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पानी बैंक की पूंजी बढ़ाने का मौसम

दिल्ली कार्यालय, देहरादून से मुद्रित-प्रकाशित समय-सत्ता-संघर्ष की राष्ट्रीय हिन्दी पाक्षिक चाणक्य मंत्र के नए अंक (16-31 जुलाई) में—-
पानी बैंक की पूंजी बढ़ाने का मौसम (पेज 24, 25)
– कृष्ण किसलय, वरिष्ठ पत्रकार

बिहार से विशेष :
– देश में जलसंकट अनुमान से कहीं ज्यादा
– जल उपलब्धता की वस्तुस्थिति पता होने के बावजूद बड़े कदम नहीं उठा जा रहे
– प्रधानमंत्री नरेंद्र मोद मन की बात कार्यक्रम में जता चुके हैं चिंता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बार मासिक रेडियो कार्यक्रम (मन की बात) में देशवासियों को संबोधित करते हुए देश-दुनिया के सामने मंडरा रहे भयानक पेयजल संकट की ओर ध्यान दिलाया और कहा कि भारत में बारिश के पानी का संचय करने की संस्कृति के अभाव में बहुत ज्यादा पानी बर्बाद हो जाता है। बाद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट पेश करने के दौरान यह जानकारी दी कि देश के 256 जिलों में जल प्रबंधन की स्थिति बेहद दयनीय है। प्रधानमंत्री ने पानी संरक्षण के लिए तीन सुझाव दिए कि इसे जन आंदोलन का रूप देने, पारंपरिक तरीकों के इस्तेमाल को बढ़ाने और जल संरक्षण की जानकारियां लोगों से शेयर करने की जरूरत है।

जलसंकट अनुमान से कहीं ज्यादा
वास्तव में देश में जल संकट अनुमान से कहीं ज्यादा है। चीन ने तो पानी की उपलब्धता 1500 घन मीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष पहुंचते ही वाटर इमरजेंसी का ऐलान कर दिया था। जबकि भारत में जल उपलब्धता इससे भी नीचे होने के बावजूद हम इत्मीनान में हैं। बिहार में तो इस साल स्थिति पिछले साल से भी बदतर है। जून में प्रदेश के 80 फीसदी जलाशय पूरी तरह सूख गए। 20 फीसदी जलाशयों में भी पानी दो से बीस फीसदी तक ही बचा रहा। राज्य के 23 जिलों की 48 नदियों पर बने 11 जलाशयों के बेसिन में बालू ही बालू नजर आता रहा। राज्य मत्स्य निदेशालय और लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग के आंकड़ों के अनुसार, राज्य की छोटी-बड़ी 150 नदियों में 48 सूख चुकी हैं। इनमें बारिश के मौसम में ही पानी दिखता है। राज्य में सरकारी और निजी तालाब 98401 की संख्या में बचे रह गए है। जबकि पिछली सदी के अंत तक करीब ढाई लाख तालाब थे। राज्य के 8386 ग्राम पंचायतों में से 1876 में भूजल-स्तर बहुत नीचे जा चुका है। इस साल जून में साढ़े चार लाख सरकारी चापाकल (हैंडपंप) सूखे पाए गए।
बिहार में बारिश सामान्य से काफी कम हो रही है। पिछले साल 571 मिलीमीटर ही बारिश हुई थी। इस साल भी मानसून के कमजोर होने से बारिश कम होने के आसार हैं। राज्य में पिछली सदी में औसत बारिश एक हजार मिलीमीटर के करीब होती थी। मगर दो दशकों से बारिश 500 से 800 मिलीमीटर के बीच ही हुई है। कम बारिश होने का नतीजा यह हुआ है कि धान का बिचड़ा डाले जाने के आद्र्रा नक्षत्र के वक्त आरंभिक सिंचाई के लिए बिहार की सबसे बड़ी सोन नहर प्रणाली में पानी ही नहीं था। जुलाई के दूसरे सप्ताह में बारिश होने पर सोन नहर प्रणाली के इंद्रपुरी जलाशय में पानी जमा होने के बाद 14076 क्यूसेक (घनमीटर प्रति सेकेेंड) की दर से छोड़ा गया।

सोन नद मे सागर जैसा रहता था लबालब पानी, चलते थे पांच हजार स्टीमर
19वीं सदी के पूर्वाद्र्ध तक सोन नदी सालभर पानी से इतना लबालब रहता था कि नौ परिवहन के लिए 4547 माल वाहक और 530 यात्री वाहक भापइंजन चालित स्टीमर रजिस्टर्ड थे, जो सोन नहरों के जरिये गंगा नदी में उतरते थे। जलसंकट ऐसा हुआ कि 20वींसदी के उत्तराद्ध4 में ही विश्वप्रसिद्ध स्वेज नहरों की तरह दिखने वाली विश्वविश्रुत सोन नहर प्रणाली में जल परिवहन बंद होकर इतिहास का विषय बन गया और अब 21वींसदी में खेती के लिए पानी कम पडऩे लगा है। बिहार के दक्षिणी हिस्से में बिन्ध्य पर्वतश्रृंखला से उतरने के बाद गंगा में मिलने तक अपनी तीन किलोमीटर चौड़ी पाट के कारण नद की संज्ञा प्राप्त पानी से लबालब सोन नदी गुजरी सदियों में समुद्र की तरह दिखा करती थी। भरपूर पानी होने के कारण ही रोहतास जिला के डेहरी-आन-सोन में वर्ष 1874 मेंंसोन नदी पर बियर (बंधार) बनाकर एनिकट का निर्माण किया गया और उसके दोनों सिरों से सिंचाई का पानी पहुंचाने के लिए नहरें निकाली गईं। सोन नहरों से सिंचित राज्य के आठ जिलों रोहतास, कैमूर, बक्सर, भोजपुर, औरंगाबाद, अरवल, जहानाबाद, पटना के नौ लाख हेक्टेयर खेत का यह इलाका देशभर में धान का कटोरा के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

सोन तट के शहर डेहरी-आन-सोन में भी भूमिगत जलस्तर जा रहा नीचे
राज्य में नदियों-जलाशयों के सूखने का असर खेती के साथ भूजलस्तर पर पड़ा है। भूजलस्तर के नीचे जाने की वजह जमीन का बारिश के पानी से री-चार्ज नहीं होना है। एशिया प्रसिद्ध विशाल कारखानों के साढ़े तीन दशक पहले बंद हो जाने के बावजूद तीन किलोमीटर चौड़ी पाट वाली सोन नदी के तट पर बसे शहर डेहरी-आन-सोन में भी भूभिगत जलस्तर बहुत नीचे जा चुका है। जबकि यहां पिछली सदी में पानी 20 से 30 फीट जमीन के नीचे ही उपलब्ध था। ऐसा घर-घर में लग गए समरसिबल मोटर से जमीन के भीतर से पानी खींचने के कारण भी हुआ है। तय है कि एक दिन ऐसा आएगा कि सोन के इस शहर में भी जमीन के भीतर का पानी चूक जाएगा। नीति आयोग के आकलन के अनुसार, देश के 21 शहरों में भूजल वर्ष 2020 तक ही खत्म होने जा रहा है और वर्ष 2030 तक तो देश की 40 फीसदी आबादी गंभीर पेयजल समस्या की चपेट में होगी।
देश की जीवनरेखा नदी गंगा पर भी मंडरा खतरा
उत्तराखंड में भी कार्यरत जलपुरुष नाम से ख्यात अंतरराष्ट्रीय मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त राजेन्द्र सिंह ने पिछले महीनों बिहार से गुजरते हुए गंगा नदी के उद्गम-स्थल गंगोत्री (उत्तराखंड) से गंगासागर (पश्चिम बंगाल) के करीब तक की यात्रा कर सर्वेक्षण किया है। इनकी यात्रा का निष्कर्ष है कि आजादी के बाद देश के दो-तिहाई जलभंडार और तीस फीसदी नदियां सूख गई हंै, जिनमें बारिश के मौसम में ही पानी दिखता है। आजादी के समय करीब 30 लाख जलभंडार (पोखर, तालाब, कुएं, झील, झरना-नाला आदि) थे और करीब 15 हजार नदियां थीं। इनमें 20 लाख जलभंडार और करीब साढ़े चार हजार नदियां पूरी तरह सूख चुकी हैं, जो पहले साल भर सदानीरा रहती थीं। बिहार से गुजरने वाली देश की जीवनरेखा नदी गंगा के अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा है। इससे बिहार की गंगाघाटी में भी फसलों की पैदावार, बिजली उत्पादन आदि पर असर पड़ेगा।
ग्लोबल वार्मिंग बढ़ता जा रहा है और मानसून बिगड़ चुका है। इस बार फिर देश में सूखे का खतरा मंडरा रहा है, क्योंकि जून में 33 फीसदी कम बारिश हुई। जुलाई में भी कम बारिश के ही आसार हैं। लोग पानी को लेकर लापरवाह हैं। पानी बचाने की कवायद और शोर गर्मी के मौसम में मई-जून में होती दिखती है। मगर बारिश शुरू होते ही सब कुछ ढीला पड़ जाता है। प्रधानमंत्री के पानी के मुद्दे को जन आंदोलन बनाने का आशय यही है कि समस्या बहुत गंभीर है और सरकार के बूते इसका निदान संभव नहीं है। इस समस्या के निदान का एक सिरा सरकार के पास होना चाहिए और दूसरा सिरा आम जनता के पास होना चाहिए। हालांकि जल प्रबंधन राज्यों का विषय है और अलग-अलग राज्यों में अनेक नियम भी हैं, मगर उनका पालन कड़ाई से नहीं होता।
एनजीटी ने केेंद्र सरकार को कहा, नियंत्रित किए जाएं आरओ
आसन्न जलसंकट से निपटने के लिए ही सुप्रीम कोर्ट के तहत कार्य करने वाली एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) ने भूमिगत जल का दोहन कर चलने वाले पानी आपूर्ति के उपक्रमों के लिए केेंद्र सरकार को नीति बनाने का निर्देश दिया है और कहा है कि जिन इलाकों में पानी ज्यादा खारा नहीं है, वहां रिवर्स ओस्मोसिस (आरओ) उपकरणों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध होना चाहिए। एनजीटी के अध्यक्ष न्यायाधीश आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ ने एनजीटी द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट के आधार पर आदेश दिया है कि जिन जगहों पर पानी में टीडीएस (टोटल डिजाल्व्ड सालिड) की मात्रा 500 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम है, वहां घरों में सप्लाई होने वाले नल का पानी सीधे पिया जा सकता है। एनजीटी ने कहा है कि लोगों को मिनरल वाले पानी से सेहत को होने वाले नुकसान के बारे में भी बताया जाना चाहिए, क्योंकि टीडीएस 500 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम होने पर पानी से महत्वपूर्ण खनिज निकल जाते हैं, जो शरीर के लिए नुकसानदायी और बीमारी को आमंत्रित करने वाला हो सकता है। एनजीटी द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट के अनुसार, टीडीएस की मात्रा का कम और अधिक होना दोनों सेहत के लिए ठीक नहींहैं। 350 टीडीएस मात्रा वाला पानी के उपयोग से बाल झड़ सकता है, हार्टअटैक हो सकता है और मांसपेशी, हड्डी को नुकसान पहुंच सकता है। आरओ से निकलने वाले रिजेक्ट पानी को बर्बाद करने के बजाय उसका इस्तेमाल बर्तनों की धुलाई, फ्लशिंग, बागवानी, गाड़ी, फर्श की धुलाई आदि में होने का प्रावधान होना चाहिए।

मुफ्त में मिलने वाला पानी दूध के दाम पर, भविष्य में पीने का पानी नहीं होगा मयस्सर
हजारों सालों से आम आदमी को मुफ्त मिलने वाला पानी आज खरीदी-बेची जाने वाली चीज बन गई है। पानी का धंधा सबसे मुनाफा वाला धंधा है, क्योंकि जमीन से पानी का दोहन कर बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसे दूध के दाम पर बेच रही हैं। पानी पर आम आदमी का प्राकृतिक अधिकार धीरे-धीरे छीनता जा रहा है और पानी की किल्लत से सिंचाई, खेती, उपज, खाद्य व्यवस्था का दम घुटता जा रहा है। आज देश में 16 करोड़ से अधिक आबादी को पीने के लिए साफ पानी मयस्सर नहीं है। फिर भी पानी संग्रह की संस्कृति का बीजारोपण समाज में बतौर फैशन नहीं हो सका है। जबकि कई देश इस दिशा में पहल बहुत पहले शुरू कर चुके हैं। साल भर में अमेरिका में छह हजार घनमीटर और चीन में ढाई हजार घनमीटर पानी जमा किया जाता है।
भारत में वर्षा जल सिर्फ 200 घन मीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ही संग्रहित हो पाता है। बारिश का बाकी पानी बहकर समुद्र के खारे पानी में जा मिलता है। जलसंकट पर पार्थ सारथी आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, देश में इस सदी के आरंभ में सिंचाई, घरेलू उपयोग, ऊर्जा, उद्योग आदि के लिए छह हजार घननीटर से अधिक वार्षिक की मांग थी। इन कामों के लिए अब आठ हजार घनमीटर से अधिक पानी की जरूरत है। जाहिर है, पैसा-पैसा जोडऩे की तरह बारिश के पानी के बूंद-बूंद को जमा नहीं किया गया तो तय है कि निकट भविष्य में ही बिहार के अनेक हिस्सों में पीने का पानी मयस्सर नहीं होगा।

पृथ्वी के जीवनदायी पानी पर चौतरफा संकट
पृथ्वी पर पानी का गणित यह है कि 100 फीसदी में 97 फीसदी जल समुद्र के रूप में है, जिसका पानी खारा है और पीने-नहाने योग्य नहींहै। मीठा जल पृथ्वी पर सिर्फ तीन फीसदी है, जिसमें दो फीसदी हिमनदों के रूप में है। धरती पर हिमनदों के तीन बड़े स्थल दक्षिणी ध्रुव, उत्तरी ध्रुव और हिमालय हैं। एक फीसदी भूजल में आधी फीसदी धरती की सतह पर नदी, तालाब, झील के रूप में मौजूद है। इस आधी फीसदी जल से ही पृथ्वी हरी-भरी रही है। मगर इस आधी फीसदी में 90 फीसदी का इस्तेमाल खेती, कारखानों आदि के लिए होता है। इस आधी फीसदी के 10 फीसदी से ही शहरों-गांवों में पेयजल मिलता है। धरती पर मौजूद कुल पानी के आधी फीसदी यानी भूजल का 80 फीसदी तक दोहन किया जा चुका है, क्योंकि भूजल का दोहन खेती, कारखाना और घरों के लिए होता है। जाहिर है कि भूजल अब कोई अनंत भंडार नहींरह गया है। जमीन के भीतर बारिश के पानी का पहुंचना बंद हुआ तो धरती उजड़ जाएगी, पृथ्वी मर जाएगी।
एक तरफ, बारिश के कम होने से भूजलस्तर नीचे गिरता जा रहा है अर्थात खत्म होता जा रहा है। दूसरी तरफ, ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमनदों (ग्लेशियर) पर स्नो फाल के रूप में जमा बर्फ (यानी शुद्ध पानी) तेजी से पिघल कर नदियों के रास्ते में समुद्र में जा रहा है। यह तय है कि गंगा, यमुना, सिंधु, ब्रह्म्ïापुत्र जैसी सदानीरा महान नदियां अगली सदियों में बरसाती नाले में तब्दील होकर हड़प्पा वैदिक कालीन सरस्वती नदी की तरह लुप्त हो जाएंगी। हिमनदों के तेजी से पिघलने से आने वाले दशकों-सदियों में कहीं बाढ़, कहीं सूखा का नजारा हर तरफ फैला होगा।
डूब जाएगा शाहरूख खान का बंगला, समुद्र में समा जाएंगे मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता
हिमनदों के तेजी से पिघलने से समुद्र जलस्तर भी तेजी से बढ़ रहा है। अगले दस सालों में (2030 तक) ही समुद्र जलस्तर एक मीटर ऊपर हो जाएगा। अगर समुद्र का जलस्तर डेढ़ मीटर तक उठ गया तो मुम्बई में गेटवे आफ इंडिया तक समुद्र का पानी पहुंच जाएगा और शाहरूख खान का बंगला जन्नत जमसमाधि ले लेगा। गर्मी के बढऩे की मौजूदा दर कायम रही तो इस सदी के बीतते-बीतते मुंबई, चेन्नई, कोलकाता उसी तरह सागर में समा जाएंगे, जिस तरह प्रागैतिहासिक काल के द्वापर युग में कृष्ण की क्रीड़ा-भूमि द्वारिका नगर समा गई।
वैश्विक तापमान का रिकार्ड 1890 से रखा जा रहा है। नासा गैडार्ड इंस्टीट्यूट फार स्पेस स्टडीज ने बताया है कि इस सदी के अंत तक तापमान 6 डिग्री तक बढ़ सकता है। ऐसा पृथ्वी पर सवा लाख साल में पहली बार होने जा रहा है। स्नो केमेस्ट्री अध्ययन में पाया गया है कि तिब्बत का पठार के वायुमंडल का तापमान हर दशक औसतन 0.42 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ रहा है। तिब्बत का पठार विश्व में मौसम मापने का एक पैमाना प्वाइंट है, जिस पर 1980 से निगाह रखी जा रही है। वाडिया इंस्टीट्यूट अफ हिमालयन जियोलाजी के वैज्ञानिकों के अनुसार, हर साल बढऩे वाली हिमालय की चोटी भी छोटी हो रही है। हिंदूकुश-हिमालय असेसमेंट नामक वैज्ञानिक अध्ययन में बताया गया है कि इस सदी तक वैश्विक तापमान अगर 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा तो इन दोनों पर्वतमालाओं के एक-तिहाई ग्लेशियर और तापमान में बढ़ोतरी 2 डिग्री सेल्सियस हुई तो दो-तिहाई ग्लेशियर नहीं रहेंगे।
ग्लोबल वार्मिंग ने बिगाड़ दिया मानसून, मानवीय गतिविधियां इसकी वजह 
बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग ने सदियों से स्थिर मानसून को बिगाड़ दिया है। इस बार फिर बिहार सहित देशभर में सूखे का खतरा मंडरा रहा है। जून में 33 फीसदी कम बारिश हुई। जुलाई में कम बारिश के ही आसार हैं। मेलबर्न (आस्ट्रेलिया)ï के वैज्ञानिक डेविड स्प्राट और लैन डनलप के नेतृत्व में जारी नई शोध रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक ही पर्यावरण खतरनाक स्तर तक पहुंच जाएगा, जहां से फिर वापसी संभव नहींहोगी। ब्रेकथ्रू नेशनल सेंटर फार क्लाइमेट री-स्टोरेशन की इस रिपोर्ट में माना गया है कि इस सदी तक वैश्विक तापमान 05 डिग्री अधिक हो जाएगा और वर्ष 2050 से ही पृथ्वी पर जीवन तेजी से समाप्त होने लगेगा। पृथ्वी के सूर्य परिक्रमा पथ में परिवर्तन ग्लोबल वार्मिंग की सबसे बड़ी वजह है, जो ब्रह्म्ïाांड-संचलन की अपरिहार्य प्राकृतिक प्रक्रिया है। मगर मानवीय गतिविधियां भी पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि की वजह है। वर्ष 2015 के अंतरराष्ट्रीय पेरिस समझौते में तय हुआ था कि इस सदी में वैश्विक तापमान दो डिग्री से ज्यादा नहीं बढऩे दिया जाएगा। मगर सच्चाई है कि इस दिशा में ठोस कदम किसी देश ने नहीं उठाया।

– कृष्ण किसलय, वरिष्ठ पत्रकार

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