव हार गए और तीसरी बार 1985 में चुने जा सके। 1987 में युवा लोकदल के अध्यक्ष और 1989 में बिहार जनता दल के सचिव बनाए गए। 1989 में नौंवी लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए और 1990 में केन्द्रीय मंत्रीमंडल में बतौर कृषि राज्यमंत्री शामिल हुए। वह 1998-1999 में केन्द्रीय रेल एवं भूतल परिवहन मंत्री रहे। अगस्त 1999 में गैसाल रेल दुर्घटना के बाद मंत्रीपद से इस्तीफा दे दिया था। पहली बार 2000 में बिहार के मुख्यमंत्री बने, लेकिन सात दिन बाद ही त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद 2001-2004 में केन्द्रीय रेलमंत्री रहे। नीतीश कुमार नवंबर 2005 में राष्ट्रीय जनता दल की पंद्रह साल पुरानी सत्ता को उखाड़ फेंकने में सफल हुए। वह लगातार तीन बार से विधान परिषद सदस्य हैं, जिनका कार्यकाल 2024 तक है। उनका बेटा बिरला प्रौद्योगिकी संस्थान से इंजीनियरिंग स्नातक निशांत कुमार रामविलास पासवान या लालू यादव के बेटों की तरह सक्रिय राजनीति में नहीं हैं।

देहरादून (दिल्ली कार्यालय) से प्रकाशित चाणक्य मंत्र में पटना (बिहार) से कृष्ण किसलय की रिपोर्ट

बिहार : लोकतंत्र में सियासत के बाहुबली
(कृष्ण किसलय)

भले ही बाहुबलियों की संख्या के कारण सरकारों की आलोचना होती रही हो और बिहार के संदर्भ में यह बताया जाता रहा हो कि चुनाव में बाहुबल-अपराध का दौर थम गया है। मगर हकीकत यही है कि अपने मकसद के हिसाब से बाहुबालियों का इस्तेमाल करने वाली सियासत तो इनके बिना अधूरी है, बस रणनीति बदल गई है। बाहुबलियों को सीधे टिकट नहीं देकर उनकी पत्नियों, संगे-संबंधियों को टिकट दिया जाने लगा है। निर्वाचन संबंधी स्वयंसेवी विश्लेषक संस्था एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिसर्च के अनुसार, 2015 की 16वीं विधानसभा चुनाव में 3407 उम्मीदवार खड़े हुए थे, जिनमें 1020 (तीस फीसदी) आपराधिक पृष्ठभूमि वाले थे और 23 फीसदी (782) पर तो गंभीर आपराधिक मुकदमें दर्ज थे। 3407 उम्मीदवारों मेें जीतकर विधानसभा पहुंचे 243 विधायकों में 142 यानी 58 फीसदी आपराधिक पृष्ठभूमि के थे।

एके-47 वाला पहला बाहुबली अशोक सम्राट :

वैसे तो सियासत और बाहुबल का भीतरी रिश्ता पुराना है, मगर बिहार में 1990 के दशक में खौफ से चुनाव को प्रभावित करने वाला नाम था अशोक सम्राट। आज तो अनेक आपराधिक गिरोह के पास एके-47 राइफल है, मगर तब सिर्फ अशोक सम्राट के पास ही एके-47 राइफल थी। इस बात का जिक्र नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी ने किया है। बिहार के बेगूसराय जिला के अशोक सम्राट की तूती उत्तर प्रदेश के गोरखपुर तक बोलती थी। दो बड़ी कंपनियां बेगूसराय में रीता कन्स्ट्रक्शन (संचालक रामलखन सिंह) और मुजफ्फरपुर में कमला कन्स्ट्रक्शन (स्वामी रतन सिंह) रेलवे का ठेका लेती थीं, जिन्हें ठेका दिलाने के लिए अशोक सम्राट और मोकामा के बाहुबली सूरजभान सिंह बाहुबल का इस्तेमाल करते थे। अशोक सम्राट ने पंजाब में सक्रिय खालिस्तान समर्थकों से हाथ मिलाकर एके-47 राइफल प्राप्त की थी। जब बिहार के पिछले पखवारा सेवानिवृत हुए डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय बेगूसराय के पुलिस अधीक्षक थे, तब उनके नेतृत्व में अशोक सम्राट गिरोह से एके-47 राइफल और इसके बाद सूरजभान सिंह के घर से एके-56 राइफल जब्त हुई थी। सत्ता से करीबी रिश्ता रखने वाला अशोक सम्राट बेगूसराय, बरौनी, मोकामा, मुजफ्फरपुर, वैशाली, लखीसराय, शेखपुरा में तय करता था कि चुनाव में किस उम्मीदवार को जीताना है? बिहार में एके-47 से पहली हत्या 1990 में सरस्वती पूजा के दिन मुजफ्फरपुर के छाता चौक पर दिन-दहाड़े बाहुबली चंद्रेश्वर सिंह की हुई थी, जिस पर दबंग नेता रघुनाथ पांडेय का वरदहस्त था। मुजफ्फरपुर को अंडरवल्र्ड का मिनी मुंबई कहा जाता रहा है। पटना में बाहुबली छोटन शुक्ला हत्याकांड के किरदार रहे मंत्री बृजबिहारी प्रसाद की 1998 में हुई हत्या में गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के कुख्यात डान श्रीप्रकाश शुक्ला, पूर्व सांसद सूरजभान सिंह, पूर्व विधायक मुन्ना शुक्ला, राजन तिवारी आरोपी थे, जो अब बरी हो चुके हैं। अशोक सम्राट का पूर्व सांसद आनंद मोहन की पार्टी से चुनाव लडऩे वाला था, तभी पुलिस की गोली का शिकार हो गया। अशोक सम्राट का एनकाउंटर बिहार पुलिस के शशिभूषण शर्मा से 5 मई 1995 को हाजीपुर के लक्ष्मणमठ के पास हुआ था। अशोक सम्राट के इन-काउंटर से पहले बहुचर्चित आंखफोड़वा कांड में नौ साल से निलंबित रहे शशिभूषण शर्मा को आउट-आफ-टर्म प्रोन्नति देकर डीएसपी बनाया गया। शशिभूषण शर्मा मंत्री बृजबिहारीप्रसाद हत्याकांड के अनुसंधान पदाधिकारी भी रहे, जिनकी हत्या 2010 में हुई। माना जाता है कि गंगाजल फिल्म की स्क्रीप्ट में शशिभूषण शर्मा का ही किरदार है।

रामा सिंह ने आखिर पा लिया राजद में प्रवेश :

जब डान अशोक सम्राट हाजीपुर में पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था, तब यह चर्चा थी कि अशोक सम्राट के लिए पुलिस का जाल रामा सिंह ने बिछाया था। जबकि अपहरण, रंगदारी, हत्या जैसे संगीन अपराध के आरोपी बाहुबली रामा सिंह की दोस्ती अशोक सम्राट से थी। पहले लोजपा में रहे पूर्व बाहुबली सांसद रामकिशोर सिंह उर्फ रामा सिंह ने आखिरकार पिछले दरवाजा से राजद में प्रवेश पा ही लिया, जिसके लिए लालू यादव ने हरी झंडी दे रखी थी। राजद की सदस्यता के साथ रामा सिंह की पत्नी वीणा सिंह को महनार विधानसभा सीट से टिकट दिया गया है। रामा सिंह ने वैशाली से 2014 में लोकसभा चुनाव लोजपा के टिकट पर लड़कर राजद के भूतपूर्व केेंद्रीय ग्रामीण मंत्री समाजवादी रघुवंश प्रसाद सिंह को हराया था। इसी रामा सिंह को राजद में लिए जाने की सूचना से नाराज दिल्ली एम्स में भर्ती पार्टी के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया और पार्टी छोड़ी। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद रघुवंश प्रसाद सिंह ने जयचंद वैद अपहरण कांड को आधार बनाकर पटना हाई कोर्ट में यह याचिका दायर की थी कि चुनाव आयोग को दिए गए शपथपत्र में रामकिशोर सिंह ने वैद अपहरण कांड से संबंधित जानकारी नहीं दी, इसलिए रामा सिंह की लोकसभा सदस्यता रद्द की जाए। राजद में रामा सिंह के आने की चर्चा पर विरोध हुआ तो उनकी राजद-प्रवेश की तैयारी दो बार (29 जून, 29 अगस्त) स्थगित हुई थी। तीन बार विधायक रह चुके रामा सिंह 2014 की मोदी लहर में रामविलास पासवान की लोजपा से वैशाली से लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए। 2001 में छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले से पेट्रोल पंप व्यवसायी जयचंद वैद्य का अपहरण हुआ, जो डेढ़ महीने बाद रिहा किए गए थे। अपहरणकर्ता जयचंद वैद्य को कार से ले गए थे। पुलिस की दाखिल चार्जशीट में दर्ज है कि जयचंद वैद अपहरण में जिस कार का इस्तेमाल हुआ, वह कार रामकिशोर सिंह के घर से बरामद हुई। इस अपहरण कांड में रामा सिंह ने छत्तीसगढ़ की अदालत में समर्पण किया था और जेल गए थे।

छोटे सरकार नाम से मशहूर हैं अनंत सिंह :

बिहार के बेऊर जेल में बंद छोटे सरकार के नाम से मशहूर बाहुबली निर्दलीय विधायक अनंत सिंह ने एमपी-एमएलए कोर्ट के विशेष न्यायाधीश विपुल सिन्हा की अनुमति के बाद मोकामा से बतौर राजद प्रत्याशी नामांकन किया है। दायर हलफनामा में उन्होंने 38 मुकदमों का उल्लेख किया है। अनंत सिंह के बाहुबल की कथा हरि अनंत हरिकथा अनंता की तरह है। वह पहले नीतीश कुमार के दल जदयू से विधायक थे। 2015 का विधानसभा चुनाव अनंत सिंह ने जेल में ही रहकर लड़ा था। 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान बाढ़ में यादव जाति के एक युवक की हत्या हुई तो आरोप लगा कि हत्या अनंत सिंह ने कराई है। तब लालू यादव ने अनंत सिंह के खिलाफ मोर्चा खोला तो चुनाव से पहले अनंत सिंह गिरफ्तार कर लिए गए। उसी अनंत सिंह को लालू-पुत्र तेजस्वी यादव ने टिकट दिया है। अनंत सिंह ने पिछले साल बिहार पुलिस द्वारा गिरफ्तार होने के भय से दिल्ली के मनचाहा साकेत कोर्ट में समर्पण किया था और साकेत कोर्ट से इजाजत लेकर चार दशकों में पहली बार बाढ़ (बिहार) लाकर पुलिस ने उनसे पूछताछ की थी। अनंत सिंह से अपनी जान का खतरा बताते हुए सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी अभिताभ दास ने सुरक्षा की गुहार पुलिस महानिदेशक से लगाई थी। अभिताभ दास ने 2009 में बिहार पुलिस मुख्यालय को गोपनीय रिपोर्ट भेजी थी कि इनके पास एक-47 और एके-56 का जखीरा है। यह रिपोर्ट 10 सालों तक धूल फांकती रही। अगस्त 2019 में लागू हुए नए कानून यूएपीए (आतंकवाद एवं गैरकानूनी गतिविधि निरोध अधिनियम) के तहत देश का पहला कांड अनंत सिंह के विरुद्ध दर्ज हुआ।

बाहुबली के विरुद्ध साधु छवि का उम्मीदवार :

नीतीश कुमार ने अनंत सिंह के खिलाफ साधु छवि वाले नेता राजीवलोचन नारायण सिंह उर्फ अशोक नारायण को चुनाव के मैदान में उतारा है। हालांकि बाहुबली अनंत सिंह को नीतीश कुमार ने 2005 में जदयू का टिकट दिया था और उन्होंने बहुचर्चित बाहुबली नेता सूरजभान सिंह को हराया था। अशोक नारायण के पिता वेंकटेशनारायण सिंह उर्फ बीनो बाबू का रिश्ता नीतीश कुमार से राजनीति की शुरुआत से ही है। बीनो बाबू ने नीतीश कुमार की चुनाव में सक्रिय होकर मदद की थी। बीनो बाबू का राजनीतिक रिश्ता अटलबिहारी वाजपेयी से भी था। जब प्रधानमंत्री के रूप में बाढ़ में एनटीपीसी का शिलान्यास करने वाजपेयी जी आए तो उन्होंने बीनो बाबू से अलग से मुलाकात की और उनके घर विश्राम भी किया। राजीवलोचन नारायण सिंह चार दशक से भाजपा किसान मोर्चा में राज्य स्तर पद पर कार्य कर चुके हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि यह साधु छवि विधानसभा चुनाव में ज्ञात बाहुबली छवि के विरुद्ध मत में कितना परिवर्तित हो पाता है?

देहरादून (दिल्ली कार्यालय) से प्रकाशित चाणक्य मंत्र में पटना (बिहार) से कृष्ण किसलय की रिपोर्ट

द्रोह-काल के पथिक
(कृष्ण किसलय)

बिहार की राजनीति में तीन नाम ऐसे भी हैं, जो अगड़ा-पिछड़ा संघर्ष के चरम काल के परिणति हैं और जिन्हें बाहुबली कहा जाता रहा है, मगर वह अपने को द्रोह-काल का पथिक मानते हैं। ये नाम हैं राजीवरंजन यादव उर्फ पप्पू यादव, आनंद मोहन और विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला। इनमें अपने आरंभिक राजनीतिक जीवन में लालू यादव का हमसाया रहे पप्पू यादव ने अपनी आत्मकथा लिखी है, जिसका शीर्षक है- द्रोहकाल का पथिक। लालू राज में अगड़ा-पिछड़ा संघर्ष चरम पर पहुंच गया था और सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले उस समय के मुख्यमंत्री लालू यादव द्वारा दिए गए भूराबाल साफ करो के संदेश ने सवर्णों को गोलबंद करने का काम किया था। भूराबाल से आशय था भूमिहार, ब्राह्म्ïाण, राजपूत और लाला यानी कायस्थ के सदियों से स्थापित वर्चस्व को राजनीतिक तौर पर कमजोर बनाना।।

पहले दूसरों के लिए, बाद में अपने लिए बूथ-लूट :

कांग्रेस के दबंग विधायक बाबा रघुनाथ पांडे के लिए उस समय मुजफ्फरपुर का इलाका सियासी जागीर थी, जिसे संभालने में छोटन शुक्ला जैसों बाहुबलियों की जरूरत होती थी। इसी समय सम्राट अशोक और छोटन शुक्ला जैसे युवा डानों ने तय किया था कि दूसरों के बजाय अपनी राजनीतिक हैसियत के लिए बूथ कैप्चर करेंगे। तब आनंद मोहन की बिहार पीपुल्स पार्टी लालू यादव के समक्ष चुनौती के रूप में सामने आई थी। बिहार का यह भी दुर्भाग्य रहा है कि जातीय गोलबंदी के उस दौर में अगड़ा समाज ने अगड़ी जातियों के बाहुबली नेताओं और अपराधियों को एक आस के तौर पर देखा। 1994 में वैशाली में लोकसभा के उपचुनाव में आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद कांग्रेस की किशोरी सिन्हा को हराकर विजयी हुई। तब छोटन शुक्ला ने आगे बढ़कर आनंद मोहन का स्वागत किया और अपने को आनंद मोहन से राजनीतिक तौर पर जोड़ लिया। 1995 के विधानसभा चुनाव के बाद बाबा रघुनाथ पांडे का दबदबा पिछड़ी जाति के विजेंदर चौधरी द्वारा हार जाने के बाद खत्म हो गया। 2015 में जन अधिकार पार्टी बनाने वाले पप्पू यादव पर हत्या, अपहरण सहित 31 मामले दर्ज हैं, जिनमें से 09 में पुलिस ने संबंधित कोर्ट में चार्जशीट दाखिल किया है। 14 जून 1998 को माकपा नेता पूर्णिया के विधायक अजीत सरकार की हत्या में जिला अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई और वह 2008 से 2013 तक पांच साल जेल में रहे। उन पर चुनाव लडऩे पर रोक थी। हाईकोर्ट ने उन्हें आरोप से बरी कर दिया, तब वह 2014 का लोकसभा चुनाव लालू यादव की पार्टी राजद के टिकट पर लड़े और वरिष्ठ नेता शरद यादव को हराकर विजयी हुए। हालांकि 1990 में पहली बार विधायक बनने और पांच बार सांसद बनने वाले पप्पू यादव 2019 में मधेपुरा लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हार गए। 2004 में सहरसा लोकसभा क्षेत्र से लोजपा के टिकट पर और 2009 में सुपौल लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर जीत हासिल करने वाली सिक्ख परिवार की रंजीता रंजन से पप्पू यादव ने सिक्ख परिवार की रंजीता रंजन से 1994 में प्रेम विवाह किया था।

बाहुबलियों ने की दलित जिलाधिकारी की हत्या :

दलित समाज से आने वाले जिलाधिकारी जी. कृष्णैया हत्याकांड में दो साल से ज्यादा की सजा काटने के कारण चुनाव लडऩे से अयोग्य बाहुबली मुन्ना शुक्ला की पत्नी अनु शुक्ला लालगंज सीट से और मुन्ना शुक्ला के दोस्त रहे बाहुबली आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद सुपौल से राजद के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं। लवली आनंद ने पिछले पखवारा तेजस्वी यादव से राजद की सदस्यता ग्रहण की। निजी सेना चलाने वाले और राजपूतों के नेता के रूप में अपने के स्थापित करने वाले आनंद मोहन वैसे सियासी किरदार रहे हैं, जिनकी निजी सेना की अदावत पप्पू यादव की निजी सेना से रही थी। आनंद मोहन पहली बार 1990 में जनता दल के टिकट पर विधायक बने थे। मुन्ना शुक्ला और आनंद मोहन दोनों बिहार में राजनीति के माफियाराज के स्वर्णकाल की उपज हैं। दोनों गोपालगंज के जिलाधिकारी जी. कृष्णैया की 05 नवंबर 1994 मेंंहुई हत्या के आरोपी रहे हैं। दो साल जेल में रहने के बाद हाई कोर्ट के फैसले में मुन्ना शुक्ला बरी हो गए, मगर आनंद मोहन आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं। आनंद मोहन देश में आजादी के बाद पहले ऐसा राजनेता हैं, जिन्हें पटना हाईकोर्ट ने 2007 में फांसी की सजा सुनाई। 2008 में फांसी की सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई। मुजफ्फरपुर में डीएम की हत्या एक दिन पहले 04 नवम्बर को अंडरवल्र्ड डान कौशलेंद्र शुक्ला उर्फ छोटन शुक्ला की हत्या एके-47 की गोलियों से हुई थी। छोटन शुक्ला की हत्या की प्रतिक्रिया में शवयात्रा निकली थी और उसी भीड़ में फंस गए जिलाधिकारी की हत्या कर दी गई। छंटा हुआ क्रिमिनल होने के बावजूद मुजफ्फरपुर की सवर्ण आबादी का छोटन शुक्ला से इमोशनल कनेक्शन था।

डान की मौत के प्रतिकार में मंत्री की हुई हत्या :

छोटन शुक्ला की हत्या में बाहुबली नेता बृजबिहारी प्रसाद का हाथ होने की बात सामने आई, जो 1995 के चुनाव के बाद लालू सरकार में मंत्री बने थे। छोटन शुक्ला के छोटे भाई शार्प शूटर अवधेश शुक्ला उर्फ भुटकुन शुक्ला ने भाई का बदला लेने की कसम खाई, मगर अंडरवल्र्ड की जानीदुश्मनी की जंग में भुटकुन की हत्या उसके बाडीगार्ड दीपक सिंह ने 1997 में एके-47 राइफल से कर दी। दो भाइयों की हत्या के बाद विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला ने बदला लेने की जिम्मेदारी अपने कंधे पर ली और सूरजभान सिंह, श्रीप्रकाश शुक्ल, राजन तिवारी आदि बाहुबलियों से हाथ मिलाया। पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान परिसर में 13 जून 1998 को एके-47 से मंत्री बृजबिहारी प्रसाद बाडीगार्ड सहित मारे गए। इस हत्याकांड का मुख्य आरोपी श्रीप्रकाश शुक्ला तीन महीने बाद यूपी एसटीएफ द्वारा गाजियाबाद में मारा गया था। बृजबिहारी प्रसाद हत्याकांड में सूरजभान सिंह, मुन्ना शुक्ला, राजन तिवारी को निचली अदालत ने दोषी करार दिया। बृजबिहारी हत्याकांड के आरोप में जेल गए मुन्ना शुक्ल ने 2004 में जेल से लोकसभा चुनाव लड़ा और 2005 मेंं लोजपा के टिकट पर विधानसभा का चुनाव जीता। फिर हुए जदयू से चुनाव जीत कर विधायक बने। बाद में चुनाव आयोग की वैधानिक प्रावधान के कारण लंबी अवधि तक जेल में मुन्ना शुक्ला चुनाव लडऩे से अयोग्य हो गए तो 2010 में पत्नी अनु शुक्ला को चुनाव के मैदान में उतारा और अनु शुक्ला विजयी हुईं। बृजबिहारी प्रसाद हत्याकांड के सभी आरोपियों को 2014 में हाईकोर्ट ने बरी कर दिया। अब सूरजभान सिंह कारोबार में व्यस्त हैं और उनके भाई नवादा से लोजपा के सांसद हैं। बृजबिहारी प्रसाद की पत्नी रमा देवी भाजपा की सांसद हैं।

देहरादून (दिल्ली कार्यालय) से प्रकाशित चाणक्य मंत्र में पटना (बिहार) से कृष्ण किसलय की रिपोर्ट

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