स्मृति दिवस (11 नवम्बर ) के मौके पर आधुनिक हिन्दी के निर्माता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी बारे में साहित्यकार द्वय वीणा भाटिया व मनोज कुमार झा का सोनमाटी के लिए विशेष आलेख
आधुनिक हिन्दी का जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को माना जाता है। आज जो हिन्दी हम लिखते-बोलते हैं, वह भारतेंदु की ही देन है। लेकिन हिन्दी खड़ी बोली को एक सांचे में ढालने का काम आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया। उन्होंने हिन्दी भाषा को एक मानक स्वरूप देने की कोशिश की। यह काम उन्होंने ‘सरस्वती’ के माध्यम से किया। आचार्य महावीर प्रसाद के सम्पादन में निकले वाली पत्रिका सरस्वती की हिन्दी साहित्य के विकास और हिन्दी नवजागरण में जो भूमिका रही है, वह ऐतिहासिक है। हिन्दी साहित्य, भाषा और पत्रकारिता पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की जो छाप रही है, वह अमिट है। भारतेन्दु ने पत्रकारिता के माध्यम से जिस नवजागरण की शुरुआत की थी, उसे आचार्य द्विवेदी ने आगे बढ़ाया। सिर्फ़ भाषा ही नहीं, साहित्य में उन्होंने नवीन आधुनिक चेतना का समावेश किया और साहित्य को जन से जोड़ा। भारतेन्दु की रचनाओं में अंग्रेजी शासन का विरोध, स्वतंत्रता के लिए उद्दाम आकांक्षा और जातीय भावबोध की झलक मिलती है। सामंती जकड़न में फंसे समाज में आधुनिक चेतना के प्रसार के लिए लोगों को संगठित करने का प्रयास करना उस ज़माने में एक नई ही बात थी। भारतेन्दु की इसी परम्परा के वाहक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। वे नवजागरण की जिस परम्परा से जुड़े थे, वह 1857 के गदर के बाद उभरी चेतना से विकसित हुई थी। आचार्य द्विवेदी जिस सामाजिक पृष्ठभूमि से जुड़े थे, वह खेती-किसानी वाली थी।
साम्राज्य विरोधी चेतना को आगे बढ़ाने वाले विद्वान
उल्लेखनीय है कि 1857 के गदर में जिन फौजियों ने हिस्सा लिया था, वे किसानों के बेटे थे। कई समकालीन इतिहासकारों का मानना है कि गदर में किसानों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका थी और इसने उनकी चेतना में बहुत बदलाव लाया। गदर के राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रभावों के बीच किसानों में सामंत-विरोधी चेतना का विकास हुआ है, जिसका प्रतिफलन आगे चल कर स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान होने वाले कई किसान आन्दोलनों में देखने को मिलता है। आचार्य द्विदेदी सामंत-विरोधी और साम्राज्य विरोधी चेतना को आगे बढ़ाने वाले विद्वान थे, जिनका लेखन और पत्रकारिता-कर्म उस समय की ऐतिहासिक चुनौतियों से दो-चार होता है और साहित्य व पत्रकारिता की परिवर्तनकारी भूमिका को चरितार्थ करता है। डॉ. रामविलास शर्मा ने आचार्य द्विवेदी को नवजागरण का अग्रदूत माना है। अपनी पुस्तक ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण’ में विस्तार से उन्होंने उनके अवदान पर लिखा है। हिन्दी के आधुनिक सामाजिक-साहित्यिक इतिहास को समझने के लिए यह एक अनिवार्य पुस्तक है।
आचार्य द्विवेदी का महत्त्व
बहुत से बुद्धिजीवी हिन्दी पट्टी को पिछड़ेपन से जोड़कर देखते रहे हैं, वहीं वे हिन्दी पट्टी से निकले विद्वानों-लेखकों-सम्पादकों को रूढ़िवादी भी मान बैठते हैं। कुछ मार्क्सवादी विद्वानों में भी यह प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है कि वे जातीय परम्परा से जुड़े लेखकों की उपेक्षा करते रहे हैं। जाहिर है, वे अंग्रेजी के प्रभाव और औपनिवेशिक मानसिक जकड़न से बाहर नहीं निकल पाए। ऐसे विद्वानों के लिए ज्ञान मूल रूप से अंग्रेजी में ही है, बाकी तो महज उसका अनुवाद है। हिन्दी में भारतेन्दु युग के बाद द्विवेदी युग की बात होती है। इसके बाद कोई ऐसा साहित्यकार और चिंतक नहीं हुआ, जिसे लेकर युग का नामकरण हुआ हो। यही बात आचार्य द्विवेदी के महत्त्व को समझने के लिए काफी है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की जड़ें उस ग्रामीण हिन्दी समाज में गहराई से जुड़ी थीं जो सामंती और साम्राज्यवादी शोषण की चक्की में पिस रहा था।
सरस्वती को बनाया हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिका
जाहिर है, साहित्यिक और वैचारिक धरातल पर उनका संघर्ष सामंतवाद-उपनिवेशवाद से हुआ। वे उस नवीन चेतना के वाहक बन कर उभरे जो सामंतवाद और उपनिवेशवाद से संघर्ष के परिणामस्वरूप पैदा हुआ था। संभवत: यही कारण था कि रेलवे की सुविधाजनक नौकरी छोड़ कर उन्होंने बहुत कम वेतन पर सरस्वती पत्रिका का सम्पादन करना स्वीकार किया और उसे हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिका बना दिया। रेलवे की नौकरी में जहां वे 200 रुपए प्रतिमाह पाते थे, सरस्वती में उनका वेतन मात्र 20 रुपए था। आचार्य द्विवेदी ने स्वाध्याय से साहित्य की जातीय परंपरा का गहन अध्ययन किया। उन्होंने संस्कृत के अलावा उर्दू, फारसी और अंग्रेजी का भी व्यापक अध्ययन किया। उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों की कृतियों का हिन्दी में अनुवाद भी किया।
ज्ञान की सभी विधाओं से ही हिन्दी समृद्ध
आचार्य द्विवेदी का मानना था कि हिन्दी तभी समृद्ध भाषा बन सकती है, जब उसमें ज्ञान की सभी विधाओं का समावेश हो, न कि सिर्फ़ साहित्य की विधाओं का। यही कारण है कि सरस्वती में उन्होंने साहित्य के अलावा अनेक विषयों पर लेखों का प्रकाशन किया। उन्होंने स्वयं भी साहित्य की विविध विधाओं में लिखने के अलावा अर्थशास्त्र, विज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र, पुरात्तव आदि विविध विषयों पर लेखन किया। साथ ही, सरस्वती के माध्यम से इन विषयों पर लिखने के लिए दूसरे लेखकों को भी प्रेरित किया। उन्होंने सम्पत्तिशास्त्र जैसी पुस्तक लिखी जिसके बारे में ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण’ में डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि राजनीति और भारत के संदर्भ में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की वैसी आलोचना उस समय तक अंग्रेजी में भी प्रकाशित नहीं हुई थी, जैसी सम्पत्तिशास्त्र में हुई है। उन्होंने यहां तक लिखा कि हिंदी में अब भी उसके टक्कर की दूसरी पुस्तक नहीं है। इसी से समझा जा सकता है कि आचार्य द्विवेदी किस कोटि के लेखक और चिंतक थे।
हर क्षेत्र को जानना साहित्यकार के लिए जरूरी
आज के साहित्यकारों की तरह वे शुद्ध साहित्य का राग अलापने वालों में नहीं थे, बल्कि उनका मानना था ज्ञान के हर क्षेत्र को जानना साहित्यकार के लिए जरूरी है। इसी कर्तव्य-बोध से प्रेरित होकर उन्होंने 1906 में हर्बर्ट स्पेंसर की पुस्तक ‘एजुकेशन’ का अनुवाद शिक्षा नाम से किया। 1907 में उन्होंने जॉन स्टुअर्ट मिल की पुस्तक ‘ऑन लिबर्टी’ का अनुवाद स्वाधीनता नाम से किया। संस्कृत और अंग्रेज़ी की कई प्रमुख कृतियों का अनुवाद भी उन्होंने किया। 1904 में नाट्यशास्त्र नाम की पुस्तक लिखी, 1907 में हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और संपत्तिशास्त्र। उन्होंने वेदों के साथ संस्कृत साहित्य का संपूर्णता में अवगाहन किया था। कालिदास के साहित्य पर भी उन्होंने विपुल लेखन किया। इसके अलावा काव्य और आलोचना के कई ग्रंथों की रचना की। उन्होंने संस्कृत के कुछ महाकाव्यों का औपन्यासिक रूपान्तरण भी किया, जिनमें कालिदास कृत रघुवंशम्, कुमारसंभव, मेघदूतम्, किरातार्जुनीय शामिल हैं।
सिखाया नई विवेक दृष्टि से परखना
डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण’ में लिखा है, ‘‘द्विवेदी जी ने समाजशास्त्र और इतिहास के बारे में जो कुछ लिखा है, उससे समाज विज्ञान और इतिहास लेखन के विज्ञान की नवीन रूप रेखाएं निश्चित होती हैं। इसी दृष्टिकोण से उन्होंने भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का नवीन मूल्यांकन किया। एक ओर उन्होंने इस देश के प्राचीन दर्शन, विज्ञान, साहित्य तथा संस्कृति के अन्य अंगों पर हमें गर्व करना सिखाया, एशिया के सांस्कृतिक मानचित्र में भारत के गौरवपूर्ण स्थान पर ध्यान केंद्रित किया, दूसरी ओर उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक रूढ़ियों का तीव्र खंडन किया, और उस विवेक-परंपरा का उल्लेख सहानुभूतिपूर्वक किया जिसका संबंध चार्वाक और वृहस्पति से जोड़ा जाता है। अध्यात्मवादी मान्यताओं, धर्मशास्त्रों की स्थापनाओं को उन्होंने नई विवेक दृष्टि से परखना सिखाया।’’
कुशल संपादक
सरस्वती पत्रिका के बारे में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक ने लिखा था, ‘‘जनता को आवश्यकता थी नवीन ज्ञान की, स्वाधीनता की पहचान की और आधुनिक ज्ञान-स्नान की। सरस्वती द्वारा वे उस पुनीत कार्य को भले प्रकार कर सकते थे। वे थे कुशल संपादक और कर्तव्य-परायण। उन्हें पता था कि मासिक पत्रिका ज्ञान-प्रचार के लिए अत्यंत उपयोगी अध्यापिका बन सकती है और वे उसके द्वारा दूर ग्रामों में बैठे हुए देहातियों तक ज्ञान का दीपक जला सकते हैं। उन्होंने सरस्वती को ऊंचे दर्ज की ज्ञान-पत्रिका बनाने का दृढ़ संकल्प किया और वे थे धुन के पूरे।’’ इसी संकल्प और साधना के माध्यम से द्विवेदी जी ने सरस्वती को हिंदी नवजागरण की प्रतिनिधि पत्रिका बनाया। द्विवेदी जी ने सरस्वती को नए ज्ञान के साथ-साथ नए सृजन की पत्रिका के रूप में भी विकसित किया। द्विवेदी युग का शायद ही कोई कवि या कहानीकार हो, जिसकी रचनाएं सरस्वती में न छपी हों।
राष्ट्रभाषा के मूर्तिमान स्वरूप
डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है, ‘‘उस समय का कोई ऐसा लेखक नहीं जो बाद में प्रसिद्ध हुआ हो और पहले उसकी रचनाएं सरस्वती में न छपी हों। प्रसिद्ध हो, चाहे अज्ञात नाम, द्विवेदी जी अपना ध्यान इस बात पर केंद्रित करते थे कि वह लिखता क्या है। इसलिए सरस्वती में रचना छपने का मतलब यह था कि वह एक निश्चित स्तर की है। बहुत से लोग अपने या दूसरों के बारे में प्रशंसात्मक लेख आदि छपवाना चाहते थे, उनका विरोध करने में द्विवेदी जी ने दृढ़ता का परिचय दिया। साथ ही सरस्वती का उपयोग उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत ख्याति के लिए नहीं किया।’’ प्रेमचंद ने उन्हें पथ-प्रदर्शक माना और निराला ने उन्हें आधुनिक हिन्दी का निर्माता कहा। महावीर प्रसाद द्विवेदी को आचार्य की पदवी किसी विश्वविद्यालय ने नहीं, जनता ने दी थी। निराला ने महावीर प्रसाद द्विवेदी के बारे में लिखा है– वे राष्ट्रभाषा के मूर्तिमान स्वरूप हैं। उन्हें लोग आचार्य कहते हैं, वे सचमुच आचार्य हैं। आधुनिक हिन्दी की उन्नति और विकास का अधिकांश श्रेय उन्हीं को है।
इतने सुन्दर ढंग से लेख के प्रकाशन के लिए आपका बहुत आभारी हूँ। प्रणाम।