सूर्यपूजकों की आदिभूमि पर चार दिवसीय पर्व आज से,
डेहरी-आन-सोन में सोन महानद तट पर होता है विराट मेले का माहौल,
पहली बार च्यवनाश्रम में छठ होने का है पौराणिक आख्यान,
पृथ्वी के हर जीवधारी का जीवनदाता है सूर्य
डेहरी-आन-सोन (बिहार) -कृष्ण किसलय। बिहार में बड़ी नेम-धरम (शुद्धता-स्वच्छता) से मनाये जाने वाले महान छठ पर्व की तैयारी अपने अंतिम चरण में है। यह व्रत 24 अक्टूबर से शुरू होकर 27 अक्टूबर को खत्म होगा। यह ऐसा पर्व है, जिसमें जीवंत देवता की और उगते के बजाय डूबते सूर्य की पूजा की जाती है। छठ मूल रूप से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में सूर्यपूजकों की आदिभूमि बिहार का पर्व है। यहां से लोग देश के जिस कोने में गए या विदेश में गए, वे वहां छठ करते रहे हैं। भले ही छठ का विधान (कर्मकांड, पूजा सामग्री आदि) और सांस्कृतिक रूप (लोकगीत, रसोई के उपकरण आदि) देश-काल-परिस्थिति के कारण बदल गए हों।
छठ व्रत पूरी तरह प्राकृतिक पूजा रही है और इसमें मानव मान्य देवता के पूजन के लिए किसी पुरोहित या कर्मकांड की जरूरत नहींरही है। मगर हजारों सालों में सूर्यपूजा या सूर्य से साक्षात्कार की विधि ने रूप व अर्थ बदलकर विभिन्न आख्यान व किस्से-कहानियों का रूप ले लिया और अब इसमें आडंबर व ऐश्वर्य का भी वर्चस्व हो गया है। फिर भी छठ व्रत का संदेश आज भी बहुत स्पष्ट और सबके लिए ग्राह्यï है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि पृथ्वी के सभी जीवधारी (आदमी, जंतु व वनस्पति) सूर्य किरणों से ही ऊर्जा प्राप्त कर जीवित हैं। सूर्य से ही जीवों को सीधे तौर पर विटामिन-डी प्राप्त होता है, जो हड्डियों के लिए और त्वचा रोग में लाभकारी है। धूप का सेवन-सहन सुबह-शाम ही कर पाना संभव है, क्योंकि सूर्य की अल्ट्रा वायलेट किरणें दोपहर में काफी तीखी होती हैं।
महर्षि च्यवन ने किया था सबसे पहले छठ व्रत
यह पौराणिक कहानी है कि औरंगाबाद के दाउदनगर अनुमंडल के देवकुंड (च्यवनाश्रम क्षेत्र) में पहली बार छठ किया गया। पंडित लालमोहन शास्त्री के अनुसार, महर्षि च्यवन की पत्नी सुकन्या ने छठ किया था और ऋषि को कुष्ठ से मुक्ति दिलाने के लिए अस्ताचल व उदयाचल सूर्य को अघ्र्य दिया था, जिससे ऋषि की रुग्ण काया स्वस्थ हुई थी।
छठ से जुडी मगध (पटना, गया, औरंगाबाद, अरवल, जहानाबाद) और शाहाबाद (रोहतास, भोजपुर, बक्सर, कैमूर) की अपनी विशेष सांस्कृतिक परंपरा है। चार दिवसीय इस व्रत के पहले दिन (कार्तिक शुक्ल चतुर्थी) सुबह स्नान कर और धोती पहन कर व्रती सूर्य को प्रणाम करते हैं। इस दिन को नहाय-खाय कहा जाता है। चना दाल, अरवा चावल का भात और कद्दु की सब्जी शुद्धता से बनाकर व्रती व उनके परिवार के लोग खाते हैं। महिलाएं इस दिन अपने बाल नहीं बांधती और नाक से सिर के ऊपर मांग तक सिन्दूर करती हैं, जिसे जोड़ा मांग भरना कहा जाता है। दूसरे दिन को लोहंडा या खरना कहा जाता है। इस दिन शाम में मिट्टी के नये चूल्हे पर आम की लकडी की आग जलाकर पीतल के बर्तन में अरवा चावल का खीर बनता है। बिना बेलन के हाथ से ही रोटी कडाही में सेंकी जाती है। शाम में दीपक जलाकर पश्चिम की ओर रुख कर सूर्य के नाम पर अग्रासन (बना हुआ खीर-रोटी आदि) निकालने के बाद व्रती प्रसाद ग्रहण (भोजन) करते हैं और अन्य को भी खिलाते हैं। चांद की रोशनी रहने तक ही व्रती पानी पीते हैं और इसके बाद चौथे दिन सुबह पर्व के खत्म होने पर ही व्रती पानी पीते हैं। दूसरे दिन की रात शुद्ध घी में प्रसाद (ठेंकुआ, कसार आदि) बनाया जाता है। तीसरे दिन शाम में अस्ताचलगामी सूर्य को सात बार अघ्र्य दिया जाता है, जिसके लिए व्रती विभिन्न तरह के स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कंद-मूल व फलों से अपना सूप (अनाज फटकने के लिए बांस के पत्तर से बना हाथी के कान नुमा पात्र) में सजाते हैं और सूप को लेकर छठ के लोकगीत गाते हुए व्रती नदी या घाटों पर जाते हैं, जहां अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य अर्पित करने की परिक्रमा पूरी करते हैं। चौथे दिन सुबह नदी, तालाब या नहर के घाट पर उदयाचल सूर्य को अघ्र्य देने के साथ व्रत समाप्त होता है। इसके बाद व्रती पारण करते हैं अर्थात सबसे पहले तरल पेय (शरबत, ठेंकुआ आदि) पीते हैं।
देव में है पश्चिमाभिमुख सूर्यमंदिर
कार्तिक (अक्टूबर-नवंबर) और चैत्र (फरवरी-मार्च) में होने वाले छठ पर्व पर औरंगाबाद जिले के देव में बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और उतर प्रदेश से लोग बहुत बड़ी संख्या में भगवान भास्कर की अराधना के लिए जुटते हैं। देव स्थित ऐतिहासिक सूर्य मंदिर वास्तुकला की कलात्मक भव्यता के लिए विख्यात है। औरंगाबाद से 18 किलोमिटर दूर यह मंदिर करीब सौ फीट ऊंचा है, जो आयताकार, वर्गाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि आकारों में काटकर जोड़े गए काले व भूरे पत्थरों की बेजोड़ शिल्पकारी का नमूना है। ओडि़शा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर की वास्तुकला से मिलता-जुलता यह सूर्य मंदिर देश का ऐसा एकमात्र ज्ञात मंदिर है, जिसका दरवाजा पूरब के बजाय पश्चिम की ओर है। मंदिर में सूर्य की सप्त किरणों की प्रतीक सात रथों वाले प्रस्तर मूर्तियां सूर्य के तीनों रूप-बिंबों उदयाचल (सुबह), मध्याचल (दोपहर) और अस्ताचल (शाम) में हंै। मंदिर के बाहर शिलालेख पर ब्राह्मी लिपि में संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण श्लोक में इसके निर्माण काल का जिक्र है। हालांकि मंदिर के निर्माण काल के बारे में अतिरेक में मीडिया में भी हास्यास्पद भ्रम फैलाया गया है कि यह मंदिर लाखों साल पहले बनाया गया। ऐतिहासिक सत्य यह है कि इस मंदिर का आरंभिक निर्माण 8वींसदी में आदित्य सेन ने और 10वी सदी में राजा ऐल (ईला पुत्र पुरुरवा ऐल नही, बल्कि पलामू के राजा नौरंगशाह देव के वंशज) ने रथी सूर्य प्रतिमा का निर्माण कराया था। 19वींसदी में उमंगा राजवंश के प्रविल कुमार सिंह ने मंदिर का जिर्णोद्धार किया था।
महानद सोन तट पर विराट दृश्य
देश की तीन नदियों सोन, सिंधु और ब्रह्म्ïापुत्र को भारतीय वाग्मय में इनकी चौड़ाई के कारण नद की संज्ञा दी गई है। डेहरी-आन-सोन सोन नद के तट पर बसा सबसे बड़ा शहर है, जहां सोन का पाट तीन किलोमीटर चौड़ा है। यहां छठ का उत्सवी का दृश्य अपने सबसे विराट रूप में होता है, जहां शहरवासी लाखों की संख्या में एक साथ सोन तट पर एकत्र होते हैं। सोन तट पर व्रतियों द्वाारा जल-अर्पण के लिए घाट बनाए जाने से संबंधित तैयारियां (रोशनी, सफाई, फल वितरण, जनसंपर्क शिविर आदि) विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाएं करती हैं और सुरक्षा का व्यापक प्रबंध प्रशासन व पुलिस द्वारा किया जाता है।
(इनपुट व तस्वीरें : दाऊदनगर (औरंगाबाद) से वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र कश्यप,
डेहरी-आन-सोन (रोहतास) से सोनमाटीडाटकाम के प्रबंध संपादक निशांत राज)
बहुत सुंदर एवम ज्ञान वर्धक आलेख छठ महापर्व के विषय में सटीक जानकारी हेतु बधाई