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संस्मरणसिनेमा

क्यों न फटा धरती का कलेजा, क्यों न फटा आकाश

इस संस्मरण के लेखक अरविंद कुमार फिल्म पत्रिका माधुरी के पूर्व संपादक व प्रसिद्ध फिल्म पत्रकार रहे हैं। इनका जन्म 17 जनवरी 1930 को मेरठ (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पेंगुइन प्रकाशन से प्रकाशित इनका समांतर कोश (इंगलिश-हिंदी एंड हिंदी-इंगलिश थिसारस एंड डिक्शनरी) प्रतिष्ठित पुस्तक हैं। इनकी अनुवाद पुस्तक विक्रम सैंधव और जुलियस सीजर चर्चित कृतियां हैं। संपर्क : सी-18, चंद्रनगर, गाजियाबाद -201011 (उत्तर प्रदेश)


आरके स्टूडियोज के मुख्य ब्लाक में पहली मंजिल पर छोटे से फिल्म संपादन कक्ष में राज कपूर और मैं अकेले थे। उन के पास मुझे छोड़ कर शैलेंद्र न जाने कहाँ चले गए? 1963 के नवंबर का अंतिम या दिसंबर का पहला सप्ताह था। दिल्ली से बंबई आए मुझे पंद्रह-बीस दिन हुए होंगे। टाइम्स आफ इंडिया संस्थान के लिए 26 जनवरी 1964 गणतंत्र दिवस तक बतौर संपादक मुझे एक नई फिल्म पत्रिका निकालनी थी। बंबई मेरे लिए सिनेमाघरों में देखा शहर भर था। फिल्मों के बारे में जो थोड़ा बहुत जानता था, वह कुछ फिल्में देखने और सरिता कैरेवान में उन की समीक्षा लिख देने तक था। अच्छी बुरी फिल्म की समझ तो थी, लेकिन वह अच्छी क्यों है और कोई फिल्म बुरी क्यों होती है, यह मैं नहीं जानता था। फिल्म वालों की दुनिया क्या है, कैसी है, कैसे चलती है, वे फिल्में क्यों और कैसे बनाते हैं? यह सब मेरे लिए अभी तक अनपढ़ी किताब था।
उस भरी-पूरी गुंजान दुनिया में मेरे दो ही हीरो थे। एक गीतकार शैलेंद्र और दो निर्दशक-निर्माता-अभिनेता राज कपूर। शैलेंद्र जन नाट्य संघ (इप्टा) के सक्रिय सदस्य थे, जिन्होंने इप्टा का यह थीम गीत लिखा था-
तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर
तू जिंदा है, तू जिंदगी की जीत पर यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।
ये गम के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जाएँगे गुजर, गुजर गए हजार दिन,
कभी तो होगी इस चमन पे भी बहार कि नजर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।

तू जिंदा है, तू जिंदगी की जीत पर यकीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।
सुबह और शाम के रंगे हुए गगन को चूम कर,
तू सुन जमीन गा रही है कब से झूम झूम कर,
तू आ मेरा सिंगार कर, तू आ मुझे हसीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।

तू जिंदा है, तू जिंदगी की जीत पर यकीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।
हजार वेश धर के आई, मौत तेरे द्वार पर,
मगर तुझे ना छल सकी चली गई वो हार कर,
नई सुबह के संग सदा तुझे मिली नई उमंग,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।
राज कपूर मेरी नजर में सर्वोत्तम निर्दशक-निर्माता-अभिनेता थे। राज की हर फिल्म मुझे अच्छी लगती थी। राज का अभिनय, राज की विचारधारा, फिल्मों के जरिए समाज को झकझोर देने की राज की ताकत और इस ताकत के पीछे शैलेंद्र के गीतों का जो योगदान था, वह भी मैं जानता था। मेरा सौभाग्य ही था कि उस दुनिया में मेरी पहली निजी मुलाकात शैलेंद्र जी से हुई और उन के जरिए राज कपूर से। उस शाम हम आरके स्टूडियोज पहुँचे तो संदेश मिला कि वह मुझे सीधे उनके संपादन कक्ष में ले आएँ। मुझे वहाँ छोड़ कर वह पता नहीं कहाँ चले गए? तो अब उस छोटे से कमरे में बस राज कपूर और मैं ही थे। मैं उन का फैन और वह मेरे हीरो। राज कपूर के खिले मुसकाते चेहरे पर एक तपाक स्वागत की खुली चमक।
फिल्म संपादन का उन दिनों का एक यंत्र या उपकरण मूवियोला और फिल्म शौटों के गोल डिब्बे अलमारी में रखे थे। मूवियोला के आसपास फिल्म शौटों की पट्टियाँ लटक रही थीं। कमरा पूरी तरह साउंड प्रूफ था और धूल प्रूफ भी। धूल के एक कण का प्रवेश भी वर्जित था। फर्श पर मोटा रोएँदार कालीन था, जो भूलेभटके भीतर आ जाने वाले धूल कण को अपने में समेट लेता था। कमरे में घुसने से पहले जूते चप्पल बाहर छोड़ देने होते थे। यह सब मेरे लिए बिल्कुल नया था। संगम फिल्म की शूटिंग उन दिनों नहीं हो रही थी। ऐसे में राज हाल ही में उस के फिल्मांकित दृश्यों का संपादन कर रहे थे। पत्र-पत्रिका का संपादन क्या होता है, यह मैं जानता था। फिल्मों का भी संपादन होता है, यह मैं फिल्मों में संपादक का नाम पढ़-पढ़ कर जानता था। फिल्म में शाट होते हैं। यह पता था। पर, शाट होता क्या बला है, यह मुझे पता नहीं था।
राज कपूर निर्देशक, लेखक, गीतकार, संगीतकार, संपादक हरफन मौला ही नहीं, हरफन मालिक थे, यह मैंने धीरे-धीरे जाना। राज ने औपचारिकता में अधिक समय नहीं लगाया। संगम का संपादन करने और मुझे दिखाने लगे। फिल्म शाटों की जो पट्टियाँ वहाँ चुटकियों से झूल रही थीं, वे संगम के झील में नौकायन वाले दृश्य के कई शाट थीं। मूवियोला में उस नौकायन दृश्य का अभी तक अपूर्ण संपादित अंश चढ़ा था। राज ने मुझे वह दिखाया। उस में कभी एक नाव तिरछी बल खाती बाएँ से दाएँ जा रही थी, कभी सीधे, कभी कई नावें हमारी तरफ आ रही थीं। कहीं वैजयंती माला का एकल शाट था, कभी राज के साथ या राजेंद्र कुमार के साथ। उन्होंने बताया कि वह किसी ऐसे शाट की तलाश में हैं, जो दृश्य के बहाव को बीच में एक भिन्न दिशा दे सकें ताकि दर्शक की आँख को कुछ भिन्न मिले, ब्रेक मिले। वह उठे, बोले, किसी और समय वह इस दृश्य को अंतिम रूप दूँगा। चलो, बाहर चल कर बैठते हैं।
बाहर संपादन कक्ष से सटा लाल मखमल की चौड़ी गदीली सीटों की तीन-चार पंक्तियों वाला बीस-तीस दर्शकों के लायक आडिटोरियम था। तब तक की मेरी भाषा में छोटा सा सिनेमाघर। सीटों से काफी दूरी पर परदा था। हम दोनों बीच की दो सीटों में धँस गए। राज कपूर की सीट के साथ ही रखा था एक टेलिफोन। यहाँ शुरू हुआ राज कपूर का और मेरा एक दूसरे को निजी तौर पर समझने और परखने का, निस्संकोच बातचीत का दौर। राज ने कहा, हमारे पीछे मशीन आपरेटर के पास उनकी सभी फिल्मों के गीतों के संकलन हैं। मैं जो भी गीत देखना चाहूँ, उस का नाम लूँ। मैंने कहा कि मैं आवारा फिल्म का वह गीत देखना चाहता हूँ जिसमें जब जज रघुनाथ अपनी गर्भवती पत्नी को जग्गा डाकू के अड्डे पर चार दिन रहने के अपराध पर निकाल देता है तो बरसाती रात में सड़क पर दुकान के थड़े पर बैठे भैया लोग गा रहे हैं। राज कपूर चौंक गए। पास ही रखे टेलिफोन का चोंगा उठाकर आपरेटर को आदेश दिया। मेरे सामने चल रहा था मेरा पसंदीदा सीन। मोहम्मद रफी की उन दिनों की टटकी आवाज में-
पतिवरता सीता माई को तू ने दिया बनवास
क्यों न फटा धरती का कलेजा, क्यों न फटा आकाश
जुलुम सहे भारी जनक दुलारी, जनक दुलारी राम की प्यारी
फिरे मारी-मारी जनक दुलारी, जुलुम सहे भारी जनक दुलारी
गगन महल का राजा देखो, कैसा खेल दिखाए
सीप का मोती गंदे जल में सुंदर कँवल खिलाए
अजब तेरी लीला है गिरधारी जुलुम सहे भारी जनक दुलारी।
परदे पर मैं देख रहा था। लीला चिटणीस महल जैसे घर के दरवाजे से बाहर मारी मारी गिरती पड़ती निकल रही है। जुलुम सहे भारी जनक दुलारी। गगन महल का राजा पृथ्वीराज का क्रुद्ध और अपराध बोध से ग्रस्त क्लोजअप। बाहर बिजली कड़कड़ा रही है। मेघरेखा चमचमा रही है। कोई आदमी छाता लगाए घनघोर बरसात से भरी सड़क पार कर रहा है। दस बारह लोग तन्मय हो कर गा रहे हैं- जुलुम सहे भारी जनक दुलारी।

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