30 मई 2018. हिन्दी पत्रकारिता ने 192 साल की यात्रा पूरी कर अपने पांव 193 साल के पायदान पर रख दिया है। इस मौके पर साप्ताहिक सोनमाटी (प्रिंट संस्करण, स्थापना 1979) ने अपने लघु कलेवर में आंचलिक पत्रकारिता (सोन अंचल) पर केेंद्रित संयोजन विशेष (समय लिखेगा इतिहास) का प्रकाशन किया है। इसके डिजिटल संस्करण (सोनमाटीडाटकाम, स्थापना 2012) के पाठकों के लिए भी प्रस्तुत है।
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क्रम से पढ़ें— 1. संपादकीय : इस घाटा उद्योग का प्रसार तिलिस्म ! ( पेज-4) 2. रोहतास जिले में 20वींसदी में समाचारपत्रों का सफर और हिन्दी पत्रिकाएं (पेज-3 स्व. अवधेशकुमार श्रीवास्तव) 3. हिन्दी में विज्ञान पत्रकारिता के 200 साल (पेज-4 कृष्ण किसलय) 4. जब प्रभाष जोशी ने शौचालय किया साफ, और वह संत पत्रकार (पेज-5 वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर) 5. तब ईमानदारी के आगे निजी रिश्ते होते थे हाशिए पर (पेज-5 वरिष्ठ पत्रकार एसएन विनोद) 6. जतन से ओढ़ी और जस की तस धर दिन्हींचदरिया (पेज-5 वरिष्ठ पत्रकार गुंजन सिन्हा) 7. आरंभ से आजादी तक हिन्दी की प्रमुक पत्र-पत्रिकाएं, स्वतंत्र पत्रकारिता के जनक राजा राममोहन राय, पत्रकारिता के मुहावरा पुरुष राजेन्द्र माथुर (पेज-6 उपेन्द्र कश्यप, मिथिलेश दीपक, निशांत राज) 8. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वस्तर पर अंकुश (पेज-7 कुमार बिन्दु) 9. स्वतंत्र मीडिया के लिए आगे आए समाज (पेज-8 अवधेशकुमार सिंह) 10. आंचलिक पत्रकारिता की एक चेहरा यह भी : …तो अब काली कमाई के लिए चाहिए यह मुखौटा! (पेज-1 सोनमाटी टीम) 11. रोहतास जिला और सोन-घाटी का पहला न्यूजपोर्टल सोनमाटीडाटकाम (पेज-3 निशांत राज)
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उन्होंने लिखा था :
हम सब उम्मीद करें कि जो बेहतर दुनिया आनी है, वह 20वींसदी के सिमटने के पहले ही हमारे सामने हो, ताकि 21वींसदी पर कोई कर्ज शेष न रहे। -राजेन्द्र माथुर, प्रधान संपादक, नवभारत टाइम्स
(नई दिल्ली से 1 जनवरी 1990 को भेजा गया सोनमाटी में प्रकाशित पत्र)
संपादकीय : इस घाटा उद्योग का प्रसार तिलिस्म !
देश के हर क्षेत्र, हर प्रदेश में पांच-दस अखबार ही क्यों दिखते हैं? जबकि एक ही केन्द्रीय मंत्रालय (सूचना-प्रसारण) के अधीन निर्धारित कार्यालय से हजारों अखबार रजिस्टर्ड हैं और प्रकाशित हो रहे हैं। दरअसल आज यह पूंजी, सत्ता और भ्रष्टाचार के अघोषित गठबंधन के तिलस्म का ही फलित है। राज-व्यवस्था ने छोटे अखबारों को, अभिव्यक्ति की स्वत: स्र्फूत स्थानीय आवाज को प्रसार के कठोर कायदे के तानाशाही डंडे से दबा रखा है। जबकि बड़े अखबारों को दिया जाने वाला सरकारी विज्ञापन जनता से प्राप्त राजस्व का ही हिस्सा है। दूसरी तरफ, सामाजिक परिदृश्य यह हैकि पाठक भारी-भरकम अखबार के बावजूद औसत 10 मिनट से ज्यादासमय नहींदेता अर्थात अखबार पढऩे की रुचि का अभावहै। जरा, पाठकों से पूछिए कि उनमें कितने संपादकीय पृष्ठ पढ़ते हैं,जो तकनीकी तौर पर अखबार का सर्वाधिक प्रसारित और बतौर वैचारिक प्रतिभा सर्वश्रेष्ठ पृष्ठ होता है। जबकि पाठकों को बांधे रखने के उपक्रम में ही अखबारों का कलेवर बहुरंगी भारी-भरकम बनाया गया है। कलेवर के भारी-भरकम होने से उत्पादन लागत प्रति कापी 25 से 50 रुपये है, भले ही वह पाठकों तक दो-चार रुपये में पहुंचता हो।
लागत व बिक्री मूल्य में भारी अंतर होने से जितनी प्रतियां बिकेंगी, उतना अधिक घाटा होगा। इस हिसाब से पत्र-पत्रिका प्रकाशन मूल रूप से घाटा उद्योग है, जिसकी पूर्ति विज्ञापनों से होती है। पाठक को झोंपड़ी नहीं, महल का दिखने वाला ऐश्वर्य पसंद है चाहे महल उसका नहींं हो। आज अखबारों की पूंजी अरबों में है। जाहिर है, पूंजी के खेल में मुनाफा का स्थान प्रथम और सामाजिक सरोकार के तथ्य-सत्य का दोयम होगा। तय है कि पूंजी प्रधान समाज में यशोगान ही होगा और जरूरी सूचना, सत्यान्वेषी समाचार, खोज-खबर के सवाल गौण होंगे। हालांकि पाठक 10-20 रुपये में कम पन्ने का अखबार भी खरीद सकता है, क्योंकि वह हर रोज इससे अधिक पान-सिगरेट और जीवन की गैरजरूरी चीजों पर खर्च करता है। इसीलिए हिंदी के शीर्ष संपादक राजेन्द्र माथुर ने कहा था कि एक मुफ्तखोर समाज में अंतत: यही होगा। स्व. माथुर 20वींसदी के अंतिम दौर की पत्रकारिता के प्रतिमान थेे।
– कृष्ण किसलय
…तो अब काली कमाई के लिए चाहिए यह मुखौटा !
सासाराम/औरंगाबाद (बिहार)-सोनमाटी समाचार। मनीषी संपादक राजेन्द्र माथुर ने 20वींसदी के उत्तराद्र्ध में लिखा था- ‘हर पार्टी के पास गिरहकटों, गुंडों, पेशेवर कातिलों की फौज होती है। इस फौज के सदस्य फुलटाइम अपराधी और पार्टटाइम नेता हैं। राजनीति उनका शौक, चस्का और रक्षा कवच भी है। कानून के पंजे में वे फंसते हैं तो पार्टी की जिम्मेदारी हो जाती है कि उन्हें बचाए। …भारत ऐसा देश है, जहां पाताल चरित्रों की सहायता से क्रंति की चेष्टा की जा रही है…एक चोर समाज को बदलने के लिए पार्टियां आखिर चोरों की सहायता क्यों न लेंंÓ?
और, आज 21वींसदी में परिवर्तन, प्रतिभा, सामाजिक सम्मान का उपक्रम पत्रकारिता का चेहरा समाज में अवैध दौलत की प्रतिष्ठा के कारण बदल चुका है। 20वींसदी में प्रधानमंत्री नेहरू भी अपने ही अखबार (नेशनल हेराल्ड) के संपादक से मिलने के लिए इंतजार करते थे। मालिक ऐसे आजादख्याल संपादक को दशकों तक बर्दाश्त भी करते थे। आज तो सरकार, मंत्री, अधिकारी जो काम करते हैं, वही समाचार है। जबकि 20वींसदी में माना जाता था कि काम तो सरकार को करना ही है, सरकार जो नहींकर या कर पा रही है,उसे बताना पत्रकारिता है। आज पत्रकारिता में राज-समाज, शासन-प्रशासन की निगहबानी कम हो गई है और उसके सूचनादाता, प्रवक्ता होने का चलन बढ़ गया है। पत्रकारिता के आदर्श महज पूजा की चीज बन गए हैं और कार्य-व्यवहार में दंगे के मृतकों की धार्मिक-जातीय पहचान बताई जा रही है। तोगडिय़ा, ओवैसी, आजम, प्राची जैसों के भड़काऊ बयान चैनलों पर चलाए जाते हैं।
आज पत्रकारिता के आईने में प्रतिबिंबित होने वाले समाज के असली चेहरे की पड़ताल पाठक-दर्शक के लिए जटिल हो गई है कि कौन साधु है और कौन दस्यु? पत्रकारिता माफियागिरी की राह पर है और आंचलिक पत्रकारिता में भी यह दुष्प्रवृत्ति तेज रफ्तार है। जो मेधा, दक्षता, उद्यम-वृद्धि के लिए श्रम नहीं करना चाहते, उन्होंने पत्रकारिता को कमाई का नया जरिया बना लिया है, जिसमें अखबारों के पेडन्यूज ट्रेंड यानी बिना विपत्र, बगैर हिसाब-किताब कमाई के कारण इजाफा हुआ है। पेडन्यूज के पीछे राजनीति व भ्रष्ट तंत्र है। जब अखबार का संपादक-प्रबंधक संवाददाता का इस्तेमाल कमाई के उपकरण के रूप में कर रहा हो, तब संवाददाता खुद के लिए कमाई क्यों न करे?
हालांकि दलाली-वसूली की प्रवृत्ति 20वीं सदी में भी थी, मगर अनुपात बहुत कम था, आज बेहद ज्यादा है। क्या ऐसा इसलिए है कि समाज को ऐसी ही राजनीति, सत्ता, पत्रकारिता पसंद है? आंचलिक स्तर पर अपराधियों का संगठित माफिया स्वरूप अनेक तरह के कारोबार पर कब्जा जमा चुका है। जरा सोचिए, वैसे ही छद्म पत्रकारिता या छद्म पत्रकारों का समूह भी संगठित हो जाए तो भविष्य में राज-समाज का कैसा जंगल रूप होगा? रोहतास और औरंगाबाद जिले के डेहरी-आन-सोन, सासाराम, औरंगाबाद आदि में खूंखार अपराधियों के जनप्रतिनिधि बनने, करोड़ों कमाने और शेष जीवन में सम्मान की भूख के लिए बेकरार होने के कई उदाहरण हैं। पत्रकार के भेष में गोली-बंदूक बेचने, सेक्स रैकेट चलाने, सत्ता-प्रशासन की दलाली करने के कई प्रकरण पुलिस में दर्ज भी हैं। गोली-बंदूक बेचने वाले गिरोह के एक सदस्य के गायब या हत्या होने के बाद गिरोह से जुड़े पत्रकार ने जेल से छूटने के बाद डेहरी-आन-सोन छोड़ उत्तर प्रदेश में शरण ले ली। गायब सदस्य भी पत्रकार के रूप में ही आया व देखते-देखते ट्रक मालिक बना था।
अभी हाल में नबीनगर (औरंगाबाद) में बिजली परियोजना के जमीन अधिग्रहण में सीबीआई एसपी राजीव रंजन के नेतृत्व में औरंगाबाद के पूर्व डीएम कंवल तनुज के आवास पर छापेमारी और पूछताछ में एक पत्रकार का नाम आया है, जिसके माध्यम से कैश ट्रांसफर पटना के बड़े ज्वेलर्स के खाते में हुआ। इस मामले में कई चर्चित चेहरे बेनकाब हो सकते हैं, यदि सीबीआई जांच का उद्देश्य राजनीतिक लाभ के लिए जांच को लंबा खींचना नहीं हो, क्योंकि माना यह भी जा रहा है कि एक सांसद और एक विधायक का प्रशासन व उद्योगों पर वर्चस्व की होड़ में मामला सीबीआई जांच तक पहुंचा। हालांकि इनकार नहीं किया जा सकता कि गड़बड़ी हुई है। विस्तृत जांच के बाद ही सामने आएगा कि गड़बड़ी कैसी और कितनी है? इससे यह पता तो चलता ही है कि राजनेताओं का मोहरा बनने का अनुपात नई पीढ़ी के आईएएस-आईपीएस में बढ़ा है, जबकि पहले नए आईएएस-आईपीएस में भ्रष्ट कम होते थे। आज आम तौर पर अधिसंख्य सीनियर सरकारी अधिकारियों की रूचि नेताओं की तरह जूनियरों को निर्देश देने, उद्घाटन-भाषण में ज्यादा और काम के वास्तविक निष्पादन में कम है।
हाल का एक मामला (वर्ष 2017) सासाराम थाना (मुफस्सिल) का है। पुलिस अभिलेख में आईपीसी की विभिन्न धाराओं और खनन अधिनियम के तहत एक अभियुक्त को गिरफ्तार किया गया और उसके दोस्त के रूप में दो व्यक्तियों की पहचान की गई, जिनमें एक संवाददाता (अखबार के नाम सहित) है। गिरफ्तार हुए अभियुक्त ने पुलिस को बताया कि पुलिस प्रशासन को मैनेज करने के लिए एक लाख रुपये और 20 हजार रुपये उस संवाददाता को प्रति माह देता था। पुलिस मुख्यालय से अनुसंधान कर्ता को अभियुक्त व संवाददाता के संबंध की छानबीन करने और संबंधित अभियुक्तों की गिरफ्तारी का आदेश दिया गया। जानकारी के अनुसार, 10 महीनों बाद संवाददाता पर कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की गई और उस संवाददाता ने पटना हाईकोर्ट से जमानत ली। अब न्यायालय तय करेगा कि संवाददाता पर लगाया गया आरोप सही है, गलत है या कोई साजिश है? इस आपराधिक कांड के मद्देनजर संवाददाता के सामाजिक व्यवहार की छानबीन जरूरी हो जाती है। उस संवाददाता से जुड़े दो मामले चर्चा में रहे हैं। एक मामला विदेश से अनाथ लड़की के लिए आने वाले पैसे के लिए बैंक खाता संचालन में उसकी भूमिका और लड़की के अपने पूर्व स्थान पर नहीं होने से संबंधित है। क्या पैसा अब भी विदेश से आ रहा है? दूसरा यह कि, रेल पुलिस थाने की पहल से अनजान युवती से संवाददाता ने शादी की थी। तब शादी करने की परिस्थिति क्या थी? वह युवती कहां है? क्या तलाक हुआ? संवाददाता से जुड़े इन सवालों पर पुलिस जांच की अपेक्षा है, ताकि सच-झूठ मिश्रित अफवाह के बजाय नीर-क्षीर विवेक वाली तथ्यात्मक जानकारी सामने आ सके।
सासाराम मुफस्सिल थाने में दर्ज कांड से संबंधित संवाददाता और इस जैसे कई के बारे में यह कहा जा सकता कि दलाली-उगाही की पूर्व नियोजित तैयारी के साथ पत्रकारिता में प्रवेश किया? क्योंकि, इस बात के भी उदाहरण हैं (जिनका उल्लेख फिलहाल इस रिपोर्ट का विषय नहीं है) कि वे खबर लिखने-भेजने के लिए कुछ चाहते हैं। रोहतास, औरंगाबाद जिलों में पत्रकारिता की आड़ में सेक्स रैकेट से जुड़े होने, नकली अधिकारी बन ट्रक चालकों से पैसे उगाहने के भी मामले पिछले वर्षो में पुलिस में दर्ज हुए हैं। पिछली सदी में गोली-बंदूक बेचने वाला व्यवहार में नम्र, सीनियर पत्रकारों का सम्मान करने वाला था और गलती करने का अहसास होने के कारण चोरी-छिपे काम करता था। जाहिर है, बीती सदी और मौजूदा समय में समाज-व्यक्ति के व्यवहार में अंतर आ चुका है और बतौर अवैध कमाई के नए जरिये के रूप में पत्रकारिता के मुखौटे का इस्तेमाल दबे-छुपे के बजाय धड़ल्ले से किया जाने लगा है।
मीडिया में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है, पर आज छोटे-बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। हालांकि आज भी पत्रकारों की बड़ी जमात ईमानदारी से काम कर रही है। आंचलिक पत्रकारिता की आड़ में दलाली-वसूली व अन्य अवैध कार्य के लिए स्पेस बनाने की वजह आंचलिक पत्रकारों के लिए अति अल्प पारिश्रमिक है। पहले आंचलिक पत्रकारिता में वही थे, जिनके पास आय का साधन था और पत्रकारिता सामाजिक सम्मान का जरिया भर था। अखबार शिक्षक, वकील को मुख्य तौर पर संवाददाता रखते थे। अब अखबार को मतलब नहीं है कि संवाददाता के पास आय का साधन क्या है? ग्रामीण अंचलों में विस्तार के लिए बढ़ाए गए अखबार के पन्नों को भरने की जरूरत के कारण भी निज संवाददाता अतिरिक्त बेगार करते हैं। जाहिर है, सूचना जुटाने की बेगारी करने, नेताओं-अफसरों से अखबार के लिए बिना हिसाब-किताब विज्ञापन लेने वाला क्या अपनी भी दुकान नहींचलाएगा? पेड न्यूज प्रवृत्ति के विरुद्ध आसन्न संकट से आगाह कर प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी ने माहौल बनाना शुरू किया तो मीडिया खेमों में बंट गई, एक खेमा मालिकों के साथ हो गया था।
आज तो साफ दिख रहा है कि पत्रकारिता खतरे में है। भले ही सुलभ सूचना के आधार पर रोहतास-औरंगाबाद में आंचलिक पत्रकारिता का यह नया मुखौटा वाला चेहरा भी साफ दिखने लगा हो, मगर कमोबेश यह स्थिति हर जगह है, चाहे बिहार हो या अन्य प्रदेश।
-सोनमाटी टीम
रोहतास जिले में 20वींसदी में समाचारपत्रों का सफर और हिन्दी पत्रिकाएं
सोनमाटी के सौजन्य संपादक स्वर्गीय अवधेश कुमार श्रीवास्तव (मृत्यु 17 जनवरी 2007) का यह सूचनात्मक लेख सोनमाटी सम्मान सह पत्रकारिता दिवस समारोह के अवसर पर 20वीं सदी के अंतिम दशक में प्रकाशित हुआ था। लेख का पुनप्र्रकाशन उनकी स्मृति को समर्पित है। -समूह संपादक
वर्ष 1955 में रोहतास जिला (बिहार) में हिन्दी में प्रथम समाचारपत्र ‘ललकारÓ का प्रकाशन डेहरी-आन-सोन से हुआ था, जिसके संपादक-प्रकाशक वाराणसी (उत्तर प्रदेश) निवासी मुन्नू प्रसाद पांडेय थे। दो पृष्ठ (एक पन्ना) का टेबलाइट साइज का यह अखबार कुछ अंकों के बाद बंद हो गया। 1956 में मुन्नू प्रसाद पांडेय के ही संपादन-प्रकाशन में डेहरी-आन-सोन से साप्ताहिक ‘तूफानÓ की शुरुआत हुई। कई वर्ष बाद मुन्नू प्रसाद पांडेय के वाराणसी चले जाने के बाद गिरिजानंदन कुमार ‘तूफानÓ के प्रकाशक-संपादक-मुद्रक हो गए। इनके बाद गया प्रसाद इसके स्वामी, संपादक बने।
वर्ष 1961-62 में गौरीशंकर श्रीप्रकाश और गोपाल मिश्र केशरी के संपादन में औद्योगिक शहर डालमियानगर से साप्ताहिक ‘देवदूतÓ के कुछ ही अंक निकल सके थे। वर्ष 1977 में अरुण श्रीपुंज के संपादन-प्रकाशन में डेहरी-आन-सोन से साप्ताहिक ‘युवाशिक्षाÓ के चार अंक और डेहरी-आन-सोन से ही वर्ष 1978 में सरदार अमरजीतसिंह के संपादन-प्रकशन में ‘अमर बिहारÓ के दो अंक प्रकाशित हुए थे।
वर्ष 1967 में 24 मई को सासाराम से साहित्यकार-पत्रकार प्रो. अमरेन्द्र कुमार के प्रधान संपादन और ब्रजकिशोर प्रसाद किशोर व सूर्यकांत शर्मा के संपादन में टेबलाइट साइज में साप्ताहिक ‘जनविक्रांतÓ का प्रकाशन शुरू हुआ। जनविक्रांत ने आंचलिक समाचारों को प्रमुखता से छापने की नीति अपनाई। इसके होली, दशहरा, स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर प्रकाशित कई अंक चर्चित हुए थे। वर्ष 1974 में अमरेन्द्र कुमार ही ‘जनविक्रांतÓ के संपादक रह गए। यह अखबार अमरेन्द्र कुमार के कुशल संपादन-प्रकाशन में 20 साल तक छपने के बाद 1987 में उनके पटना (दैनिक आज के संपादकीय विभाग) में चले जाने के कारण बंद हो गया।
वर्ष 1979 में नवयुवा नाटककार-कवि-कथाकार कृष्ण किसलय के संपादन और वरिष्ठ पत्रकार-कवि अवधेशकुमार श्रीवास्तव के सौजन्य संपादन में साप्ताहिक ‘सोनमाटीÓ का प्रकाशन डालमियानगर से हिन्दी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर शुरू हुआ। सोनमाटी ने आरंभ से ही सार्वजनिक दुष्प्रवृत्ति के विरुद्ध तेवरदार लेखन और जनसरोकार से जुड़ी खबरों को प्रमुखता देने की नीति अपनाई। सोननद अंचल खासकर रोहतास और औरंगाबाद जिला की सामयिक घटनाओं के साथ राजनीति, संस्कृति, अर्थ, विज्ञान-तकनीक से संबंधित गतिविधियों का तथ्यात्मक प्रकाशन कर सोनमाटी ने पूरे बिहार (झारखंड भी शामिल) में लघु समाचारपत्रों में विशिष्ट पहचान बना ली।
छोटे कलेवर (टेबलाइट साइज) के बावजूद सोनमाटी ने आंचलिक पत्रकारिता का ऐतिहासिक कीर्तिमान बनाया। इसके संपादक (कृष्ण किसलय) को श्रेय जाता है कि सोनघाटी में रूटीन खबरों से अलग खोजी पत्रकारिता व स्थल रिपोर्टिंग की नींव मजबूत की और कई मील-स्तंभ कार्य करते हुए आंचलिक पत्रकारिता को नई ऊंचाई पर स्थापित कर नए मानक गढ़े। सोनमाटी ने छोटे शहर की छपाई की पारंपरिक ट्रेडिल तकनीक सीमा के बावजूद ले-आउट (पृष्ठ सज्जा) को भी आकर्षक आयाम दिया।
सोनमाटी हरियाणा के युवा महिला केेंद्र, सिरसा (अध्यक्ष सुषमा स्वराज) द्वारा आयोजित लघु पत्र-पत्रिकाओं की अखिल भारतीय प्रदर्शनी में शामिल होकर चर्चा का विषय बना। हरियाणा के ही दूसरे समारोह में दृष्टिसंपन्न आंचलिक पत्रकारिता के लिए सोनमाटी को अखिल भारतीय विशेष प्रज्ञा पुरस्कार दिया गया। इसके विषय केन्द्रित विशेषांकों की चर्चा बिहार और दूसरे राज्यों के पत्र-पत्रिकाओं में हुई। सोनमाटी के मुंशी प्रेमचंद विशेषांक की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हुई थी और टाइम्स आफ इंडिया समूह की पत्रिका ‘सारिकाÓ ने इसका उल्लेख किया था। हैदराबाद के विद्वान पत्रकार बजरंगराव बांगरे ने स्वतांत्रयोत्तर हिन्दी साप्ताहिक पत्रकारिता पर पीएचडी शोधप्रबंध में देश के बड़े और लघु साप्ताहिक पत्र-पत्रिकाओं में सामग्री चयन, विषयवस्तु और प्रस्तुति-दृष्टि के लिए सोनमाटी को भी शामिल किया।
वर्ष 1990 में सासाराम से संजय श्रीवास्तव के संपादन-प्रकाशन में हिन्दी साप्ताहिक ‘जनता एक्सप्रेसÓ के चार-पांच और इसके बाद सासाराम से ही प्रकाशित रूबी इंडिया, कैमूर टाइम्स, शेरशाह टाइम्स आदि के भी कुछ ही अंक प्रकाशित हुए। वर्ष 1990 में सासाराम से अलाउद्दीन अंसारी के संपादन-प्रकाशन में पाक्षिक ‘रोहतास समाचारÓ के 12 अंक छपे थे।
वर्ष 1991 में सोनमाटी का टेबलाइट साइज में सांध्य संस्करण (संपादक कृष्ण किसलय, समाचार संपादक अवधेश कुमार श्रीवास्तव) का प्रकाशन 14 जनवरी को शुरू हुआ, जो तकनीक संसाधन के अभाव में 24 मई तक ही जारी रहा। यह रोहतास जिले का पहला सांध्य दैनिक था। इसके बाद सोनमाटी का प्रकाशन पाक्षिक हो गया।
रोहतास जिले में पत्रिकाएं
रोहतास जिला (बिहार) में पत्रिका प्रकाशन का बीजारोपण प्रसिद्ध कांग्रेस नेता अब्दुल क्यूम अंसारी ने सासाराम में वर्ष 1924 में उर्दू में ‘हुस्न इश्कÓ से किया था। अगले वर्ष 1925 में इन्होंने अपने शहर डेहरी-आन-सोन में पहला छापाखाना लगाकर ‘अल इस्लाहÓ का प्रकाशनशुरू किया।
वर्ष 1965 में शुरू हुई ‘सहसरामÓ (संपादक श्यामविहारी विरागी, गौरीशंकर प्रसाद श्रीप्रकाश) जिले में हिन्दी की पहली साहित्यिक पत्रिका थी, जिसके 11 अंक और वर्ष 1973 में गौरीशंकर प्रसाद श्रीप्रकाश के संपादन में पहलेजा, रोहतास से मासिक ‘नया रास्ताÓ के 1975 तक 13 अंक निकले थे।
वर्ष 1977 में डालमियानगर से त्रैमासिक ‘नई आवाजÓ (प्रधान संपादक अवधेशकुमार श्रीवास्तव,अतिथि संपादक श्रीशचंद्र सोम, संपादक कृष्ण किसलय) के सात अंक प्रकाशित हुए, जिसके कथा अंक व कविता अंक का साहित्य जगत में स्वागत हुआ था। हिंदी के विद्वान साहित्यकार डा. नंदकिशोर तिवारी के संपादन में वर्ष 1978 में ‘सुर सरिताÓ और ‘इयत्ताÓ काएक -एक अंक छपा था, पर इनके संपादन में 1981 में हास्य-व्यंग्य पत्रिका ‘अणिमाÓ के कई अंक प्रकाशित हुए थे। वर्ष 1980 में गढनोखा से शुरू हुई ‘झनकारÓ 1989 तका छपती रही।
सासाराम से कथाकार-त्रय शंकर, अभय, नर्मदेश्वर के संपादन में प्रकाशित अनियतकालिक पत्रिका ‘अबÓ ने हिन्दी कथा साहित्य में प्रतिष्ठित स्थान बनाया। सुरुचिपूर्ण मासिक ‘कलमकारÓ (प्रधान संपादक विद्यासागर मिश्र, संपादक मनोज मित्र, सह संपादक सतीश सारंग) का नियमित प्रकाशन दो साल (1980-82) तक डेहरी-आन-सोन से हुआ था।
-स्व. अवधेशकुमार श्रीवास्तव
(पुनप्र्रस्तुति : निशान्त राज)
रोहतास का पहला न्यूजपोर्टल ‘सोनमाटीडाटकामÓ
सोनमाटीडाटकाम बिहार के रोहतास जिले और सोनघाटी क्षेत्र का भी सबसे पहला न्यूजपोर्टल है। इसके प्रिंट संस्करण (सोनमाटी) के प्रकाशन के साथ इसका डिजिटल संस्करण सोनमाटीडाटकाम 2012 में लांच हुआ था, पर तब इसमें संपूर्ण न्यूजपोर्टल की विशेषता नहींथी और वह मुख्य तौर पर ई-पेपर के रूप में ग्लोबल उपस्थित था। सोनमाटीडाटकाम को सोनमाटी मीडिया समूह द्वारा सितम्बर 2017 में पारदर्शी घोषणा के साथ विधिवत न्यूजपोर्टल के रूप में लांच किया गया और मध्य प्रदेश से निकलकर पटना में गंगा में मिलने वाले सोन नद के तट के सबसे बड़े शहर डेहरी-आन-सोन केंद्रित डिजिटलअखबार की पहचान दी गई। सोनमाटीडाटकाम ने हिन्दी के अग्रणी लघु न्यूज वेबसाइट के रूप में अपनी अलग पहचान बना ली है, जिसका प्रमाण है कि अनेक वेबसाइटों ने सोनमाटी प्रबंधन की सहमति से सोनमाटीडाटकाम से सामग्री साभार प्रस्तुत की है या फिर सोनमाटी का उल्लेख किया है। हालांकि ग्लोबल उपस्थिति के कारण आंचलिक और लघु शब्द उपयुक्त नहींहै, मगर समाचारों की प्रस्तुति, समाचार चयन के मुख्य क्षेत्र, संपादकीय टीम, कन्टेन्ट योगदान, सक्रियता-विशेषता और सोन नद अंचल क्षेत्र पर ज्यादा जोर होने से सोनमाटीडाटकाम को वैश्विक पहुंच वाली आंचलिक वेबसाइट ही कहना श्रेयस्कर होगा।
रोहतास जिले में इन्क्रिडिबलरोहतास, रोहतासडिस्ट्रिक्ट, डालमियानगर-डेहरीआनसोन-रोहतास जैसे वेबसाइट भी सक्रिय हैं,पर इनमें समाचारपत्र के मान्य स्वरूप नहींहोने से इन्हें न्यूजपोर्टल नहींकहा जा सकता। ये क्षेत्र विशेष के स्वतंत्र सूचनावाहक सोशल मीडिया हैं।
-निशांत रांज
हिन्दी में विज्ञान पत्रकारिता के 200 साल
वर्ष 1865 में लंदन से प्रकाशित ‘फिलोसाफिकल ट्रांजेक्टÓ को उसके शोध लेखों के कारण विश्व की पहली वैज्ञानिक पत्रिका होने का दर्जा प्राप्त है। भारत में तो हिन्दी में विज्ञान पत्रकारिता की शुरुआत इससे आधी सदी पहले हो चुकी थी। वर्ष 1818-19 में जारी कोलकाता स्कूल बुक्स सोसाइटी की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि बैपटिस्ट मिशनरी ने अप्रैल 1818 में श्रीरामपुर (पश्चिम बंगाल) से मासिक दिग्दर्शन की दो हजार प्रतियां छापने का प्रावधान किया था, जिसमें ज्ञान-विज्ञान पर सामग्री छापती थी और जो अंग्रेजी के अलावा बंगला व हिन्दी भाषा में भी प्रकाशित होती थी। बाद में भारतीय भाषाओं में बंगला में पहली मौलिक मासिक पत्रिका ‘पश्वावलीÓ का प्रकाशन 1821 में शुरू हुआ। इस तरह यह माना जा सकता है कि हिन्दी में समाचार-विचार के प्रथम मौलिक साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तण्डÓ के 1826 मेें आरंभ होने से आठ साल पहले पहले मासिक दिग्दर्शन से हिन्दी में विज्ञान पत्रकारिता की शुरुआत हो चुकी थी।
वर्ष 1826 से वर्ष 1825 तक सौ सालों में हिन्दी में चार दर्जन ऐसी पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हुई थीं, जिनमें नियमित या अक्सर विज्ञान सामग्री छपती थी। इनमें इलाहाबाद की आरोग्य दर्पण (1881), अमरावती की कृषि हितकारक (1890), नागपुर की गोरक्षा (1891), विज्ञान कल्पतरु (1914) और उद्यम (1919) प्रमुख थीं। आगरा की बुद्धिप्रकाश (1852) में भूगोल, गणित व अन्य विज्ञान विषयों के लेख प्रकाशित होते थे। वर्ष 1873 में इलाहाबाद से बालकृष्ण भट्ट के संपादन में शुरू हुए ‘प्रदीपÓ में दर्शन और इतिहास से संबंधित वैज्ञानिक सूचनाएं मुखपृष्ठ पर छापी जाती थीं।
प्रोफेसर लक्ष्मीशंकर मिश्र के संपादन में वाराणसी से वर्ष 1882 में शुरू हुई ‘काशी पत्रिकाÓ में तो उसके मुखपृष्ठ पर ही छपता था- ‘ए विकली एजुकेशनल जर्नल आफ साइंस, लिटरेचर एंड न्यूज इन हिन्दुस्तानीÓ। इसी तरह तोता राम के संपादन में वर्ष 1887 में अलीगढ़ से शुरू साप्ताहिक ‘भारत बंधुÓ में भी मुखपृष्ठ पर यह छापा जाता था- ‘ ए विकली जर्नल आफ लिटरेचर, साइंस न्यूज एंड पालिटिक्सÓ।
हिन्दी के पुरोधा साहित्यकार अपने साप्ताहिक ‘कवि वचनसुधाÓ में विज्ञान से संबंधित सामग्री हमेशा प्रकाशित करते थे। कवि वचनसुधा (अंक-1, खंड-3, 30 अप्रैल 1871) में रुड़की (उत्तराखंड) के इंजीनियरिंग कौशल पर प्रकाशित विवरण इस प्रकार था- ‘रुड़की अंग्रेजों का बसाया शहर, शिल्प विद्या का बड़ा कारखाना है। बड़े-बड़े लोहे के खंभे एक क्षण में ढल जाते हैं और सैकड़ों मन आटा घड़ी भर में पिस जाता है। सबसे आश्चर्य गंगाजी की नहर है। पुल के ऊपर से नहर और नीचे नदी बहती है। नहर हरिद्वार से आई है और इसके लाने में यह चातुर्य किया गया है….Ó।
वर्ष 1900 में शुरू हुई काशी नागरी प्रचारिणी सभा की बहु प्रतिष्ठित सचित्र मासिक ‘सरस्वतीÓ में नियमित और नियोजित ढंग से विज्ञान व पुरातत्व पर सामग्री प्रकाशित होती थी। इस पत्रिका में एक विज्ञान स्तंभ (चारुचयन) भी छपता था। सरस्वती के लिए चंद्रधर शर्मा गुलेरी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्यामसुंदर दास जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों ने विज्ञान लेख लिखे थे और साहित्य के शीर्ष हस्ताक्षर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी ‘विज्ञान और वैज्ञानिकÓ विषय पर लेख लिखा था।
हिन्दी की पहली संपूर्ण विज्ञान पत्रिका इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली ‘विज्ञानÓ है, जिसमें विज्ञान के विभिन्न विषयों के साथ विज्ञान पत्रकारिता की अनेक विधाओं का समावेश किया गया। वर्ष 1915 में शुरू हुई मासिक ‘विज्ञानÓ का प्रकाशन आज भी जारी है। देश के आजाद होने के बाद पटना से वर्ष 1948 में शुरू ‘आयुर्वेदÓ, दिल्ली से वर्ष 1950 में शुरू ‘विज्ञान प्रगतिÓ, मुम्बई से वर्ष 1969 में शुरू ‘वैज्ञानिकÓ, दिल्ली से वर्ष 1971 में शुरू ‘आविष्कारÓ, वर्ष 1987 में शुरू ‘स्पेस इंडियाÓ का आज हिन्दी विज्ञान पत्रकारिता में सर्वोपरि स्थान है।
20वींसदी के पांचवे दशक में प्रथम अंतरिक्ष यान ‘स्पूतनिकÓ के प्रक्षेपण के बाद लोकप्रिय विज्ञान रिपोर्टिंग की जमीन तैयार हुई और इस जमीन पर वर्ष 1969 में चांद पर आदमी के पांव पडऩे की महाघटना के साथ पूरी दुनिया की सभी भाषाओं की पत्रकारिता में विज्ञान रिपोर्टिंग की नई विधा अंकुरित हुई। 20वींसदी में विज्ञान रिपोर्टिंग तराशी गई, परवान चढ़ी और अब 21वीं सदी में तो यह अंतरिक्ष विज्ञान, जीव विज्ञान, पुरातत्व, भूगर्भ विज्ञान, ऊर्जा, संचार, सैन्य आदि क्षेत्रों में नई-नई खोजों-आविष्कारों के कारण हिन्दी सहित सभी भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं के लिए अपरिहार्य विधा हो गई।
आज मुख्यधारा की खोजी पत्रकारिता की तरह कम अवसर होने के बावजूद हिन्दी की खोजी विज्ञान पत्रकारिता का भी राष्ट्रीय एवं सामाजिक जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। मुख्यधारा की पत्रकारिता में खोज करने का, स्कूप खोदने का जो रोमांच है और जैसी लोकप्रियता है, वह विज्ञान पत्रकारिता में भी है। हालांकि विज्ञान के क्षेत्र में स्कूप खोदने और त्वरित विज्ञान सामग्री देने के मामले में राजनीति, अपराध, खेल, सिनेमा, वाणिज्य की तरह हिन्दी विज्ञान पत्रकारित को अभी नई ऊंचाई चढऩी है, क्योंकि घटना होते ही विस्तृत और गहराई वाली रोचक तरीके से सटीक-प्रमाणिक सामग्री प्रस्तुत करने की परंपरा अभी भी बहुत मजबूत नहींहै।
भ्रांतियों-अंधविश्वासों को दूर करने, पारंपरिक ज्ञान को समय सापेक्ष परिमार्जित करने, चीजों से आदमी के रिश्ते की संगत समझ के लिए विज्ञान दृष्टि बेहद जरूरी है। कोई समाज विज्ञान दृष्टि से ही विकास की ऊंचाई चढ़ता है। क्यों, कैसे, कब, कहां, कौन जैसे सवाल हर आदमी के मन को मथते हैं। इस लिहाज से विज्ञान पत्रकारिता वैज्ञानिक ज्ञान के कोष के साथ समाज में विज्ञान चेतना, जागरूकता और विज्ञान दृष्टि के प्रसार का भी कार्य करती है।
-कृष्ण किसलय
…और समय लिखेगा इतिहास !
तीन वरिष्ठ पत्रकारों एसएन विनोद, सुरेन्द्र किशोर और गुंजन सिन्हा की फेसबुक वाल से ली गई सामग्री सोनमाटी के पाठकों के लिए प्रस्तुत है। इनकी संस्मरणात्मक टिप्पणियां देश, समाज की नई पीढ़ी को आईना दिखाने वाली हैं और समसामयिक पीड़ा का प्रकटीकरण भी कि आखिर कैसा बनता जा रहा है समाज? एसएन विनोद की टिप्पणी में बिहार में गुजरी सदी की पत्रकारिता और राजनीति का युग सत्य और नैतिक अंतर्सबंध रेखांकित हुआ है। सुरेन्द्र किशोर की टिप्पणी में यह बात ध्वनित होती है कि पुरानी पीढ़ी के पत्रकार मिशनरी इसलिए थे कि उनके नेतृत्वकर्ता प्रतिभासंपन्न होने के साथ सरल, मितव्ययी और अति संवेदनशील थे। गुंजन सिन्हा की टिप्पणी से पता चलता है कि गुजरी सदी में बड़ा पत्रकार ईमानदार होने के साथ आडंबररहित था, आज की तरह दंभी और आडंबर वाला नहीं। मौजूदा वक्त में तो यह साफ दिख रहा है कि नए नजरिये से देखने वाले, आगे की सोचने वाले, सही प्रतिरोध करने वाले 21वीं सदी के मौजूदा अर्थयुग के आर्थिक चकाचौंध में अर्थ-प्रबंध के लिए अयोग्य बता कर पूरी तरह हाशिए पर रख दिए गए हैं। अब तो उनके हिस्से में सामाजिक सम्मान भी नहीं बचा है। तब यह सवाल खड़ा होता है कि नई पीढ़ी देश-समाज के लिए क्यों सपना पाले और क्यों संकल्पबद्ध हो? मगर सच यह भी है कि अलख जगती रहेगी, आग सुलगती रहेगी और समय लिखेगा इतिहास…! -सोनमाटी संपादक
जब प्रभाष जोशी ने शौचालय किया साफ : सुरेन्द्र किशोर
वर्ष 1989 की बात है। लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार चल रहा था। प्रधानमंत्री वीपीसिंह से मिलने जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी बिहार आए थे। वीपी सिंह का अगला कार्यक्रम सीतामढ़ी में था। हम लोग पटना से सीतामढ़ी की ओर चले। बीच में एक रात मुजफ्फरपुर के एक होटल में रुक गए।
सुबह प्रभाषजी ने देखा कि होटल रूम का शौचालय बहुत गंदा है तो उसे साफ करने खुद भिड़ गए और उन्होंने करीब आधे घंटे रगड़-रगड़ कर साफ करने के बाद शौचालय का इस्तेमाल किया। हालांकि वे होटल के मैनेजर से कह कर उसे साफ करवा सकते थे।
तब उस वक्त मुझे 1969 की घटना याद आ गयी, जब मैं संयुक्त सोशलिस्टपार्टी का कार्यकत्र्ता था। बिहार के एक देहाती क्षेत्र में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का शिविर था। डाक बंगले में हम टिके हुए थे। सुबह-सुबह एक समाजवादी विधायक शौचालय से निकले और मुझे आदेश दिया कि सुरेन्दर.. जरा पखाना में एक बाल्टी पानी डाल दो। मैंने पानी डाल तो दिया। किंतु सोचा कि यह कैसी मानसिकता है? इसमें और एक सामंत में क्या फर्क है? वह विधायक समाज के अत्यंत सामान्य परिवार से आकर नया सामंत बन गया था। मैं खुद एक लघु जमींदार व अद्र्ध सामंती परिवार से आया था समाज बदलने की भोली आशा लेकर। तब मुझे झटका लगा था।
जरा मुजफ्फरपुर में दिल्ली में रहने वाले देश के एक बड़े पत्रकार प्रभाष जोशी के कार्य-व्यवहार की तुलना संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उस विधायक के व्यवहार से कीजिए। मुजफ्फरपुर में प्रभाष जोशी के साथ उस घटना-अनुभव से मुझे अपने इस निर्णय पर गर्व हुआ था कि राजनीति छोड़कर मैं पत्रकारिता में आया। मगर आज तो सवाल यह है कि पत्रकारिता में अब कितने लोगों में स्वर्गीय प्रभाष जोशी की एक झलक भी मिलती है?
और वह संत पत्रकार
इन दिनों दिल्ली के कई पत्रकारों के अपने बड़े-बड़े फार्म हाउस और न जाने क्या-क्या हैं? इस नजरेहालात में एक संत पत्रकार की याद आना स्वाभाविक है। वह संत पत्रकार थे बीजी वर्गीस। इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका ने उन्हें संत ही कहा था। 1969 से 1975 तक ‘हिन्दुस्तान टाइम्सÓ का संपादक रहने के बाद जीबी वर्गीस 1982 में इंडियन एक्सप्रेस ज्वाइन कर रहे थे। वेतन की बात चली। रामनाथ गोयनका ने कहा कि इंडियन एक्सप्रेस के संपादक का वेतन 20 हजार रुपये मासिक है। वर्गीस ने कहा कि मेरा काम तो दस हजार में ही चल जाएगा।
तब रामनाथ गोयनका ने कहा कि कैसी बात करते हो? इस पद के लिए इतना ही वेतन है। मैं इसे कम कैसे कर सकता हंू? इस पर जीबी वर्गीस ने कहा कि पत्रकार के पास अधिक पैसे नहीं होने चाहिए, क्योंकि फिर तो वह पत्रकार ही नहीं रह जाता। तब रामनाथ गोयनका ने जीबी वर्गीस से यह कहा था कि तुम्हें यहां नहीं, बल्कि वेटिकन सिटी में रहना चाहिए।
पत्रकारिता पर गर्व करने वाली यह कहानी मुझे प्रभाष जोशी ने सुनाई थी। हालांकि तब मैं उनसे यह पूछ नहीं सका था कि जीबी वर्गीस अंतत: अपना वेतन 10 हजार रुपये ही लेते थे या 20 हजार रुपये लेना स्वीकार कर लिया था? खैर, उस जानकारी का महत्व नहीं है। मगर यह सवाल है कि क्या आज कोई बड़ा पत्रकार यह कह सकता है कि मेरा तो इतने ही में काम चल जाएगा? जीबी वर्गीस का निधन 2014 में हो गया।
तब ईमानदारी के आगे निजी रिश्ते होते थे हाशिए पर : एसएन विनोद
ऐसे भी उदाहरण मौजूद हैं कि पत्रकार अपने पेशे के प्रति ईमानदारी-निष्ठा के आगे निजी संबंध को हाशिए पर रखते थे। आठवींदशक की बात है। तब बिहार में जयप्रकाश आंदोलन गति पकड़ रहा था और अब्दुल गफूर मुख्यमंत्री थे, जो बेबाकपन के लिए ख्यात थे। कई पत्रकारों से उनके मधुर ताल्लुकात थे। अंग्रेजी दैनिक द स्टेट्समैन के पटना में विशेष प्रतिनिधि थे देवकीनंदन सिंह (हमलोगों के देवकी भाई)। एक बार पटना में मैं और देवकी भाई अब्दुल गफूर से मिलने उनके आवास पर गये। थोड़ी देर की बातचीत के बाद गफूर साहब ने कहा कि मैं कुछ काम निपटा लेता हूं, फिर हम सभी कहीं बाहर जाएंगे। देवकी भाई ने कहा, तब तक मैं भी रिपोर्ट तैयार कर लेता हूं। देवकी भाई ने गफूर साहब के कमरे में टाइपराइटर पर अर्थात मुख्यमंत्री कार्यालय के टाइपराइटर पर रिपोर्ट टाइप की। गफूर साहब ने भी काम निपटा लिया। गफूर साहब ने अपनी निजी फिएट गाड़ी निकाली और सभी बाहर निकले। ऐसे मौकों पर गफूर साहब निजी गाड़ी इस्तेमाल करते थे, ड्राइविंग भी खुद करते थे। रास्ते में देवकी भाई के कहने पर गफूर साहब ने जीपीओ के पास गाड़ी रोकी। देवकी भाई ने उतर कर अपनी रिपोर्ट दिल्ली, कलकत्ता कार्यालय को टेलीग्राम से भेजी।
दूसरे दिन स्टेट्समैन में रिपोर्ट छपी जो जेपी आंदोलन के पक्ष में और बिहार सरकार के खिलाफ थी। गफूर साहब ने फोन कर देवकी भाई से पूछा कि ये क्या लिख दिया? देवकी भाई ने बताया कि कल आपके ऑफिस में ही तो लिखा और आपके साथ ही जीपीओ जाकर डिस्पैच किया। गफूर साहब हंस दिए। तब ऐसे होते थे निजी संबंध और ऐसे कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार। तब और आज की जरा कल्पना को कीजिए।
जतन से ओढ़ी और जस की तस धर दिन्हीं चदरिया… : गुंजन सिन्हा
32 साल पहले राजेन्द्र माथुर (नवभारत टाइम्स समूह के प्रधान संपादक) दिल्ली से पटना आये थे। मैंने बिना अपनी औकात जाने कि मैं नवभारत टाइम्स समूह के सैकड़ों उप संपादकों में एक हूं, उन्हें भोजन पर निमंत्रित कर लिया और वे भी सहज स्वभाव कि एकदम तैयार हो गए। खुद ही बैचलर रसोई में जैसे-तैसे खाना बनाया था। सत्तू का चोखा भी बना लिया था। मौर्य होटल से अपने स्कूटर पर उन्हें पीछे बैठा लिया। वे भी हंसते हुए बैठ गए! रास्ते में दीनानाथ मिश्र (नवभारत टाइम्स के पटना संपादक) को भी लेना था। दीनानाथ जी ने टाइम्स प्रबंधक से गाड़ी मंगा ली। आगे स्कूटर पर मैं और पीछे गाड़ी में दोनों गलियां-नलियां फलांगते पटना किदवईपुरी की एक गली के मकान में पहुंचे।
घर में फर्नीचर कुछ था नहीं, फर्श पर चादर बिछाकर बैठे। सत्तू का चोखा उन्हें बहुत पसंद आया। मैं देख रहा था उनकी उंगलियां। लोग चावल, दाल, सब्जी हाथ से खाते हैं तो उंगलियां लसरा जाती हैं, लेकिन माथुर साहब की उंगलियां वैसे ही साफ रहीं, उनकी कलम की तरह, जो सब कुछ पर लिखने के बाद भी कभी लसराई नहीं। न उनकी उंगलियां और न उनकी कलम। जतन सो ओढ़ी और जस की तस धर दीनी चदरिया…।
ऐसे स्वभाव से ही सरल, सहज संपादक अब नहीं दिखते। हालांकि कहीं न कहीं ऐसे लोग आज भी होंगे जरूर। ऐसे लोगों का संपादक बनना असाधारण घटना होती है। उनकी कुर्सी टाइम्स हाउस (टाइम्स आफ इंडिया, दिल्ली) में आज भी होगी, पिछले 27 वर्षों में जिस पर कई लोग आए-गए, पर हिन्दी पत्रकारिता में माथुर साहब का कोई वारिस नहीं बन सका, उन जैसा नहींबन सका। जिस नवभारत टाइम्स को लेकर उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता के सपने बुने, उस स्वरूप को अब टाइम्स आफ इंडिया वाले शायद बतौर दस्तरखान भी पसंद नहीं करते।
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आरंभ से आजादी तक हिन्दी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं
भारत में सबसे पहला अख़बार, जिसमें विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त किए गए थे, वह 1780 में जेम्स ओगस्टस हीकी का ‘बंगाल गजटÓ था। छोटे साइज के दो पन्ने के इस अखबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों पर लेख छपते थे। हीकी ने गवर्नर की पत्नी पर आक्षेप किया तो 4 महीने जेल की सजा दी गई और 500 रुपये जुर्माना लगाया गया। उसने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो 5000 रुपये के जुर्माने के साथ एक साल जेल की सजा दी गई। अखबार बंद हो गया। इसके बाद अंग्रेजी में कई अखबार निकले, पर थोड़े दिनों तक ही जीवित रहे। वर्ष 1819 में भारतीय भाषा का पहला समाचारपत्र बंगला में ‘संवाद कौमुदीÓ निकला, जिसके प्रकाशक राजा राममोहन राय थे। 1822 में गुजराती भाषा का साप्ताहिक ‘मुंबईना समाचारÓ प्रकाशित हुआ, जो दस वर्ष बाद दैनिक हुआ। गुजराती के इस प्रमुख दैनिक का प्रकाशन आज भी हो रहा है।
हिन्दी पत्रकारिता की कहानी तो भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। ३० मई 1826 को हिन्दी का पहला साप्ताहिक समाचारपत्र ‘उदंत मार्तण्डÓ का प्रकाशन हुआ, जो अर्थाभाव में 1827 में बंद हो गया। 1830 में राममोहन राय ने कोलकाता से साप्ताहिक ‘बंगदूतÓ का प्रकाशन शुरू किया, वह हिन्दी के साथ अंग्रेजी और बंगला में भी था। भारत में आज भले ही हिन्दी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में एक लाख से अधिक संख्या में पत्र-पत्रिकाएं पंजीकृत हों, मगर वर्ष 1833 में 20 ही समाचारपत्र प्रकाशित होते थे, जो वर्ष 1850 में 28 और वर्ष 1853 में 35 हो गए थे। तब अखबारों की संख्या बेहद कम थी और सभी बहुत जल्द बंद हो गए। देश में आधुनिक पत्रकारिता का जन्म 18वीं सदी के चौथे चरण में कोलकाता, मुंबई और मद्रास में हुआ। 18वींसदी के उत्तराद्र्ध में तो हिन्दी प्रारंभिक समाचारपत्र शिक्षा प्रसार और धर्म प्रचार तक सीमित थे। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने सामाजिक राजनीतिक और साहित्यिक दिशा दी। उन्होंने महिलाओं की प्रथम मासिक पत्रिका बालाबोधिनी (1874) का प्रकाशन किया। वर्ष 1846 में राजा शिव प्रसाद ने समाचरपत्र ‘बनारस अखबारÓ का प्रकाशन शुरू किया, जिसका जोर हिन्दी की एकरूपता पर अधिक था। इसके बाद 1895 में ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिकाÓ का प्रकाशन आरंभ हुआ।
उन दिनों आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज, राधास्वामी मत और ईसाई केंद्रों से भी समाचारपत्र प्रकाशित होते थे। तब समाचारपत्रों में युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं और समाजसुधार की गतिविधियों को अभिव्यक्ति मिलती थी, जो आज के संदर्भ में महत्वपूर्ण नहीं है। मगर इसमें संदेह नहीं कि उनसे हिन्दी की गद्यशैली को आकार लेने और विकसित करने में योगदान दिया धार्मिक वाद-विवाद व्यापक माहौल के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्ग और संप्रदाय सुधार की दिशा में अग्रसर हुए थे। उस समय भारतीय समाचारपत्र नया ज्ञान पाठकों को देना चाहते थे और समाजसुधार की भावना अधिक थी। सामाजिक सुधार के नए-पुराने विचारों को लेकर नए पत्र निकलते थे। तब हिन्दी भाषा का विकास नहींहुआ था और भाषा शुद्धता, एकरूपता, भाव संप्रेषण की समस्या थी। और, सवाल यह भी था कि किस भाषा में समाचारपत्र निकाला जाए?
1900 में ‘सरस्वतीÓ और ‘सुदर्शनÓ के प्रकाशन के बाद हिन्दी पत्रकारिता के दूसरे युग पर पटाक्षेप हुआ और नए युग का उदय हुआ। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में ‘सरस्वतीÓ और पंडित रूप नारायण पांडेय के संपादन में ‘इंदु्र ने संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदार श्रम का आदर्श रखा, जिससे हिन्दी पत्रकारिता को नई दिशा मिली। 1921 के बाद साहित्यिक पत्रकारिता की प्रमुख पत्रिकाएं स्वार्थ (1922), माधुरी (1923), मर्यादा, चांद (1923), मनोरमा (1924), समालोचक (1924), चित्रपट (1925), कल्याण (1926), सुधा (1927), विशाल भारत (1928), त्यागभूमि (1928), हंस (1930), गंगा (1930), विश्वमित्र (1933), रूपाभ (1938), साहित्य संदेश (1938), कमला (1939), मधुकर (1940), जीवन साहित्य (1940), विश्व भारती (1942), संगम (1942), कुमार (1944), नया साहित्य (1945), पारिजात (1945), हिमालय (1946) आदि थीं।
जबकि राजनीतिक समाचार प्रधान पत्रकारिता में स्वतंत्रता के पहले तक प्रमुख समाचारपत्रों में कर्मवीर (1924), सैनिक (1924), स्वदेश (1921), श्रीकृष्णसंदेश (1925), हिंदूपंच (1926), स्वतंत्र भारत (1928), जागरण (1929), हिंदी मिलाप (1929), सचित्र दरबार (1930), स्वराज्य (1931), नवयुग (1932), हरिजन सेवक (1932), विश्वबंधु (1933), नवशक्ति (1934), योगी (1934), हिंदू (1936), देशदूत (1938), राष्ट्रीयता (1938), संघर्ष (1938), चिनगारी (1938), नवज्योति (1938), संगम (1940), जनयुग (1942), रामराज्य (1942), संसार (1943), लोकवाणी (1942), सावधान (1942), हुंकार (1942) और सन्मार्ग (1943) प्रमुख थे।
हिन्दी के पहले समचारपत्र ‘उदन्त मार्तण्डÓ के बाद
19वीं सदी में प्रकाशित समाचारपत्रों में प्रमुख पत्र थे- बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तण्ड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850), मजहरुल सरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872) और बोध समाचार (1872)।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र के बाद हिन्दी के कुछ प्रमुख पत्रकार थे-
पंडित रुद्रदत्त शर्मा (भारतमित्र 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिन्दी प्रदीप 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीत्र्ति-सुधाकर 1878), बदरीनारायण चौधरी (प्रेमधन आनंदकादंबिनी 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882), राधाचरण गोस्वामी (भारतेन्दु 1882), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक 1882), राज रामपाल सिंह (हिन्दुस्तान 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण 1883), अंबिकादत्त व्यास (पीयूषप्रवाह 1884), बाबू रामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन 1884), पंडित रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक 1888), योगेशचंद्र वसु (हिन्दी बंगवासी 1890), पंडित कुंदनलाल (कवि व चित्रकार 1891), बाबू देवकीनंदन खत्री, बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि 1894)। राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में आज (1921) के संपादक बाबूराव विष्णु पराड़कर का वैसा ही शीर्ष स्थान है, जैसा साहित्यिक पत्रकारिता में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का है। ‘आजÓ में अपने समय के हिन्दी के अनेक यशस्वी पत्र-संपादकों और संवाददाताओं को निखरने अवसर का मिला।
स्वतंत्र पत्रकारिता के जनक
भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता के जनक राममोहन राय (१७७२-१८३३) को माना जाता है। उन्होंने समाचारपत्र की स्थापना और संपादन-प्रकाशन के साथ स्वतंत्र प्रेस अर्थात वैचारिक स्वतंत्रता के लिए कठिन संघर्ष किया था। समाज के कट्टर धार्मिक विचारों में युग के अनुरूप बदलाव के लिए ही उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की थी। 12 वर्ष तक शासकीय सेवा में उच्च पद पर रहकर और नौकरी से मुक्त होकर उन्होंने शेष जीवन कोलकाता में समाजसेवा को अर्पित किया था। बड़े भाई की मृत्यु पर भाई के शव के साथ जीवित भाभी को भी चिता पर बैठाकर जला दिया गया था। इस घटना के कारण वह सतीप्रथा के विरोध में खड़े हुए थे। उनके प्रयास से सतीप्रथा की क्रूर परंपरा के विरुद्ध कानून बनाई गई।
पत्रकारिता के मुहावरा पुरुष
भारतीय पत्रकारिता की दिशा मोडऩे और 20वींसदीकी हिंदी पत्रकारिता को नया मुहावरा देने वाले यशस्वी संपादक राजेन्द्र माथुर (१९३५-1991) ईमानदारी, प्रतिभा, जानकारी और लेखन के अछूते शिखर थे। उन्होंने दो अखबारों ‘नई दुनियाÓ और ‘नवभारत टाइम्सÓ में बतौर संपादक वैसे पत्रकारों को प्रशिक्षित किया, जिन्होंने हिन्दी पत्रकारिता का नेतृत्व किया। इमरजेंसी के दिनों में वह नई दुनिया के सम्पादक थे। प्रेस सेन्सर लागू होने के अगले दिन नई दुनिया का सम्पादकीय वाला स्थान खाली था। वरिष्ठ संपादक आलोक मेहता ने किताब ‘सपनों में बनता देशÓ में राजेन्द्र माथुर के बारे में लिखा है- 1985-86 के दौरान गुप्तचर एजेंसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने सवाल किया था कि आखिर माथुरजी हैं क्या?
-प्रस्तुति : उपेन्द्र कश्यप, मिथिलेश दीपक, निशान्त राज
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वस्तर पर अंकुश
पिछले महीने ब्रिटेन के मीडिया संस्थान ‘द इकोनामिस्ट ग्रुपÓ और अब एनजीओ ‘रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्सÓ जो निष्कर्ष दिया है, उसमें माना गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक व्यवस्था में भारत सहित विश्व स्तर पर निरंतर ह्रास हो रहा है। द इकोनामिस्ट ग्रुप के वैश्विक लोकतत्र सूचकांक में निचले क्रम से देशों को स्थान दिया गया है कि कौन देश किस नंबर (स्थान) पर है? इस सर्वेक्षण में देशों की चुनाव प्रक्रिया, बहुलतावाद की स्थिति, नागरिक स्वतंत्रता, सरकार की कार्यप्रणाली और राजनीतिक दलों की कार्यसंस्कृति को आधार बनाया गया है। वैश्विक लोकतंत्र सूचकांक में 167 देशों में वर्ष 2016 के सूचकांक (5.52) के मुकाबले वर्ष 2017 के सूचकांक (5.48) में गिरावट आई है। इसमें भारत के बारे में टिप्पणी है कि भारत में मीडिया अंशत: आजाद है। हिंसा के जोखिम व कई पत्रकारों की हत्या ने मीडिया की कार्यशैली को प्रभावित किया है और शासन ने मीडिया की आजादी को कतरने का काम किया है। कई अखबार बंद हुए हैं। मोबाइल इंटरनेट सेवाओं पर रोक लगाई गई है। धर्मनिरपेक्ष देश होने के बावजूद रूढ़ीवादी धार्मिक विचारधाराओं के उभार का भारत पर असर हुआ है। अल्पसंख्यक समुदायों के विरुद्ध हिंसा की प्रवृत्ति में वृद्धि हुई है। इस सूचकांक में भारत 52वें स्थान पर है। पिछले साल वह इसमें 42वें स्थान पर था।
द इकोनामिस्ट ग्रुप के सर्वेक्षण मेंंपूर्ण लोकतंत्र वाले देशों में 19 को स्थान मिला है। अमेरिका, जापान, इटली, फ्रांस, इस्राइल, सिंगापुर, हांगकांग दोषपूर्ण लोकतंत्र वाले देशों की सूची में और चीन, म्यांमार, रूस, वियतनाम, उत्तर कोरिया, सीरिया आदि तानाशाह देश की सूची में हैं। 10 के सूचकांक में शीर्ष पर पांच देश नार्वे (9.87), आईलैंड (9.58), स्वीडन (9.39), न्यूजीलैण्ड (9.26) व डेनमार्क (9.22) और सबसे नीचे कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (1.61), मध्य अफ्रीकी गणराज्य (1.52), चाड (1.50), सीरिया (1.43) व उत्तर कोरिया (1.08) है।
पिछले हफ्ते जारी रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स की रैंकिंग में भारत 180 देशों में 138वें स्थान पर है। वर्ष 2017 में इस रैंकिंग में भारत 136वें स्थान पर था। रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स की रैंकिंग में नार्वे, स्वीडन, नीदरलैंड, फिनलैंड, स्विट्जरलैंड को क्रमानुसार शीर्ष स्थान और ब्रिटेन को 40वें, अमेरिका को 45वें, चीन को 176वें स्थान पर रखा गया है। इस संस्था ने टिप्पणी की है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी मीडिया को पनपने नहीं दे रहे हैं।
– कुमार बिन्दु , वरिष्ठ पत्रकार, डेहरी-आन-सोन
स्वतंत्र मीडिया के लिए आगे आए समाज
मीडिया कभी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ था। मगर आज समाज का उस पर भरोसा कम हो चुका है। कारपोरेट घरानों या पारिवारिक विरासत बन चुके मीडिया संस्थानों में पत्रकार और पाठक (जनता) दोनों को महत्वहीन बनादिया गया है। पत्रकारिता का सामाजिक मूल्य ही बदलकर कई गलत प्रचलन को बढ़ावा दिया गया है। खबरों को गैरजरूरी तरीके से संपादित कर निजी संबंधों के लाभ के हिसाब से परोसी जा रही हैं। महत्वपूर्ण सूचनाएं जनता तक पहुंच नहीं पाती हैं, क्योंकि मीडिया संस्थान उन्हें किसी व्यक्ति या संस्था विशेष को लाभ पहुंचाने के कारण सामने लाना नहीं चाहते। अखबार, टेलीविजन चैनल या न्यूज वेबसाइट पत्रकारों की नियुक्ति खबरों की बेहतर कवरेज के लिए नहीं, मालिक या नेता या विज्ञापनदाता के हित को ध्यान में रखकर करने लगे हैं।
पत्रकारिता की आड़ में व्यापारिक समझौते करने के मौजूदा दौर में समाज के वैसे सामथ्र्यवान लोगों को आगे बढ़कर सक्रिय होने और आर्थिक मदद करने की जरूरत है, जो पाठकों अर्थात समाज के व्यापक सरोकार वाली पत्रकारिता को बचाए रखना चाहते हैं। अब समाज के भीतर ऐसे लोगों का चयन करने की जरूरत है, जो देश के संविधान, जानने की जवाबदेही, वैज्ञानिक विचार के प्रसार, पाखंड-अंधविश्वास के निषेध, जिम्मेदार वैयक्तिक स्वतंत्रता, मनुष्य की गरिमा और जीवन के अधिकार केलिए प्रतिबद्ध हो। मान्य विधि-नियमों के आलोक में अभिव्यक्ति का ऐसा सार्वजनिक मंच बेशक लघु स्तर और आंचलिक स्तर पर ही ज्यादा कारगर हो सकता है।
–अवधेश कु. सिंह, सं. सचिव, सोनघाटी पुरातत्व परिषद, डेहरी-आन-सोन