‘आओ आज हम गले लग जाएं’ सरला माहेश्वरी का चौथा कविता संग्रह है। इसके पहले ‘आसमान के घर की खुली खिड़कियां’, ‘तुम्हें सोने नहीं देगी’ और ‘लिखने दो’ संग्रह काफी चर्चित रहे हैं। इस संग्रह की खासियत यह है कि इसमें सिर्फ स्त्री विषयक कविताओं का संकलन है। हिन्दी में स्त्री विषयक कविताओं को लेकर अजीब स्थिति दिखाई पड़ती है। ऐसे कवियों और कवयित्रियों की कोई कमी नहीं जो स्त्री पर लिखने का मतलब यौन पर लिखना समझते हैं। उनकी कविताओं में श्रमशील स्त्रियों के जीवन का चित्रण नहीं होता। स्त्रियों के जीवन के दुख, उनके संघर्ष, उनके जीवन में छाई रिक्तता और सामाजिक परिवेश में उनकी जीवंत भूमिका कभी सामने नहीं आ पाती, बल्कि वे एक सेक्स ऑब्जेक्ट के रूप में ही सामने आती हैं। विश्वविद्यालयों में जमे हुए मठाधीश आलोचकों ने स्त्री मुक्ति के नाम पर लिखी जा रही ऐसी कविताओं को मान्यता दे रखी है। इस तरह का लेखन करने वाली कवयित्रियां महानगरों में रहती हैं और प्राय: उच्च वर्ग से आती हैं। गत दशकों में प्रगतिशील और जनवादी कविता पर एक तरह के रूपवाद, कलावाद और नये कलेवर में छायावादी भाव बोध का जो प्रभाव बना रहा है, उसे सरला माहेश्वरी की कविताएँ तोड़ती नजर आती हैं। हिन्दी की प्रगतिशील कविता में चंद कवियों को छोड़ दें तो ज्यादातर कवि सुविधाभोगी रहे और विश्वविद्यालयीय आलोचकों को आशीर्वाद से आगे बढऩे के साथ पुरस्कृत भी होते रहे। जबकि सच्चाई यह है कि उनकी कविताएँ पाठकों से दूर रहीं। ऐसी कविताएँ कवियों से कवियों के बीच और तथाकथित आलोचकों के बीच ही घूमती रहीं।वैसे सच्चे जनधर्मी कवियों की भी कमी नहीं रही, जिन्होंने कविता को निम्न मध्यवर्गीय जकडऩ से निकालने का काम किया है। जनता से सीधे जुड़े होने के कारण उनके पास स्पष्ट दृष्टि है और उनकी भाषा भी पूरी तरह जनाभिमुख है। सरला जी की कविताएँ ऐसी ही हैं। उनकी कविताएँ जन से संवाद स्थापित करने वाली हैं। सत्ताधारियों से सीधे सवाल पूछने वाली हैं। उन्हें खुली चुनौती देने वाली हैं। उनमें जनता को सजग करने के साथ ही वर्ग चेतना से लैस करने की ताकत भी है। सरला माहेश्वरी ऐसी ही कवयित्री हैं। इनकी कविताएँ हिन्दी की परम्परागत प्रगतिशील जनवादी कविता से अन्तर्वस्तु और शिल्प के स्तर पर काफी अलग किस्म की हैं। इनकी कविताएँ स्त्री के संघर्षशील जीवन की कविताएँ हैं। सरला माहेश्वरी की कविताओं की स्त्रियाँ अलग-अलग वर्ग और समुदाय की हैं। उनमें इरोम शर्मिला है तो सेवैया की औरतें भी हैं, लेसली उडविन है तो बिलखती बुढिय़ा माँ भी है। बलात्कार पीडि़ता औरते हैं, जो जजों को चुनौती देती हैं। वहीं ‘अनारकली ऑफ आरा’ भी है, जो किसी न किसी रूप में प्रतिरोध को स्वर देती हंै। सरला जी के इस संग्रह कविता मेें एक अकेली औरत का होना क्या मायने रखता है, यह बताया गया है। आदमी और हैवान का फर्क भी बताया गया है। जहाँ स्त्री अकेली जलती हुई मशाल के रूप में है तो वह अपने बचपन में भी है। इसमें औरतों की बर्बादी की कहानी है तो यह दर्द भी है कि कोई हमें सताए क्यों? स्त्री जीवन के इतने विविध रंग हैं कि यहाँ सबका उल्लेख कर पाना संभव नहीं। यह तो कहा ही जा सकता है कि यह संग्रह हिन्दी कविता की एक उपलब्धि है। इससे कवि-कवयित्रियों को यह दिशा भी मिलती है कि स्त्री विषयक कविता का सही जनवादी रूप क्या है? सरला माहेश्वरी ने जिन महिलाओं का जो रूप सामने रखा है, उनमें कुछ इस प्रकार है- चिता की तरह सज गयी औरतेंलकड़ी की तरह जल गयी औरतेंमंदिर की मूर्ति बन गयी औरतें
जिंदगी की चौसर परबाजी की तरह लगती औरतेंबाजार सी सजतीऔर बिकती औरतें
मान-अभिमान, अविश्वसों कीअग्नि परीक्षाओं सेगुजरती औरतेंशापों-अभिशापों का जहर पीती पत्थर बन गयीं औरतें
ज्वालामुखी सीधधक रही औरतेंमुक्ति का औजार बन रही औरतेंअवरोधों को तोड़ रही औरतेंगर्म लावा बन बह रही औरतेंये हैं सरला माहेश्वरी की कविताओं में आई औरतों का असली चेहरा और चरित्र। सरला जी की कविताओं में कुंठित और निराश औरतें नहीं हैं, यह खास बात है। संघर्षशीलता कुंठा को खत्म करती है। इस संग्रह में शामिल कविताओं में जो औरतें आई हैं, उनका संघर्ष कई स्तरों पर चलता है। भले ही उनका जीवन दुख और अंधकार से भरा हुआ है, पर संघर्षों से उन्हें रोशनी मिलती है और वे आगे कदम बढ़ाने को तैयार दिखती हैं। वे व्यवस्था को चुनौती देती हैं। यद्यपि उनकी ताकत कम है, पर हर तरह से विपरीत परिस्थितियों में भी वे जीत के प्रति आशान्वित रहती हैं। यह आशा कैसी है, हुलास कैसा है, यह ‘आओ मनाए जश्न जिंदगी की जीत का’ कविता में देखा जा सकता है। ‘आओ आज हम गले लग जाएँ’ इस संग्रह की प्रतिनिधि कविता है और वह उस संघर्ष की कविता है, जो हर उत्पीडि़त स्त्री का संघर्ष है।सरला जी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता रही हैं। कविता को वह एक बेचैन आत्मा की शरण स्थली मानती हैं। वे लिखती हैं- ‘स्वतंत्र स्त्री के छोटे से छोटे रूप के साथ अपनी संवेदना के तारों को जोडऩे में कविता की यह विधा मेरे लिए जितनी सहयोगी और आश्वस्तिकारक बनी है, उसका बयान नहीं कर सकती। कहा जा सकता है कि सरला जी की ये कविताएँ एक नया सौन्दर्यशास्त्र रच रही हैं और यह भी तय कर रही हैं कि कविता का भविष्य श्रमशील-संघर्षशील स्त्रियों के हाथों में ही सुरक्षित रह सकेगा।इस संग्रह के बारे में सुशील कुमार ने सच ही लिखा है- ‘जिन पाठकों ने इनकी कविताओं को ठीक से पढ़ा है, उनको मालूम होगा कि सरला माहेश्वरी की कविताएँ पाठकों से सीधे संवाद करती हैं। कला की सीमाओं के पार भी जाकर संवाद करती हैं और मन के अंदर एक उत्प्रेरणा को जन्म देती हैं। यह एक आर्टलेस आर्ट की बानगी है। उनकी कहन के शिल्प और उनके अंदाजेबयाँ ने उनके कवि मन को स्त्री विमर्श की उन कवयित्रियों से अलग किया है, जो स्त्रीवाद का एक विशेष घेरा रचती हैं और अपने सृजन को उसी की परिधि में कैद कर लेती हैं’। सरला जी की कविताओं के बारे में वीणा भाटिया ने लिखा है- ‘इनकी कविताओं की यह खासियत है कि साहित्य का आधिकारिक ज्ञान नहीं रखने वाला पाठक भी जब उन्हें पढऩा शुरू करता है तो पढ़ता चला जाता है। विषय और भाव से उसका तादात्म्य स्वत: स्थापित हो जाता है। उसे लगता है कि यह तो उसकी ही बात कही जा रही है। कविताएँ पढ़ते हुए समाज-व्यवस्था और राजनीति का छल-छद्म उसके सामने खुलता चला जाता है। सरला माहेश्वरी के इस संग्रह में शामिल कविताओं का कथ्य इतना ठोस है, इतना वास्तविक और जीवंत है कि उन्हें शिल्प के नाम पर रंग-रोगन, पच्चीकारी की जरूरत नहीं। कविताएं शब्द-दर-शब्द अपने संपूर्ण अर्थों के साथ खुलती जाती हंै और पाठक के साथ उनका सहज संबंध हो जाता है’।
– मनोज कुमार झा (पूर्व संपादक, कलमकार, डेहरी-आन-सोन)
समीक्षित पुस्तक : आओ आज हम गले लग जाएँ कवयित्री :सरला माहेश्वरीप्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर (राजस्थान) कीमत : 250 रुपये