इप्टा के प्लैटिनम जुबली कार्यक्रम के अंतर्गत लोकतंत्र का भारतीय माडल, संस्कृति और मीडिया विषय पर वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश का व्याख्यान
पटना/डेहरी-आन-सोन (विशेष प्रतिनिधि)। इप्टा के प्लैटिनम जुबली के अवसर पर इसकी राष्ट्रीय इकाई (समिति) के आह्वान पर बिहार सहित देश के अन्य राज्यों में भी जगह-जगह व्याख्यान, नाटक, गीत-संगीत, चित्र प्रदर्शनी और अन्य सांस्कृतिक प्रस्तुतियों का क्रम जारी है। इप्टा की स्थापना-तिथि 25 मई को देश भर की इप्टा इकाइयों की ओर से जन संस्कृति दिवस के रूप में मनाया गया। इप्टा का प्लैटिनम जुबली राष्ट्रीय समारोह पटना में 27 अक्टूबर से 31 अक्टूबर तक होगा।
सबसे बड़े सांस्कृतिक आंदोलन के 75 साल
25 मई को 75 साल पूरा करने वाला इप्टा (भारतीय जन नाट्य संघ) आधुनिक भारत का सबसे बड़ा संगठित सांस्कृतिक आंदोलन और जन संस्कृति का प्लेटफार्म है। इप्टा अपनी स्थापना के समय से ही बेहतर दुनिया बनाने के सपने के मद्देनजर नाटकों, गीत-संगीत, नृत्य के जरिये आम आदमी के दु:ख-सुख, आशा-आकांक्षा और संघर्ष को अभिव्यक्ति देता रहा है। साम्राज्यवाद का विरोध करते हुए इप्टा ने औपनिवेशिक भारत में पूरी सजगता के साथ जनचेतना जगाने का कार्य किया।
आरा (बिहार) में भी प्रस्तुत हुआ नए संघर्ष का न्योता मिला है…
25 मई को सोन अंचल के शहर आरा (बिहार) में इप्टा की ओर से जनगीतों की प्रस्तुति (नए संघर्ष का न्योता मिला है…) की गई। 23 मई को पटना इप्टा की ओर से जनगीत, नाटक और संवाद कार्यक्रम (ओ मेरे देशवासी रे…) का आयोजन किया गया, जिस समारोह को वरिष्ठ कहानीकार हृषीकेश सुलभ और इतिहासकार-संस्कृतिकर्मी प्रो. डेजी नारायण ने संबोधित किया।
इससे पहले व्याख्यान-माला कार्यक्रम के अंतर्गत सुप्रसिद्ध कत्थक नृत्यांगना पद्मश्री शोभना नारायण ने 12 मई को पटना संग्रहालय सभागार में भारत का समकालीन नृत्य एक विवेचना विषय पर समारोह को संबोधित किया था और अपने संबोधन में यह कहा था कि आज का पारंपरिक शास्त्रीय नृत्य मानव सभ्यता के विकास के आरंभिक चरण की समकालीन अभिव्यक्ति रहा है। इप्टा की पहली राष्ट्रीय संगोष्ठी 19 मई को जबलपुर (मध्य प्रदेश) में आज का समय और रंगकर्म की चुनौतियां विषय पर आयोजित की गई थी, जिसमें इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह (जयपुर), महासचिव राकेश (लखनऊ), प्रसिद्ध रंगकर्मी तनवीर अख्तर (पटना) आदि ने अपने विचार रखे थे।
तनवीर अख्तर के साथ तीन सप्ताह की प्रस्तुति
इप्टा प्लैटिनम जुबली कार्यक्रम के अंतर्गत पटना इप्टा की ओर से वरिष्ठ रंगकर्मी तनवीर अख्तर के साथ तीन सप्ताह का प्रस्तुति परक अभिनय कार्यशाला का आयोजन 01 जून से 21 जून तक किया जाएगा। इसी क्रम में 26 मई को इप्टा की बिहार शाखा की ओर से लोकतंत्र का भारतीय माडल, संस्कृति और मीडिया विषय पर इप्टा प्लैटिनम जुबली व्याख्यान का आयोजन पटना में किया गया, जिसके मुख्य वक्ता वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश (दिल्ली) थे। राज्यसभा टीवी के पूर्व कार्यकारी संपादक रहे उर्मिलेश पटना में भी 1986-1995 में नवभारत टाइम्स के वरिष्ठ राजनीतिक संवाददाता के रूप में कार्य कर चुके हैं।
लोकतांत्रिक देशों मेंं भारत सबसे नीचे : उर्मिलेश
बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के सभागार में शिक्षाविद प्रो. विनय कुमार कंठ की स्मृति में इप्टा प्लैटिनम जुबली राष्ट्रीय व्याख्यान (3) के वक्तावरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने भारतीय माडल, संस्कृति और मीडिया विषय पर इप्टा प्लैटिनम जुबली व्याख्यान में बताया कि अपने देश में स्वतंत्र, निर्भीक और वस्तुगत पत्रकारिता मुश्किल होता जा रही है। प्रेस फ्रीडम के अंतरराष्ट्रीय सूचकांक में भारत 180 देशों में 138वें स्थान पर है। लोकतांत्रिक देशों में हम सबसे नीचे हैं। हमसे नीचे सिर्फ वे मुल्क हैं, जहां किसी न किसी किस्म की तानाशाही है या जो नवजात लोकतंत्र हैं या फिर जिन मुल्कों में लोकतंत्र और तानाशाही का आना-जाना लगा रहता है। वरिष्ठ पत्रकार व मशहूर एंकर रवीश कुमार को डराने-धमकाने की कोशिश को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। बीबीसी के पूर्व पत्रकार विनोद वर्मा को आनन-फानन में गिरफ्तार किया जाना उसी संदर्भ का उदाहरण है। बीते कुछ सालों के दौरान गौरी लंकेश जैसी मशहूर पत्रकार-लेखिका और प्रो. कलबुरगी, नरेंद्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे जैसे विद्वानों की हत्याएं हो चुकी हैं। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, त्रिपुरा सहित कई राज्यों में पत्रकारों की हत्याएं हुई हैं।
दलित और आदिवासी संपादक नहीं हैं, आखिर क्यों?
उन्होंने कहा कि भारत के संविधान में सद्भाव, समानता और बंधुत्व इन्हींतीन शब्दों में लोकतंत्र की महान भावना को अंतनिर्हित किया है। लोकतंत्र तब तक नहींआएगा, जब तक गैरबराबरी और जातीय असमानता खत्म नहींहोगी। जात-पांत लोकतंत्र को खोखला बना रहा है, जनतंत्र किताबों तक सिमटा हुआ है और मीडया. टीवी चैनल सही जानकारी नहींदे रहे हैं। अखबार-चैनल भी अंधविश्वास, अज्ञान और झूठी खबरें फैला रहे हैं। हालांकि कई तरह की कमियों के बावजूद अखबार आज भी टीवी चैनलों के मुकाबले विश्वसनीय बने हुए हैं। टीवी चैनल तो पूरे परिवार को नशेड़ी और मानसिक बीमार बना रहा है। उन्होंने सवाल खड़ा किया कि देश की आजादी के सात दशकों बाद आज भी मीडिया में 90 फीसदी लोग उच्च जाति के हैं, दलित और आदिवासी संपादक नहीं हैं, आखिर क्यों?
इप्टा का महत्वपूर्ण कालखंड उर्मिलेश के शोध का विषय भी
दरअसल यह संयोग ही है कि इप्टा के एक बेहद महत्वपूर्ण कालखंड का सांस्कृतिक आंदोलन उर्मिलेश के शोध-अध्ययन का विषय भी रहा है। उर्मिलेश ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से 1981 में राहुल सांकृत्यायन के साहित्य की आलोचनात्मक अनक्रमणिका विषय पर एमफिल की डिग्री प्राप्त की थी और इनके पीएचडी का विषय था- प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन में वैचारिक संघर्ष (1946-54)। पीएचडी के शोधकार्य के सिलसिले में उन्होंने दिल्ली, कोलकाता, हैदराबाद, आगरा, इलाहाबाद, लखनऊ, आजमगढ़ और बनारस के संस्थानों की परिक्रमा की थी और इप्टा, प्रगतिशील लेखक संघ से सम्बद्ध दस्तावेजों पर ध्यान केेंद्रित किया था। तब उनके पीएचडी के शोध निदेशक डा. मैनेजर पांडेय ने कहा था कि यह हिन्दी में एक बड़े सांस्कृतिक आंदोलन के वैचारिक इतिहास पर अपने ढंग का पहला शोध कार्य होगा। मगर 1983 में बड़े छात्र आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण जेएनयू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष एनआर मोहंती, महासचिव सजल मित्र व अन्य 14 छात्र नेताओं के साथ इन्हें भी विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया।
सीमाओं और चुनौतियों के कारण कई बार छोड़े मीडिया संस्थान
विश्वविद्यालय से निष्कासन के बाद माफी मांगकर कैंपस में वापस आने का विकल्प दिया गया, पर ज्यादातर ने इस विकल्प को नामंजूर किया। इस तरह उर्मिलेश के पीएचडी करने का सिलसिला थम गया और फेलोशिप भी खत्म हो गई। शोध, अकादमिक अध्ययन, विश्वविद्यालय की मनपसंद दुनिया अचानक छूट गई और किसी योजना के बगैर वह पत्रकारिता में आ गए। इनका कहना है कि तमाम सीमाओं और चुनौतियों के बावजूद इन्होंने अपने विचार और जीवन-मूल्य को पत्रकारिता के प्रोफेशन में जीवित रखने की कोशिश की, जिसके लिए इन्हें कई-कई बार संस्थागत पत्रकारिता और बड़े मीडिया संस्थानों को अलविदा कहना पड़ा।
(इनपुट व तस्वीर : निशांत राज, डेहरी-आन-सोन, बिहार)