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जनमतदेश

क्या होगा गुजरात में?

इतना तो तय है कि गुजरात विधानसभा चुनाव के आने वाले परिणाम से 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की दिशा-दशा की झलक जरूर मिलने वाली है। हालांकि गुजरात चुनाव में हार-जीत का महत्व ज्यादा नहीं होगा और हार-जीत के कयास का कोई भी अर्थ नहींहै, मगर यह तो कहा ही जा सकता है कि मोदी का ग्राफ 2014 वाला नहींरह गया है। नतीजा आने में देर है, पर यह जाहिर है कि गुजरात में राजनीतिक प्रचार के लिए एक नई दिशा और राह गढ़ी जा रही है, जो फिलहाल मर्यादित नहींमानी जा सकती।

गुजरात विधानसभा चुनाव में कुछ ही दिन बचे हैं। चुनाव प्रचार की गहमागहमी अपने चरम पर है। गुजरात चुनाव का असर 2019 को लोकसभा चुनाव में दिखेगा, यह तय है। यह बात दीगर है कि भाजपा जीतती है या हारती है, मगर संभावना इसकी भी है कि कहीं गुजरात विधानसभा चुनाव भगवा मंडली के लिए बुरे दिनों की सौगात लेकर न आ जाए। लगता है कि नरेंद्र मोदी को अहसास हो चुका है। माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सभाओं में जुटने वाली कम भीड़ हो रही है। कई जगहों पर कुर्सियां खाली ही रह गईं।राहुल की सभाओं में उमड़ती भीड़ देखी जा रही है। गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के मजबूती से उभरने के संकेत मिल रहे हैं। मोदी की हर राजनीतिक शतरंजी चाल का जवाब राहुल संयत होकर दे रहे हैं और पाटीदारों की राजनीति से भी संतुलित होकर कदमताल साध रहे हैं।

जीएसटी ने व्यवसायी वर्ग की कमर  तोड़ दी
उत्तर प्रदेश में इनका सत्ता में आना नोटबंदी का परिणाम बताया जा रहा है। नोटबंदी से उत्साहित होकर मोदी सरकार ने जीएसटी लागू कर दिया। यही गुजरात में इनके लिए नकारात्मक बन गया है, ऐसा माना जा रहा है। इसीलिए वे यह कह रहे हैं कि अनुभव के आधार पर जीएसटी के नियमों में बदलाव किया जाएगा। कहना न होगा कि नोटबंदी से देश की जनता को कितनी दुश्वारियां झेलनी पड़ी। मोदी लगातार इसे सफल बताते रहे। जीएसटी ने व्यवसायी वर्ग की कमर ही तोड़ दी। अर्थव्यवस्था में मंदी छा गई है। नौकरियां जा रही हैं।

दलों को एकजुट होने की ज़रूरत
पिछले दिनों ममता बनर्जी ने कहा था कि मोदी विरोधी तमाम दलों को एकजुट होने की ज़रूरत है, क्योंकि भगवा ताकतें एकजुट हैं और सत्ता के मद में पागल हो चुकी हैं। इनसे मुकाबले के लिए तमाम विरोधी दलों का एक मंच पर आना एक बड़ी ऐतिहासिक चुनौती ही है। पिछले दिनों कांग्रेस और राहुल पर हमला करते हुए नरेंद्र मोदी ने जो बातें कही हैं, उससे जाहिर होता है कि वे संभवत: यह भूल चुके हैं कि प्रधानमंत्री के पद पर हैं। राहुल के मंदिरों में जाकर दर्शन करने को लेकर उनकी टिप्पणी प्रधानमंत्री पद की गरिमा के अनुकूल नहींमानी जा रही है। जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी को लेकर की गई उनकी टिप्पणियों से उन लोगों को भी दुख हुआ है, जो किसी न किसी रूप में कांग्रेस के विरोधी रहे हैं। मिमिक्री करना और विरोधियों पर व्यक्तिगत प्रहार करना उनकी राजनीतिक आदत में शुमार रहा है।

वे यह भूल गए कि…
वे यह भूल गए कि जवाहर लाल नेहरू का नाम बीसवीं सदी के दुनिया के पांच सबसे बड़े नेताओं में आता है। उनका नाम गांधी के साथ लिया जाता है। दुनिया उन्हें आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में जानती है। उनकी पहचान उस नेता के रूप में है जिनके विचारों ने भारत ही नहीं, दुनिया की राजनीति को प्रभावित किया। वे एक विश्व प्रसिद्ध लेखक के रूप में भी जाने जाते हैं। इंदिरा गांधी की पहचान भी एक विश्व नेता की रही है। चाय बेचने वाले के रूप में अपनी छवि बना कर नरेंद्र मोदी चुनाव जीत पाने में सफल रहे हैं, मगर अपने को चायवाला बताना अब इनके लिए हास्यास्पद बात बन गई है। अटलविहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी सपने में भी नेहरू और इंदिरा पर इस तरह के राजनीतिक प्रहार करने के बारे में नहीं सोच सकते थे। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान नेहरू और इंदिरा पर प्रहार कर मोदी ने अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारी है।

पिट चुका है मोदी का  विकास का  मुद्दा
चुनाव प्रचार के दौरान विरोध किया जाता ही है, मगर मुद्दे भी सामने रखे जाते हैं। मोदी कोई मुद्दा नहीं रखते, क्योंकि उनका जो मुद्दा था विकास, वह पिट चुका है। कांग्रेस और पाटीदार नेताओं ने विकास के मुद्दे की हवा निकाल दी है। राहुल ने भाजपा नेताओं पर व्यक्तिगत प्रहार से बच रहे हैं। नेहरू और इंदिरा गांधी पर मोदी के प्रहार किए जाने से गुजरात के लोग नाखुश भी हैं। गुजरात के वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत दयाल ने बीबीसी में लिखा है कि नरेंद्र मोदी जब इस प्रकार की बात करते हैं, तब वो ये बात भूल जाते हैं कि वह देश के प्रधानमंत्री हैं और देश के दिवंगत प्रधानमंत्री के बारे में इस प्रकार की टिप्पणी कर रहे हैं।

नीचा हो रहा राजनीति का स्तर 
प्रशांत दयाल ने कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मोरबी की जिस दुर्घटना के बारे में बात कर रहे थे, उस दुर्घटना के वक्त वे गुजरात में स्वयंसेवक थे और उन्हें पता था कि मच्छू डैम टूटने से इंसानों-पशुओं की मौत के बाद महामारी फैलने का खतरा बढ़ गया है। उस वक्त सबके लिए मुंह पर रूमाल बांधना अनिवार्य कर दिया गया था। इस स्थिति में इंदिरा गांधी ने मोरबी दौरे के दौरान अपने मुंह पर अगर रूमाल रखा था, जो बिल्कुल सामान्य बात थी। मोदी इस बात को राजनीतिक फायदे के लिए जिस तरीके से बता रहे हैं, उससे राजनीति का स्तर नीचा हो रहा है। इसी तरह, सोमनाथ मंदिर में राहुल के दर्शन के लिए जाने को लेकर मोदी की टिप्पणी पर भी नाराजगी है। मोदी ने यह बताया कि नेहरू सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार के लिए सहमत नहीं थे और यह काम पटेल ने किया।

मोदी का ग्राफ 2014 वाला नहीं
बहरहाल, इतना तो तय है कि गुजरात विधानसभा चुनाव के आने वाले परिणाम से 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की दिशा-दशा की झलक जरूर मिलने वाली है। हालांकि गुजरात चुनाव में हार-जीत का महत्व ज्यादा नहीं होगा और हार-जीत के कयास का कोई भी अर्थ नहींहै, मगर यह तो कहा ही जा सकता है कि मोदी का ग्राफ 2014 वाला नहींरह गया है। नतीजा आने में देर है, पर यह जाहिर है कि गुजरात में राजनीतिक प्रचार के लिए एक नई दिशा और राह गढ़ी जा रही है, जो फिलहाल मर्यादित नहींमानी जा सकती।
    -मनोज कुमार झा, लेखक-पत्रकार

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