सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार इकाई ने छानी 1999 में अर्जुन बिगहा से 2019 में रिऊर तक की खाक। सोन नद की घाटी में दफन हैं कैमूर पर्वत की गुफाओं से नंग-धड़ंग निकलने के बाद मानव सभ्यता के आरंभिक चरण। अर्जुनबिगहा, घरी, एनिकट, लेरूआ, तुंबा, रिऊर, लीलारी, दारानगर में जमींदोज भारत के मूल बाशिंदों की हजारों साल पुरानी कहानी। अर्जुन बिगहा का टीला सेन्दुआर टीला से भी बड़ा। उजड़े अति प्राचीन बाजार के अवशेष पर बसा है रिऊर। प्रस्तुत है अवधेशकुमार सिंह और निशांत राज की रिपोर्ट।
सोन-घाटी दुनिया का सर्वप्राचीन स्थल है, जहां गुफाओं से नंग-धड़ंग बाहर निकल आने के बाद आदमी ने सभ्यता की सबसे पहली तमीज सीखी। सोनघाटी आदमी के आदिम अतीत का आईना है। भारतभूमि में आदि-सभ्यता की नींव रखने वाले आदिवासी मूल बाशिंदों के लिए कैमूर पहाड़ आश्रय-पहचान था और सोन नद जीवन-रेखा। इसके साक्ष्य सोन किनारे सौ से अधिक कि.मी. दूरी में जारोदाग, बांदू, दारानगर, तुंबा, तुतला, झारखंडी देहरीघाट, लेरुआ, घरी, अर्जुन बिगहा के पुरातात्विक सामग्री हैंं। कैमूर की कंदराओं में मानव-वास के 10 हजार साल से भी बहुत-बहुत पुराने चिह्नï शैलचित्रों की मौजूदगी बताती है कि सोन की यह घाटी विश्व की प्राचीनतम सिंघुघाटी से पुरानी है।
वेदों में नहीं है सोन नद, सोन-घाटी के लोगों को नहीं था घोड़ा, यज्ञ, मंत्र का ज्ञान
कैमूर-छोटानागपुर पठार के बीच बहते हुए सोन बिहार में रोहतास, औरंगाबाद में, झारखंड में पलामू (सोन-कोयल संगम) के मैदानी इलाके में प्रवेश करता है और मनेर (पटना) के निकट गंगा में मिलता है। सोन-गंगा संगम पार विश्व प्रसिद्ध प्रागैतिहासिक स्थल चिरांद है, जहां कैमूर पर्वत से सोनघाटी के लोग आवास-भोजन की तलाश में हजारों साल बाद पहुंचे थे। हालांकि सोन 2500 वर्ष पहले पटना में कंकड़बाग से होकर महेन्द्रु दीघाघाट में गंगा से मिलता था। स्कंद पुराण में सोन के पूरब से पश्चिम होने की चर्चा है। वेदों में सोन का जिक्र नहीं है। सभ्यता विकास की अगली सहस्राब्दियों में भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिम में बसे प्राचीन वैदिक लोगों को सोनघाटी की जानकारी नहीं थी। सोनघाटी की आदि-सभ्यता को सिंघुघाटी (हडप्पावासियों) की तरह घोड़ा, यज्ञ, मंत्र का ज्ञान नहीं था, मगर सोनघाटी के लोग वृक्ष, मातृदेवी, लिंग, सूर्य, अग्नि पूजक थे। यूनान और रोम की सभ्यताओं को सोन की जानकारी थी। रोमवासी सोन को सोआ और यूनानवासी सोन को एनराबाओस कहते थे। महाभारत के सभा, वन, भीष्म पर्वों में दो-दो बार सोन का जिक्र है। वाराह, मत्स्य, ब्रह्म्ïाांड, वायु पुराणों के साथ मुद्राराक्षस (विशाखदत्त), रघुवंशम (कालीदास), हर्षचरित (वाणभट्ट) में सोन नद है। हवालदार त्रिपाठी सहृदय ने पुस्तक ‘बिहार की नदियांÓ में बताया है कि वाल्मीकि रामायण के बाल कांड और किष्किंधा कांड में सोन नद का उल्लेख है।
ऐसा गांव, कोई बाजार नहीं मगर चौरास्ते का नाम है बजारी
बारुण प्रखंड (औरंगाबाद) में पुनपुन नदी के किनारे रिऊर ऐसा गांव है, जहां कोई बाजार नहीं है, मगर गांव के बीच चौरास्ते का नाम ‘बजारीÓ है। गांव में ऐसा घर है, जिसके भीतर स्त्री-मूर्ति, स्त्री-व्यवहार का चिह्नï नहीं, फिर भी नाम ‘बुढिय़ामाईÓ है। निर्जन चौधरी के मिट्टी घर के भीतर चबूतरे पर प्रस्तर-स्तंभ स्थापित है, जिसे ही ‘बुढिय़ा माईÓ कहते हैं। गांव के दक्षिण-पूरब सिरे पर टीला प्राचीन गढ़-अवशेष है। सटे खेत में उतरने पर जमींदोज हो चुके गढ़ की ऊंचाई और विस्तार का अंदाजा लगता है। समूचा गांव विशाल टीले पर बसा लगता है, क्योंकि गांव में प्रवेश-निकास चढ़ान-ढलान पर है। ऐसा ही गांव लिलारी ठाकुरबाड़ी के पश्चिम टीले पर है, जिसके पूरब में तालाब के पास काली माई है। वहां प्रस्तर स्तंभ नहीं है। नोखा प्रखंड (रोहतास) के लिलारी और रिऊर के बाशिंदों को अंदाज ही नहीं है कि उनके गांव के भीतर कोई सभ्यता दफन है।
रिऊर में प्राचीन राजपूताना (राजस्थान) के चौहानवंशी योद्धाओं और अति प्राचीन कीकट क्षेत्र के आदिवासी राजाओं का हजारों साल का प्राचीन इतिहास दफन है। मुस्लिम हमलावरों के दबाव में करीब 750 साल पहले पृथ्वीराज चौहान वंश के दो राजकुमार रायभान सिंह, हरनाम सिंह परिवार, फौज के साथ पलायन कर बिंध्य पर्वत की उत्तरी श्रृंखला कैमूर पठार को लांघ कर आए थे और पुनपुन-बटाने नदियों के मध्य सिकहरा गांव (औरंगाबाद) को अपना ठिकाना बनाया था। दोनों ने सैन्य संगठन के बूते बटाने किनारे पवईगढ़ के आदिवासी राजा को मार कर अपने वंश-राज की नींव डाली। तीन सदी पूर्व इस वंश में विष्णु सिंह प्रतापी राजा हुए। इनकी अगली पीढ़ी के राजा नारायण सिंह ने पूरब की दिल्ली सल्तनत और पश्चिम की ईस्ट इंडिया कंपनी के दोहरे टैक्स के दबाव को नहीं झेल पाने के कारण नया टैक्स मांगने वाले अंग्रेजों के खिलाफ बिहार में सबसे पहले बगावत की थी। उसी नारायण सिंह के नाते-रिश्तेदारों ने रिऊर को बसेरा बनाया।
क्या है बुढिय़ामाई का रहस्य ?
सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार के सचिव कृष्ण किसलय और संयुक्त सचिव अवधेश कुमार सिंह ने दौरा कर रिऊर गढ़ के जमींदोज टीले और ‘बुढिय़ामाईÓ का जायजा लिया। पाया कि गढ़ की ऊपरी सतह पर उस जमाने के चिह्नï हैं, जब महलों में पत्थर के गोल तराशे गए खंभे लगते थे। सवाल है, स्तंभ ‘बुढिय़ामाईÓ का इतिहास क्या है? क्यों निर्जन चौधरी के पुरखों ने इसे घर के भीतर सहेज रखा है? पड़ोस के गांव बहुरिया बिगहा से क्या रिऊर का कोई संबंध था? और, था तो कैसा? रिऊर की पूर्व मुखिया निर्मला कुंवर का दोतल्ला मकान मिट्टी के गढ़टीला के पश्चिम में है, जिनके परिवार के सदस्य नरेंद्र सिंह गढ़ अपने को राजपरिवार के वंशज बताते हैं। गढ़ से सटे मकान के फरसाकट मूंछधारी की पहचान रखने वाले केदार सिंह भी राजपरिवार के वंशज हैं, जो गढ़ से निकली हनुमान की मूर्ति की पूजा करते हैं। जीटी रोड बड्डी गेट से 4-5 कि.मी. दक्षिण में रिऊर अति प्राचीन काल में महत्वपूर्ण व्यापार केेंद्र रहा होगा, जहां ‘बजारीÓ से एक रास्ता उत्तर की ओर सिरिस, जम्होर और दूसरा दक्षिण में नवीनगर प्रंखड के चंद्रगढ़, गजनाधाम से जुड़ता होगा। खेत जुताई में कौड़ी मिलने की पुष्टि शिवमंदिर के पुजारी विष्णु देवाचार्य करते हैं। अति प्राचीन काल में कौड़ी ही मुद्रा थी, जब सिक्कों का प्रचलन नहीं हुआ था।
बौद्धधर्म के पराकाष्ठा काल में निषिद्ध था सोनघाटी का यह क्षेत्र
सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार के सचिव कृष्ण किसलय के अनुसार, गया से 80 किमी पश्चिम पुनपुुन-बटाने संगम पर स्थित प्राचीन तीर्थस्थल जम्होर में उत्तर और दक्षिण भारत के हिंदू धर्मावलंबी गया में पितरों को पिंडदान से पहले आरंभिक पिंडदान करते रहे हैं। जम्होर से देवराज इंद्र द्वारा दैत्यराज जंभ के वध की पौराणिक कथा जुड़ी है। इसीलिए इंद्र को जंभारी कहते हैं। बौद्धधर्म के पराकाष्ठा काल में ब्राह्म्ïाण (आर्य) धर्म में गया अपवित्र (निषिद्ध) होने के कारण सुदूर पश्चिम भारत से आने वाले आर्योंं के वंशधर जम्होर में ही पिंडदान कर लौटते रहे हैं। हजारों सालों के अंतरसंघर्ष में कई-कई आदिवासी धाराएं हिंदू धर्म-पंथ में समाहित हुईं, जिससे स्पष्ट है कि पिंडदानियों के पुरखों का संबंध पुनपुन, गया क्षेत्र से रहा है।
सोनघाटी : अंडमान से अफगानिस्तान तक मानव सभ्यता यात्रा की कड़ी
कृष्ण किसलय के अनुसार, रिऊर के जम्होर के करीब होने का अर्थ है कि प्राचीन काल में विजातीय संस्कृति-सभ्यता के संघर्ष-मिलन की कोई बहुत पुरानी कथा इलाके में रही है। अफ्रीका से आदमी के पलायन की प्रथम कथा देश की प्रख्यात भाषाविद डा. अन्विता अब्बी ने दुनिया की एक सबसे प्राचीन जनजाति समुदाय (बो भाषी) से अंडमान में दर्ज की है। दक्षिण भारत होकर सोनघाटी पहुंचे आदि-मनुष्य की प्रथम नाट्य कथा ‘भस्मासुरवधÓ गुप्ताधाम शैलाश्रय ( कैमूर पठार) की हो सकती है, क्योंकि गुप्ताधाम के भीतर बनी चुनापत्थर की सुरंगों में एक में सौ से अधिक संख्या में बैठने की जगह है और उसकी संरचना भी आदिम रंगशाला जैसी है। तब तक आदमी अपनी कंठ-वाणी को पूरी तरह नियंत्रित नहीं कर पाया था, नाचने-गाने-बजाने की तकनीक अविकसित थी या इनकी तकनीक का एकदम आरंभिक दौर था। अंडमान से सोनघाटी की यात्रा तक आदमी आग पर काबू पा चुका था। अंडमान में आज भी वन्यजीवों की तरह संरक्षित चार मूल जनजातियों को आग जलाना नहीं आता, क्योंकि उन्हें आग जलाने की तकनीक का स्वाभाविक ज्ञान ही नहीं है। महाभारत में अग्नि-उत्पति स्थलों के रूप में सोन की चर्चा भी है। इसका अर्थ यह है कि आदमी ने उल्लेखित स्थानों पर आग पैदा कर सीख लिया था। अब तो डीएनए टेस्ट ने यह बता दिया है कि अंडमान से अफगानिस्तान तक आदमी की नस्ल-शाख और जीनोम एक है। अंडमानी ही समूचे एशियावासियों के पुरखे हैं।
सोनघाटी पुरातत्व परिषद की बिहार इकाई
1998 में जपला (झारखंड) से कूकही नदी के किनारे सोनपुरा, सजवन, परता गांवों से गुजरते हुए ढाई घंटा पैदल चलकर सोनघाटी पुरातत्व परिषद का दल सोन-कोयल संगम पर स्थित कबरा टीला पहुंचा था। दल में पुलिस इंस्पेक्टर रामकिंकर सिन्हा (पूर्व अध्यक्ष), अंगद किशोर (वर्तमान अध्यक्ष), सचिव तापस कुमार डे, थानाध्यक्ष किरण कुमार के साथ बिहार क्षेत्र के संयोजक कृष्ण किसलय थे। सोनघाटी पुरातत्व परिषद के लगातार पत्राचार के बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने कबरा में अवलोकन टीम भेजी और 24 अक्टूबर 1999 को पटना में प्रेस विज्ञप्ति जारी कर अधीक्षण पुरातत्वविद मोहम्मद केके ने कबरा को 3500 वर्ष पुराना बताया।
20 जून 2000 को जयहिंद परिसर (डेहरी) में बैठक हुई, जिसमें सोनघाटी पुरातत्व परिषद की बिहार इकाई के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद सरावगी बने। इसके बाद तुंबा, वनसती, तुतला, अमरा-अमरी, दारानगर, पवईगढ़, मकराईं, लिलारी, झारखंडी, गोड़इला पहाड़, लेरुआ, अर्जुन बिगहा, घरी, मनौरा, रिऊर आदि का दौरा कर प्राचीन स्थल चिह्निïत किए गए। सचिव कृष्ण किसलय और संयुक्त सचिव अवधेशकुमार सिंह ने अति महत्वपूर्ण पुरा-सामग्रियां खोजीं।
28 अप्रैल 2019 को जयहिंद परिसर में हुई बैठक में परिषद के जपला मुख्यालय सचिव तापस कुमार डे की उपस्थिति में बिहार इकाई के भूपेंद्रनारायण सिंह, कुमार बिन्दु उपाध्यक्ष, दयानिधि श्रीवास्तव कोषाध्यक्ष, उपेंद्र कश्यप, मिथिलेश दीपक उपसचिव (समन्वय ) और डा. सरिता सिंह, नंदकुमार सिंह, निशांत राज, सुमंत मिश्र, रामनारायण सिंह कार्यकारी सदस्य बनाए गए।
(रिपोर्ट, तस्वीर : अवधेशकुमार सिंह/निशान्त राज)