रंगयात्रा : डालमियानगर में अंगूर की बेटी, पैसा बोलता है से समाज ने क्या दिया तक

आज की हिन्दी की प्रख्यात उपन्यासकार, नाटककार, कहानीकार एवं रंगकर्मी मृदुला गर्ग दिल्ली विश्वविद्यालय में तीन सालों तक पढ़ाने के बाद बिहार के विश्वप्रसिद्ध सोन नद तट पर स्थित डालमियानगर के रंगमंच पर बतौर प्रथम महिला अभिनेत्री-निर्देशक लगभग पांच सालों (1963-67) तक सक्रिय रही थीं। मृदुला गर्ग के अभिनय वाला चर्चित नाटक था पैसा बोलता है, जिसकी अनुगूंज डालमियानगर से कोलकाता तक हुई थी।

मृदुला गर्ग के आगमन से दो दशक पहले डालमियानगर में हिन्दी नाटक के मंचन की शुरुआत हो चुकी थी। 1942 में डालमियानगर उद्योगसमूह में तकनीकी अधिकारी रहे एके शर्मा के निर्देशन में सबसे पहला नाटक हुआ था अंगूर की बेटी। अंगूर की बेटी में उस समय के डालमियानगर रोहतास उद्योगसमूह के अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी रहे डा. मुनीश्वर पाठक, बड़े प्रशासनिक अधिकारियों में शामिल एसके बर्मन, लक्खी बर्मन, एमपी वर्मा और कागज कारखान के विदेशी मूल के अफसर के. लेन्ज, मिस्टर कावर ने अभिनय किया था। इसके बाद हिन्दी का दूसरा नाटक मंचित हुआ था जालियावाला बाग।
अंगूर की बेटी से पहले अंग्रेजी और बांग्ला में होते थे नाटक
हिन्दी नाटक मंचन के आरंभिक दौर में कोई निश्चित नामधारी रंग संस्था नहींथी। दशहरा के अवसर पर डालमियानगर में उद्योगसमूह प्रबंधन द्वारा रामलीला का महीना भर चलने वाला कार्यक्रम होता था, जिसमें बाहर से रामलीला टीम के साथ पारसी थियेटर टीम भी आती थी। संभवत : उसी से प्रेरित होकर हिन्दी में रंगमंच की नींव डालमियानगर में भी पड़ी। तब तक भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लंबे कालखंड में हिन्दी देश को जोडऩे वाली भाषा के रूप में भारतीय समाज की स्वीकृति पा चुकी थी और 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ों के नारे के साथ स्वाधीनता आंदोलन के चरम पर पहुंचने से हिन्दी में नाटक महत्व बढ़ चुका था। डालमियानगर में हिन्दी नाटक से पहले अंग्रेजी और बांग्ला भाषाओं में ही नाटक होते थे, जिनका मंचन डालमियानगर उद्योगसमूह के अधिकारी संवर्ग के लोग साहूजैन क्लब में नाटक मंचन करते थे।

आठवें दशक तक नाटकों में पुरुष ही करते थे स्त्रीपात्र की भूमिका
देश के आजाद होने के दो दशक बाद भी सातवें दशक तक डालमियानगर औद्योगिक परिसर से बाहर क्रांतिकारी या पारंपरिक धार्मिक नाटक अधिक होते थे और उनमें स्त्री-पात्र की भूमिका पुरुष ही करते थे, क्योंकि बहुभाषी, बहुद्देशीय समाज वाले डालमियानगर उद्योगसमूह परिसर से पिछड़े डेहरी-आन-सोन में आधुनिक परिवेश वाले नाटक को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त नहीं हो सकी थी। यही वजह था कि नाटक या सार्वजनिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में महिलाओं की भागीदारी उस दौर में नहींथी। उद्योगसमूह परिसर से बाहर डालमियानगर के रंगमंच पर पहली बार 1965 में शास्त्रीकला परिषद के संस्थापकों में एक स्व. किशोर वर्मा (नाटक-लेखक निर्देशक) के नाटक (जीवन ज्वार) में महिलाओं की भागीदारी जरूर हुई थी, मगर उसके लिए शास्त्रीकला परिषद को सपना सेन और आरती राय को नाटक में अभिनय करने के लिए बनारस से लाना पड़ा था। आठवें दशक तक भी नाटकों में स्त्रीपात्र की भूमिका पुरुषों को ही करनी पड़ती थी। किशोर वर्मा, चंद्रभूषण मणि, कृष्ण किसलय (1974-79) ने भी नाटकों में स्त्री-पात्रों के अभिनय किए थे। सातवें दशक के बाद डालमियानगर, डेहरी-आन-सोन में आठवां दशक मुख्यत: डाकू जीवन पर आधारित नाटकों का दौर था, जिसके ध्वजवाहकों में पहले किशोर वर्मा और फिर भोजपुरी फिल्म के चर्चित लेखक-निर्देशक चंद्रभूषण मणि (जयशिव कला मंदिर) जैसे अग्रणी रंगकर्मी थे।

रंगमंच पर आठवें दशक में सामाजिक नाटकों का प्रवेश, समाज ने क्या दिया सर्वाधिक चर्चित
शहर (डालमियानगर, डेहरी-आन-सोन) के रंगमंच पर आठवें दशक में सामाजिक नाटकों का भी प्रवेश बेहतर निर्देशकीय सोच और बेहतर रंगकर्मियों के दम-खम के साथ हुआ। न्यू एरिया, जोड़ा मंदिर के किशोर-तरुण छात्रों की टीम जय जवान संघ ने गोल-बांस से मंच बनाकर नाटक मंचन किया था। इस टीम (ललन भारती, कृष्ण किसलय, ओमप्रकाश सिन्हा, भ्रमरजी मुकुल, रामचंद्र सिंह आदि) ने 1974-79 में आदमी और पैसा, समाज ने क्या दिया, आंगन, आवाज गूंज उठी जैसे सामाजिक नाटकों का सफल मंचन कर शहर में नई दस्तक दी, नए अध्याय की शुरुआत की। इन नाटकों में समाज ने क्या दिया सर्वाधिक चर्चित हुआ, जिसका मंचन कई बार किया गया। यह नाटक पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित हुआ, जिकी चर्चा पुस्तक-परिचय स्तंभ में पटना (बिहार) के हिन्दी-अंग्रेजी के बड़े दैनिक पत्रों प्रदीप और इंडियन नेशन ने की थी। नाटक की पुस्तक (लेखक कृष्ण किसलय) का दूसरा संस्करण सात साल बाद प्रकाशित हुआ तो उसकी चर्चा बिहार के सर्वाधिक प्रसारित दैनिक आर्यावर्त ने की। तब दैनिक अखबारों के छह पेज के ही होने और उनके एक ही संस्करण होने से जगह के अभाव में आज की तरह आम तौर पर नाटकों के आंचलिक मंचन की खबरें स्थान नहींपाती थीं।

25 सालों में शीर्षस्तर की ऊंचाई पर पहुंचा नाटक प्रतियोगिता का सफर
1973 में रोटरेक्ट क्लब की टीम को विद्यालय स्तरीय नाटक प्रतियोगिता, 1977 में रंग निर्देशक-नाटककार किशोर वर्मा के नेतृत्व में शास्त्री कला परिषद के रंगकर्मियों की टीम को जिलास्तरीय लघु नाटक प्रतियोगिता और 1979 में रंगकर्मी-नाटककार फिल्म निर्देशक चंद्रभूषण मणि के नेतृत्व में जयशिव कला मंदिर के रंगकर्मियों की टीम को राज्यस्तरीय से देशस्तरीय नाटक प्रतियोगिता के आयोजन का श्रेय है। जबकि 1989 में दक्षिण बिहार के सोन-घाटी में अखिल भारतीय हिन्दी लघु नाटक प्रतियोगिता के नए अध्याय के बीजारोपण का श्रेय रंगकर्मी-नाटककार-पत्रकार-संपादक कृष्ण किसलय (अध्यक्ष) के नेतृत्व में रंगकर्मियों की नई संस्था कला संगम (एक साल बाद अभिनव कला संगम नाम से रजिस्टर्ड) की टीम को है। इस टीम ने प्रतियोगिता को रंगकर्म की दृष्टि से सर्वांगीण स्तरीय बनाने का सफल प्रयास किया था। इस टीम ने रंगमंच पर केेंद्रित स्मारिका प्रकाशन, नाट्य प्रशिक्षण कार्यशाला, शहर की रंगयात्रा परिक्रमा और वरिष्ठता-क्रम में पांच रंगकर्मियों को सम्मानित करने की परंपरा की नींव डाली। नाट्य प्रशिक्षण कार्यशाला में अंतरराष्ट्रीय स्तर के रंगकर्मी और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के आधिकारिक अध्येता डा. ब्रजवल्लभ मिश्र (मथुरा, उत्तर प्रदेश) के विशिष्ट व्याख्यान और एक सप्ताह की अभिनय-शिक्षा ने नाट्य प्रतियोगिता संयोजन को नई गौरवपूर्ण ऊंचाई प्रदान की। नाट्य प्रशिक्षण कार्यशाला में स्थानीय वरिष्ठ रंगकर्मी उदय प्रसाद सिन्हा, रमेशचंद्र गुप्ता, अशोक घायल, महात्म दुबे और स्वयंप्रकाश मिश्र सुमन्त ने रंग-कक्षा परीक्षक के रूप में संयोजन किया था।

सोनधारा : उल्लेख्रनीय दस्तावेज बनी रंगकर्म की स्मारिका   

1992 में पहली बार स्मारिका का प्रकाशन कृष्ण किसलय के संपादकीय नेतृत्व में हुआ। स्मारिक संयोजन समिति में चौरसिया सुरेन्द्र, शशिभूषण वर्मा, कुंजबिहारी सिन्हा, रामकृष्ण शर्मा, सुजीत दीक्षित, सुरेंद्र प्रसाद चौरसिया, जगनारायण पांडेय, वारिस अली और स्वयंप्रकाश मिश्र थे। विश्वविश्रुत सोन-घाटी का प्रतिनिधित्व करने वाले अपने नाम और रंगकर्म पर श्रेष्ठ, सटीक सामग्री-संचय के कारण वह स्मारिका बिहार के सांस्कृतिक इतिहास का एक उल्लेखनीय दस्तावेज बन गई। सोनधारा बिहार के प्रतिनिधि रंगमनीषी राष्ट्रीय सम्मान पद्मश्री से विभूषित स्व. रामेश्वर सिंह काश्यप (लोहा सिंह) की पुण्यस्मृति को समर्पित की गई थी, जिसकी आमुख-कविता (श्रद्धा-तर्पण) सोनघाटी के प्रतिष्ठित हिन्दी गजलकार-व्यंग्यकार कवि वाहियात औरंगाबादी (रामाधार दूबे) ने लिखी थी। उस प्रथम स्मारिका (1992) में रंगकर्म के अग्रणी महत्वपूर्ण लोगों की रचनाएं शामिल थीं। स्मारिक में प्रकाशित आलेख थे- भरत और उनका नाट्यशास्त्र (डा. व्रजवल्लभ मिश्र), दिलों को गर्माने की क्षमता होनी चाहिए (राष्ट्रीय निर्देशक-नाटककार बादल सरकार से शम्सुल इस्लाम की भेंटवार्ता), मौजूदा रंगमंच की तस्वीर बेहद धुंधली है (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक मोहन महर्षि से प्रमोद कौंसवाल की बातचीत), जीवन के सत्य से बड़ा है नाटक का सत्य (रामेश्वर सिंह कश्यप से कृष्ण किसलय की मृत्युपूर्व भेंटवार्ता), साम्प्रदायिकता से लडऩे की बुनियादी जिम्मेदारी मां के रूप में औरत की (बहुचर्चित अभिनेत्री जोहरा सहगल से शम्सुल इस्लाम की मुलाकात), प्रेक्षागृह और माहौल का अभाव (सी. भास्कर राव), नष्ट होती लोकनाट्य शैली डोमकक्ष (अंकित राज), बिहार में रंगमंचीय जड़ता (संजय कुंदन), विश्व रंगमंच को भारत की अद्भुत देन (मोहन उप्रेती), डालमियानगर के रंगमंच की आधी सदी (रमेशचंद्र गुप्ता) और विराट सांस्कृतिक अस्मिता का स्वामी रोहतास जिला (कृष्ण किसलय)।

तस्वीरें क्रमश: मृदुला गर्ग (2017), डा. ब्रजवल्लभ मिश्र (1987), चंद्रभूषण मणि (2018), कृष्ण किसलय (1977)

रिपोर्ट व तस्वीर : निशान्त राज, प्रबंध संपादक, सोनमाटी मीडिया समूह
 (चंद्रभूषण मणि, कृष्ण किसलय से बातचीत और साप्ताहिक सोनमाटी, सोनधारा, नवभारत टाइम्स में 20वीं सदी में प्रकाशित सामग्री पर आधारित)

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