पटना (विशेष प्रतिनिधि)। बिहार की युवा कवयित्री लता प्रासर को इस वर्ष का विष्णु प्रभाकर साहित्य सम्मान दिया जाएगा। लता प्रासर के नाम के चयन की घोषणा गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा और विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान की संयुक्त सन्निधि संगोष्ठी निर्णय समिति की ओर से की गई है। इस आशय की सूचना गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा के संयोजक प्रसून लतांत, मंत्री कुसुम शाह और विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान की मंत्री अतुल प्रभाकर की ओर से दी गई है। कहा गया है कि साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए लता प्रासर को विष्णु प्रभाकर साहित्य सम्मान 2019 प्रदान किया जाएगा। यह सम्मान दिल्ली में 22 जून को गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा के सभागार में आयोजित समारोह में दिया जाएगा।
कैसा ये वनवास का लोकार्पण पिछले सप्ताह
हिन्दी के साथ लोकभाषा मगही में भी कविता लिखने वाली लता प्रासर पेशे से अध्यापिका है। इनके प्रथम कविता संग्रह (कैसा ये वनवास) का लोकार्पण पिछले सप्ताह बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभागार में साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डा. अनिल सुलभ, पटना विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा. एसएनपी सिन्हा, प्रतिष्ठित कवि भगवती प्रसाद द्विवेदी और नि:शक्तता आयुक्त डा. शिवाजी कुमार ने किया।
बलुआही जमीन पर आंसुओं के बीज बोने जैसा
अपने रचना संसार के बारे में लता प्रासर का कहना है कि उनका लेखन-कर्म नदी किनारे बलुआही जमीन पर आंसुओं के बीज बोने जैसा रहा है। दक्षिण बिहार के मगही भाषी गांव में पैदा हुई लता प्रासर ने पहली बार कविता लिखी-पढ़ी तो परिवार में विरोध तीखे स्वर प्रतिरोध बन खड़े हो गए। मगर कलम भला कहां छूटने वाली थी। जीवन में सकारात्मक योगदान की छटपटाहट और संवेदना की तीव्रता के साथ उनका एकांत सृजन जारी रहा। मन के आवेग कविता के आकार ग्रहण करते रहे। कविता का जन्म होता रहा। समय के साथ गुजरते-बदलते जीवन और परिस्थिति में उनकी तूलिका रंगों की छंटा बिखरेती रही। मानव संबंधों की जटिलता को बारीकी से, ग्राम्य जीवन के वैभव को प्रकृति की संपदा को अपनी करुणा और उद्दाम संवेदान के विस्तार से कलम के जरिये समेटने-बांधने वाली लता प्रासर की कविताओं को पढ़कर एक हद तक गांव को जाना-समझा जा सकता है। बचपन से ही गांव, नदी, बाग-बगीचा, खेत-खलिहान उनके अंतर्मन में रचे-बसे रहे हैं, इसलिए उनकी कविता की प्रेरणा स्रोत भी गांव है। उनके काव्य-सृजन-संसार को कविता में गांव की उपमा सहज ही दी जा सकती है। यहां प्रस्तुत है सोनमाटी के पाठकों के लिए लता प्रासर की ओर से भेजी गई एक कविता।
ओ, धान…!
आओ, सूंघ लेते हैं धान की खुशबू
तर कर लेते हैं स्वासों को इनसे
ओ धान, तेरे रूखेपन की चिकनाहट
शनै-शनै तेरी आगोश में बांधती है
तेरा सुनहरा रूप सभी गहनों से छलछल है
उस पर हरी पत्तियों ने मुझे हरा कर दिया
और मैं बाग-बाग हो रही
तुम्हारे छुटपन की हरियाली
अब तक जिंदा है मुझमें
तुम्हे कुटे जाने की कल्पना
मुझे भी सोंधी कर जाती,
उस पर छाली भरी दही का साथ
अमृतमयी एहसास।
ओ धान, पगडंडियों पर तुमसे मिलना
स्वर्गिक आनन्द से भर देता मुझे
मैं कैसे समझाऊं खुद को और अपने मन को
लोग-बाग तो पागल ही कहेंगे
कहने दो ना, तेरा सान्निध्य ही प्रेम है मुझमें
ओ धान, तेरे लिए कैसे शब्द गढ़ूं
नि:शब्द हूं मैं
तूने संगीत के लिए झिंगुर को पनाह दिया
परागन के लिए तितलियों को,
और न जाने कितने साथी हैं तुम्हारे
मुझे ईष्र्या होती है इन सबसे
सच कहती हूं
तुम्हे काटकर पातन, फिर आटी
और पूंज बना मंदिर का रूप दिया जाएगा
तब झन, झन, झनाक पीटकर
तुम्हें पौधे से अलग करेंगे सब
कूटकर चूड़ा, चावल
पीसकर आटा बनाएंगे
कितने रूपों में सबके सामने परोसी जाएगी।
ओ धान, इन सबसे बिना घबराए
हमें तृप्त करने की माद्दा है तुझमें
छठ में लड़ुआ पूआ ईश्वर पाते हैं
जाड़े में ठिठुरन से बचाती
नयका चावल का पीठा
नवजात के पैर सुंदर सुकोमल रहे जीवनभर
पीठा के भांप से सेंककर
आश्वस्त होती दादी, नानी
ओ धान, तेरा रंग खुशबू
मेरे नस-नस में बसा है
ओ धान पछिया हवा के साथ तेरी खरखराहट
दुनिया के सारे लय, ताल से अद्भुत होता
ओ धान बरसों बरस जन्म जन्मांतर तक
यूं ही खनकते सरकते-लरजते रहना
मैं आऊंगी मिलने
इन्हीं पगडंडियों के सहारे अनछुए नाद सुनने
कीट पतंगों से तेरी यारी देखने
और अपने को हरी और सुगंधित करने।
ओ धान, मैं चाहती हूं तेरे लिए पुरान लिख दूं
तेरे लिए कुरान लिख दूं
तेरे लिए बाईबल लिख दूं
ओ धान, तू मेरे लिए शब्द बरसाते रहना
ओ धान, तुझमें मेरी जां बसती
मुझमें तू दीपक की तरह जलता
ओ धान, कैसे रूंकू
बहुत कुछ कह देना चाहती हूं तुझसे
बस कोई रोके नहीं कोई टोके नहीं
ओ धान, धन्य हुई मैं तुझसे।
– लता प्रासर, पटना
फोन : 7277965160