प्रतिबिंब : सोनमाटी का संपादकीय पृष्ठ
उच्चतम न्यायालय का युगांतकारी फैसला
देश के उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने परोक्ष इच्छामृत्यु (पैसिव यूथेनेसिया) के लिए लिखी गई वसीयत (लिविंग विल) की इजाजत देने के बाद तदर्थ (एडवांस) दिशा-निर्देश (गाइड लाइन) भी जारी कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि किसी आदमी के देह पर उसका ही अधिकार है, चाहे स्थिति जीवन की हो या मौत की। फिर भी कोर्ट ने अपने फैसले में संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जीने के अधिकार को संरक्षित बनाए रखा है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है कि व्यक्ति का अपने जीवन पर पूरा अधिकार है तो मृत्यु पर भी। मरणासन्न व्यक्ति को अधिकार है कि वह कब अंतिम सांस ले? बेशक यह देश में उच्चतम न्यायालय का युगांतकारी फैसला है। ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, चीन, इटली, फ्रांस, स्विट्जरलैंड आदि दो दर्जन से अधिक देशों में इच्छामृत्यु का अधिकार प्राप्त है। अब भारत में केेंद्र और राज्य सरकारों को यह देखना, तय करना और कानून बनाना है कि इसका गलत इस्तेमाल न हो।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने तदर्थ दिशा-निर्देश जारी करते हुए कहा है कि उच्चतम न्यायालय का दायित्व है कि इसलिए तदर्थ दिशा-निर्देश वक्त की जरूरत है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2011 में 42 सालों तक कोमा में रहते हुए जीवन-मौत से जूझने वाली बहुचर्चित अरुणा शानबाग मामले में पत्रकार पिंकी विरानी की इच्छामृत्यु की याचिका पर स्वीकृति नहींदी थी। फिर भी सम्मानजनक जीवन की तरह सम्मानजनक मौत की बात कोर्ट ने मानी थी। सम्मानजनक मौत पर शुरू हुई बहस का ही नतीजा निकला कि सुप्रीम कोर्ट ने 11 अक्टूबर 2017 को इच्छामृत्यु पर व्यापक सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रखा और पर्याप्त विचार के बाद 9 मार्च 2018 को इसे सुनाया।
सुप्रीम कोर्ट का तदर्थ दिशा-निर्देश
सुप्रीम कोर्ट का तदर्थ दिशा-निर्देश तब तक अमल में रहेगा, जब तक केन्द्र सरकार विस्तृत गाइड लाइन संबंधी बिल (विधेयक) संसद में प्रस्तुत नहीं करती और संसद उसे पारित कर कानून का रूप नहीं देता और राष्ट्रपति उसकी मंजूरी नहींदे देते। कानून सम्मत गाइड लाइन के आने तक दिमागी तौर पर सही कोई वयस्क व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट के तदर्थ दिशा-निर्देश का पालन कर सकता है। इच्छुक वयस्क व्यक्ति को ही इस बात को सुनिश्चित करना है कि इच्छामृत्यु के लिए उस पर कोई दबाव नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने तदर्थ दिशा- निर्देश में कहा है कि इच्छामृत्यु के मामले में परिवार का एक व्यक्ति गार्जियन होगा, जो उस वक्त फैसला लेगा, जब वांछित व्यक्ति मौत के सन्निकट हो। अगर इच्छामृत्यु को लेकर दो दस्तावेज लिखे जाते हैं तो बाद की तारीख वाला दस्तावेज मान्य होगा। किसी पीडि़त व्यक्ति की इच्छामृत्यु का निष्पादन करते वक्त स्वतंत्र गवाहों के हस्ताक्षर होंगे और उस पर प्रथम श्रेणी के न्यायिक दंडाधिकारी का हस्ताक्षर होगा। यानी इच्छामृत्यु का दस्तावेज प्रथम श्रेणी के दंडाधिकारी के समक्ष रखा जाएगा और उसकी एक कापी जिला जज के कार्यालय में दी जाएगी।
कब हटाया जाएगा लाइफ सपोर्ट सिस्टम?
अगर मरीज गंभीर बीमार है और लगता है कि वह बचने की स्थिति में एकदम नहीं है तो उसका इलाज करने वाला डाक्टर मरीज की स्थिति के बारे में अस्पताल को जानकारी देगा। अस्पताल को बताया जाएगा कि मरीज मरणासन्न अवस्था में है और बचने की संभावना नहीं है। तब अस्पताल मेडिकल बोर्ड का गठन करेगा। मेडिकल बोर्ड के सदस्य मरीज के परिजनों से भी बात करेंगे और उन्हें मरीज की स्थिति के बारे में और मेडिकल सुविधाएं वापस लेने के नतीजे के बारे में बताएंगे। जिस अस्पताल में मरीज का इलाज चल रहा है, वहां का डाक्टर मरीज की इच्छामृत्यु (विल) के उपलब्ध दस्तावेजों की सत्यता की परख करेगा। अगर डाक्टर को यह लगता है कि मरीज की हालत वाकई में सुधरने वाली नहीं है तो वह मरीज के बनाए गए गार्जियन को सूचित करेगा। जब मरीज का गार्जियन यह कहेगा कि मरीज की स्थिति आखिरी है और बचने की संभावना नहीं है, तभी मरीज का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाया जाएगा।
प्रथम श्रेणी न्यायिक दंडाधिकरी ही देगा मेडिकल बोर्ड का फैसला लागू करने की मंजूरी
लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाए जाने के लिए अस्पताल में मेडिकल बोर्ड का गठन होगा और वह बोर्ड स्थिति का आकलन करेगा कि लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाया जाए या नहीं? लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाने के बारे में अस्पताल की या स्थानीय चिकित्सकों की राय के बारे में जिलाधिकारी को रिपोर्ट भेजी जाएगी। जिलाधिकारी अपने जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी के नेतृत्व में मरीज के परीक्षण के लिए मेडिकल बोर्ड का गठन करेगा। जिलाधिकारी द्वारा गठित मेडिकल बोर्ड अगर अस्पताल या स्थानीय मेडिकल बोर्ड की राय से सहमति रखेगा तो मामले को प्रथम श्रेणी के न्यायिक दंडाधिकारी को अग्रसारित (रेफर) कर दिया जाएगा। प्रथम श्रेणी के न्यायिक दंडाधिकरी ही स्थिति का अपने स्तर पर पुनरीक्षण कर मेडिकल बोर्ड के फैसले को लागू करने की मंजूरी देंगे।
अगर इतनी प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद भी अगर लाइफ सपोर्ट सिस्टम और मेडिकल सुविधाएं हटा लिए जाने की मंजूरी नहीं मिलती है तो मरीज का रिश्तेदार या अभिभावक हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। हाई कोर्ट में कोर्ट द्वारा नियुक्त तीन डाक्टरों का पैनल मामले का परीक्षण कर अपना यथोचित फैसला देगा।
-कृष्ण किसलय,
समूह संपादक, सोनमाटी मीडिया समूह