डेहरी-आन-सोन (बिहार) । पूरे नेम-धरम (शुद्धता, स्वच्छता, आध्यात्मिक जीवनशैली) से मनाये जाने वाले चार दिवसीय महान छठ पर्व आज से यानी 8 नवंबर शुरू होकर 11 नवंबर को खत्म होगा। यह ऐसा पर्व है, जिसमें जीवंत देवता की और डूबते-उगते सूर्य की पूजा की जाती है। चार दिवसीय इस व्रत के पहले दिन (कार्तिक शुक्ल चतुर्थी) सुबह स्नान कर और धोती पहन कर व्रती सूर्य को प्रणाम करते हैं। इस दिन को नहाय-खाय कहा जाता है। चना दाल, अरवा चावल का भात और कद्दु (लौकी) की सब्जी शुद्धता से बनाकर व्रती व उनके परिवार के लोग खाते हैं। महिलाएं इस दिन अपने बाल नहीं बांधती और नाक से सिर के ऊपर मांग तक सिन्दूर करती हैं, जिसे जोड़ा मांग भरना कहा जाता है। दूसरे दिन को लोहंडा या खरना कहा जाता है। इस दिन शाम में मिट्टी के नये चूल्हे पर आम की लकडी की आग जलाकर पीतल के बर्तन में अरवा चावल का खीर बनता है। बिना बेलन के हाथ से ही रोटी कडाही में सेंकी जाती है। शाम में दीपक जलाकर पश्चिम की ओर रुख कर सूर्य के नाम पर अग्रासन (बना हुआ खीर-रोटी आदि) निकालने के बाद व्रती प्रसाद ग्रहण (भोजन) करते हैं और अन्य को भी खिलाते हैं। चांद की रोशनी रहने तक ही व्रती पानी पीते हैं और इसके बाद चौथे दिन सुबह पर्व के खत्म होने पर ही व्रती पानी पीते हैं। दूसरे दिन की रात शुद्ध घी में प्रसाद (ठेंकुआ, कसार आदि) बनाया जाता है। तीसरे दिन शाम में अस्ताचलगामी सूर्य को सात बार अघ्र्य दिया जाता है, जिसके लिए व्रती विभिन्न तरह के स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कंद-मूल व फलों से अपना सूप (अनाज फटकने के लिए बांस के पत्तर से बना हाथी के कान नुमा पात्र) में सजाते हैं और सूप को लेकर छठ के लोकगीत गाते हुए व्रती नदी या घाटों पर जाते हैं, जहां अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य अर्पित करने की परिक्रमा पूरी करते हैं। चौथे दिन सुबह नदी, तालाब या नहर के घाट पर उदयाचल सूर्य को अघ्र्य देने के साथ व्रत समाप्त होता है। इसके बाद व्रती पारण करते हैं अर्थात सबसे पहले तरल पेय (शरबत,चाय आदि) ठेंकुआ खाते पीते हैं।
वैदिक काल के पहले से जारी सूर्य-पूजन की यह प्राकृतिक परंपरा
चार दिनों के इस पर्व में संपूर्ण स्वच्छता-पवित्रता है। निर्जल-उपवास का व्रत और सोने के लिए कुश की चटाई एक तपस्या की तरह है। इसमें साक्षात देवता सूर्य है, नदी है, तालाब है, कुंआ है। अर्थात, इस बात की ज्ञान-समझ मौजूद है कि सूर्य ही धरती का जीवनदाता और जल ही जीवन है। पूजन सामग्री में वनोत्पाद कन्द-मूल (ओल, सुथनी), कोहड़ा, अदरख, ईंख, नारियल, केला, लौका (कद्दू), सूप (बांस) आदि की मौजूदगी बताता है कि यह पर्व खांटी देसी स्थानीय मूल का है। छठ मूल रूप से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में सूर्यपूजकों की आदिभूमि बिहार का पर्व है। यह सूर्य उपासना का दुनिया का सबसे प्राचीनतम केेंद्र है, जहां बिना पुरोहित, बिना यज्ञविधि और बिना शास्त्रीय विधान के सूर्य-पूजा की जाती है। इसीलिए छठ को बिहारियों (बिहार-झारखंड निवासी) का ही लोकपर्व माना जाता रहा है। यहां से लोग देश के जिस कोने में गए या विदेश में गए, वे वहां छठ करते रहे हैं। भले ही छठ का विधान (कर्मकांड, पूजा सामग्री आदि) और सांस्कृतिक रूप (लोकगीत, रसोई के उपकरण आदि) देश-काल-परिस्थिति के कारण बदल गए हों।
महर्षि च्यवन ने किया था सबसे पहले छठ व्रत
यह पौराणिक कहानी है कि औरंगाबाद के दाउदनगर अनुमंडल के देवकुंड (च्यवनाश्रम क्षेत्र) में पहली बार छठ किया गया। पंडित लालमोहन शास्त्री के अनुसार, महर्षि च्यवन की पत्नी सुकन्या ने छठ किया था और ऋषि को कुष्ठ से मुक्ति दिलाने के लिए अस्ताचल व उदयाचल सूर्य को अघ्र्य दिया था, जिससे ऋषि स्वस्थ हो गए थे।
पृथ्वी के हर जीवधारी का जीवनदाता है सूर्य
छठ व्रत पूरी तरह प्राकृतिक पूजा रही है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि पृथ्वी के सभी जीवधारी (आदमी, जंतु व वनस्पति) सूर्य किरणों से ही ऊर्जा प्राप्त कर जीवित हैं। सूर्य से ही जीवों को सीधे तौर पर विटामिन-डी प्राप्त होता है, जो हड्डियों के लिए और त्वचा रोग में लाभकारी है। धूप का सेवन-सहन सुबह-शाम ही कर पाना संभव है, क्योंकि सूर्य की अल्ट्रा वायलेट किरणें दोपहर में काफी तीखी होती हैं।