आईयूसीएन की विलुप्तप्राय प्राणी लिस्ट में है हाथी !
(विचार/समाचार विश्लेषण)
-0 कृष्ण किसलय 0-
समूह संपादक, सोनमाटी मीडिया समूह
केरल के साइलेंट वैली जंगल की 16 वर्षीय भूखी गर्भवती हथिनी की विस्फोटक फल (अनानस) खा लेने से हुई मौत के बाद वन्यजीवप्रेमियों का उद्वेलित होना स्वाभाविक है। केरल के नीलाम्बुर खंड के वन अधिकारी मोहन कृष्णन ने इस संबंध में अपने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा, खाने की तलाश में जंगल से भटक कर आबादी के करीब सड़क से गुजरती हुई भूखी गर्भवती हथिनी के सामने किसी ने विस्फोटक भरा अनानास रख दिया, जो उसके मुंह में फट गया और घायल हथिनी की मृत्यु एक सप्ताह बाद 27 मई को वेल्लियार नदी में कई घंटे खड़े रहने बाद हो गई। विश्व पर्यावरण दिवस पर वल्र्ड एनिमल प्रोटेक्शन की भारतीय इकाई के साथ देश के वन्यजीव प्रेमियों-विशेषज्ञों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भारत के इस राष्ट्रीय विरासत पशु को शिकारियों से बचाने के लिए कड़े उपाय करने और जंगली जानवरों के शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की अपील की है। यह भी मांग की गई है कि प्रधानमंत्री आगामी जी-20 शिखर सम्मेलन में भारत की ओर से वन्यजीवों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर प्रतिबंध का आह्वान करें। माना जा रहा है कि हथिनी की मौत वन्यजीव तस्करी के गिरोह से जुड़े किसी व्यक्ति का कृत्य भी हो सकता है।
आदमी उजाड़ता रहा है वन्यजीवों का घर-जंगल :
दरअसल जंगल के समस्त वनस्पति और जीव पृथ्वी पर जैव विविधता के प्राकृतिक विस्तार हैं। पर्यावरण संतुलन में हर जीव की अपनी प्राकृतिक भूमिका होती है। आदमी भी 15-20 हजार साल पूर्व तक आग, वाणी, उपकरणों की तकनीक से लैस होने से पहले इसी जैवविविधता का हिस्सा था। मगर आग पर नियंत्रण के गरूर, वाणी के विकास के गुमान और उपकरणों की ईजाद के बूते हजारों साल पहले जंगल से अलग हुआ आदमी जाने-अनजाने भोजन, खेती, मकान, युद्ध, कारखाना आदि के लिए बेरोकटोक जंगल उजाड़ता और बेरहमी से जंगली जानवरों का शिकार करता रहा है। गुजरी सदियों में पर्यावरण असंतुलन की हदें पार हो गईं और पारिस्थितिकी-तंत्र के ज्ञान का विस्तार हुआ तो आदमी ने जाना कि पर्यावरण संतुलन, कार्बन-डाइ-आक्साइड से मुक्ति और प्राणवायु आक्सीजन की प्राप्ति के लिए भौगोलिक क्षेत्र के एक-तिहाई हिस्से यानी 33 फीसदी क्षेत्र में वनावरण या हरियाली होनी चाहिए। तब जाकर जंगल के दोहन पर अंकुश लगा और जंगल बचाने, वन्यजीवों की रक्षा करने की जरूरत महसूस हुई। पौधरोपण के दशकों के प्रयास के बावजूद आज देश के 24 फीसदी भूभाग में ही वनावरण या हरियाली है। बिहार में तो बमुश्किल 07 फीसदी जंगल बचा हुआ है।
उत्तराखंड है एशियाई हाथियों की अंतिम सीमा :
संकटग्रस्त वन्यप्राणियों की शीर्ष सूची में शामिल हाथी के संरक्षण के लिए भारत सरकार वर्ष 1992 से प्रोजेक्ट एलीफैैंट चला रही है। दक्षिण एशिया में पूरब-दक्षिण में इंडोनेशिया के बोर्नियो द्वीप से पश्चिम-उत्तर में हिमालय की तलहटी तक पाए जाने वाले हाथी (एशियाई) की पृथ्वी पर अंतिम उत्तरी-पश्चिमी वास-सीमा उत्तराखंड है, जिसके बाद जंगल में इस भीमकाय 4-5 टन वजनी पशु की मौजूदगी नहीं है। देश के 20 राज्यों के जंगलों में हाथी हैं, जिनमें दक्षिण भारत में कर्नाटक में और उत्तर भारत में उत्तराखंड में इनकी संख्या सबसे अधिक हैं। बिहार के जंगल में तो कोई दो दर्जन ही हाथी हैं। दिन में घोड़ा की तरह खड़ा-खड़ा 4-5 घंटा सोकर कोई 75 साल जीने वाला हाथी (वयस्क) को हर रोज 300 किलो भोजन (वनस्पति) और 150 लीटर साफ पानी चाहिए। हाथी धीमी फुसफुसाहट की आवाज में लंबी दूरी से भी एक-दूसरे से संवाद कर लेते है, जिसे सुन पाने में आदमी के कान सक्षम नहीं हैं। हाथियों के उत्तरी-पश्चिमी सीमांत क्षेत्र उत्तराखंड के राजाजी राष्ट्रीय पार्क में भी प्रोजेक्ट एलीफैैंट के अंतर्गत हाथी संरक्षण के प्रबंध हैं, जहां 500 से अधिक हाथियों का वास है। वर्ष 1983 में स्थापित 820 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के इस संरक्षित जंगल में एक हाथी के लिए करीब 1.8 वर्ग किलोमीटर जंगल क्षेत्र उपलब्ध है। जब वर्ष 1992 में प्रोजेक्ट एलीफैैंट शुरू हुई, तब देश के जंगलों में 15 हजार हाथी बचे हुए थे।
कुलमाता करती है हाथियों के झुंड का नेतृत्व :
सदियों पहले आदमी द्वारा जंगलों का अतिक्रमण आज जैसा नहीं था। तब हाथियों के झुंड सैकड़ों किलोमीटर तक निर्बाध यात्रा करते और भोजन, यौन-संबंध असंतुलन की पूर्ति एक वन क्षेत्र से निकलकर सैकड़ों किलोमीटर दूर दूसरे वन क्षेत्र में जाकर करते थे। जंगल का सबसे बुद्धिमान जीव हाथी अपनी जबर्दस्त स्मरणशक्ति से जंगल के रास्तों और वनस्पतियों की बेहतर पहचान रखता है। हाथियों के झुंड का नेतृत्व सबसे उम्रदराज कुलमाता करती है। झुंड में सबसे ऊंची दिखने वाली हथिनी ही कुलमाता होती है, क्योंकि हाथी की लंबाई ताउम्र बढ़ती रहती है। हाथियों के झुंड में दूधमुंहे बच्चे से 12 साल तक के नर और सभी उम्र की मादाएं होती हैं। मादा चार साल के अंतराल पर गर्भ धारण करती है और एक बार में एक शिशु को जन्म देती है। मादा का गर्भकाल 22 महीनों का होता है। नर हाथी वयस्क होने पर खुद ही मादाओं का झुंड छोड़ देता है या मादाएं ऐसे नर को झुंड से अलग होने पर बाध्य करती हैं। मादाओं-नाबालिगों के बड़े झुंड से अलग हुआ हाथी नर हाथियों की अपेक्षाकृत छोटे झुंड में जा मिलता है।
शक्ति प्रदर्शन से तय होता है पद-क्रम :
वयस्क नर साल में कुछ हफ्तों के लिए मस्त-अवस्था में होता है और उसके आंख-कान के बीच से गाढ़ा द्रव रिसने लगता है। नर मस्त-अवस्था में मादाओं के झुंड में प्रवेशकर यौन संबंध योग्य हथिनी की तलाश करता है। इसका निर्णय नर हाथी मादा के गंध-स्राव से करता है, क्योंकि मादा साल भर में दो-तीन दिन के लिए ही प्रजनन-सहवास के लिए तैयार होती है। इस विषम प्राकृतिक जैविक परिस्थिति के कारण एक समय में दो नर हाथियों को सहजता से दो मादा हथिनी नहीं मिल पाती। इस स्थिति में दो नरों में पहले से पद-क्रम तय नहीं हो तो उनमें द्वद्व-युद्ध होना तय है। नर-झुंड के हाथी आपस में शक्ति प्रदर्शन कर अपना पद-क्रम तय करते हैं। मादा पर कब्जे के लिए नर आपस में द्वद्व-युद्ध करते हैं। दो में से कोई द्वद्व-युद्ध में पीछे नहीं हटा तो एक को प्राण की आहुति देनी पड़ती है।
हाथी संरक्षण परियोजना से 28 हजार हुए हाथी
हाथियों के नर-मादा लिंग-अनुपात में चिंताजनक असंतुलन और इनकी संख्या वृद्धि की स्थिति से आकलन किया गया है कि यह भीमकाय जीव धरती पर कम समय का मेहमान है। इंटरनेशनल यूनियन फार कंजर्वेशन आफ नेचर (आईयूसीएन) एशियाई हाथियों की संख्या में लगातार तीन-चार पीढिय़ों में करीब 50 फीसदी गिरावट के कारण इस प्रजाति को वर्ष 1986 में ही पृथ्वी के विलुप्तप्राय जीवों की सूची में शामिल कर चुकी है। एशिया के देशों के जंगलों में इनकी संख्या करीब 60 हजार ही बच रही है। भारतीय उपमहाद्वीप पर कभी लाखों की संख्या में मौजूद हाथी आज हजारों की संख्या में सिमट गए हैं। हालांकि हाथी संरक्षण की परियोजना (प्रोजेक्ट एलीफैैंट) से देश के जंगलों में अब करीब 28 हजार हाथी हैं। जंगल यानी वास-स्थल का तेजी से क्षरण होने और आबादी (आदमी) का विस्तार जंगल तक हो जाने से भोजन की तलाश में हाथी जंगल से बाहर निकल कर आबादी तक चले आते हैं। शिकारी हर साल दांत की तस्करी के लिए देश में सौ से अधिक नर हाथियों को मार डालते हैं। हाथी के दांत की तस्करी विदेशों तक होती है, जिसकी लाखों रुपये कीमत मिलती है। वन्यजीवों के अंगों की तस्करी के भूमिगत कारोबार का अंतरराष्ट्रीय नेटर्वक सोना की तस्करी से भी बड़ा है।
…और आधिकारिक वेबसाइट पर अप्रैल फूल की यह तस्वीर !
ऊपर पोस्ट की गई शेरनी और उसके शावक को अपनी सूंढ़ के आगोश में लिए हाथी की यह तस्वीर दरअसल एक अप्रैल-फूल है। मगर यह तस्वीर दक्षिण अफ्रीका के क्रूगर नेशनल पार्क की आधिकारिक ट्विटर साइट पर वन्यजीव संरक्षण के नजरिये से वर्ष 2018 में 01 अप्रैल को पोस्ट की गई थी। दुनियाभर में वायरल हुई यह तस्वीर विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर 05 जून को ज्यादा शेयर की गई। इस तस्वीर का हाथी, जो पृथ्वी की दूसरी अफ्रीकी प्रजाति का है। हाथी की अफ्रीकी प्रजाति (लोक्सोडोंटा अफ्रीकाना) का कुल-खानदान एशियाई हाथी प्रजाति (एलिफस मैक्सीमस) के कुल-खानदान से अलग है। दोनों के कुल-खानदान जैविक विक्रास-क्रम के हिसाब से 76 लाख साल पहले एक ही थे। एशियाई हाथी का कान छोटा और माथा चौड़ा होता है। अफ्रीकी हाथी एशियाई हाथी से डेढग़ुना ज्यादा वजनी (6-7 टन) और ज्यादा ऊंचा भी होता है। अफ्रीकी हाथी में मादा के भी बाहर दिखने वाले दांत होते हैं। अफ्रीकी हाथी पृथ्वी के लुप्तप्राय जीव की श्रेणी में शामिल नहीं है, क्योंकि वन्यजीव वैज्ञानिकों और प्रकृति संरक्षण की अंतरराष्ट्रीय संस्था आईयूसीएन ने इसकी संख्या 06 लाख होने से इसे अभी संकटग्रस्त नहीं माना है।
तस्वीर संयोजन : निशांत राज, प्रबंध संपादक, सोनमाटी मीडिया समूह
पेड़ पुत्र समान, संरक्षण हमारा सामाजिक दायित्व : गोपालनारायण सिंह
डेहरी-आन-सोन (रोहतास)-विशेष संवाददाता। राज्यसभा सांसद और गोपालनारायण सिंह विश्वविद्यालय (जीएनएसयू) के कुलाधिपति गोपाल नारायण सिंह ने कहा कि पेड़ किसी परिवार के लिए पुत्र के समान है। यह फल देता है, आक्सीजन देता है और उम्र पूरी कर लेने के बाद ईमारती या जलावन की लकड़ी देता है। पेड़ प्राणवायु आक्सीजन का निर्माण कर वातावरण में छोड़ता है और अपने लिए कार्बन-डाइ-आक्साइड को सोखता है, जो वातावरण में आदमी और दूसरे जीव-जंतुओं द्वारा छोड़ी गई होती है। इसलिए पेड़ की रक्षा और पौधरोपण हमारा सामाजिक दायित्व है। श्री सिंह ने यह बात जीएनएसयू के कृषि विज्ञान संस्थान द्वारा विश्व पर्यावरण दिवस पर आयोजित पौधरोपण कार्यक्रम के अवसर पर कही। कृषि विज्ञान संस्थान के निदेशक डा. रामप्रताप सिंह के नेतृत्व में विश्वविद्यालय परिसर में हजारों की संख्या में पौधरोपण किया गया। पौधरोपण कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के कुलपित डा. एमएल वर्मा, विश्वविद्यालय के प्रबंध निदेशक त्रिविक्रमनारायण सिंह, नारायण मेडिकल कालेज एंड हास्पिटल के प्राचार्य डा. एसएन सिन्हा, परीक्षा नियंत्रक डा. कुमार आलोक प्रताप, प्रबंध संस्थान के डीन डा. आलोक कुमार, सूचना तकनीक के विभागाध्यक्ष डा.अभिषेक श्रीवास्तव, बागवानी विभाग के प्रभारी डा. मौर्या, हड्डी रोग विशेषज्ञ डा.अंशुमान, सामुदायिक औषधि विभाग के प्रमुख डा. दिलीप यादव और अन्य विभागों के पदाधिकारी मौजूद थे।
रिपोर्ट, तस्वीर : भूपेंद्रनारायण सिंह, पीआरओ, जीएनएसयू
डेहरी से नौहट्टा तक हुआ पौधरोपण
डेहरी-आन-सोन (रोहतास)। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के वीरकुंवरसिंह विश्वविद्यालय के संयोजक यश उपाध्याय मनीष, स्वामी विवेकानंद यूथ क्लब के अध्यक्ष आमृतेश कुमार, राहुल कुमार आदि ने नेहरू युवा केेंद्र के सदस्यों के साथ जगजीवन कालेज और डालमियानगर उच्च विद्यालय के निकट पौधरोपण किया।
महादेवखोह में हुआ पौधरोपण
उधर, नौहट्टा (रोहतास) से प्राप्त समाचार के अनुसार, विश्व पर्यावरण दिवस पर हर साल की तरह महादेवखोह आश्रम में पौधरोपण कर गूलर, पीपल के साथ आम, खजूर, केला आदि फल देने वाले वृक्षों के पौधों का रोपण किया गया। आश्रम सेवक साधुबाबा के नेतृत्व में राधासुत सिन्हा, रामाशीष सिंह, मोहन चेरो, नगीना ठाकुर, हिरामन उरांव, करीमन उरांव आदि ने पौधरोपण किया।
(रिपोर्ट : व्हाट्सएप मैसेज के आधार पर)
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