मगही के कबीर माने जाने वाले मथुरा प्रसाद नवीन का साक्षात्कार
प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से आजीवन जुड़े रहे और बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष भी रहे मथुरा प्रसाद नवीन ने विपुल लेखन किया है। उनके गीत जन आंदोलनों में गाए जाते रहे हैं। उनकी मगही कविताओं का लोकप्रिय संग्रह (राहे राह अन्हरिया कटतौ) का प्रकाशन 1990 में हुआ था। कवि-लेखक-पत्रकार मनोज कुमार झा ने मथुरा प्रसाद नवीन से उनके गांव बड़हिया (लखीसराय, बिहार) में उनसे लंबी बातचीत की थी और उनका साक्षात्कार लिया था। यहां प्रस्तुत है उस पुरानी बातचीत का संपादित अंश।
प्रश्न : प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से आप कब जुड़े? उत्तर : सन 54-55 में एक बार पटना में कवि सम्मेलन हुआ था। उसमें कन्हैया जी और दिल्ली के कुछ वरिष्ठ लोग थे। कन्हैया जी के चलते ही हम प्रगतिशील लेखक संघ में आए और तब से जुड़े रह गए।
प्रश्न : कन्हैया जी से आपका संपर्क कब हुआ? उत्तर : कन्हैया जी से कवि सम्मेलन में ही संपर्क हुआ। कवि सम्मेलन हिंदी साहित्य सम्मेलन में हो रहा था। उस समय दिनकर जी सभापति थे। सम्मेलन शुरू हो जाने पर यकायक कन्हैया जी आए। मंच पर उनके आने के बाद लोग बड़ी सराहना करने लगे उनकी। मैंने सोचा कि कौन आदमी है जिसकी सराहना इतनी हो रही है। इसके बाद उनकी रचना सुनी मैंने। लगाए यह आदमी बहुत अच्छा लिखने वाला है और कर्मयोगी है। और इसके बाद अच्छा संपर्क रहा। घरेलू संपर्क हो गया।
प्रश्न : जिस समय आप प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े, आपको याद है कि उस समय बिहार में क्या गतिविधियां होती थीं। उत्तर : उस समय पटना में प्रगतिशील लेखक संघ की एक पत्रिका निकलती थी। कुछ दिन चलने के बाद वह पत्रिका बंद हो गई। प्रलेस में दरार पडऩे लगा। धीरे-धीरे लोग बंट गए दो खेमे में। एक खेमा पटना प्रलेस के नाम से काम करने लगा। वह कारगर नहीं हुआ। लेकिन धीरे-धीरे हमलोग कमजोर पडऩे लगे। कमजोर पडऩे के बाद दो खेमे मे बंटने के बाद पत्रिका बंद हो गई।
प्रश्न : इसके पीछे कारण? उत्तर : दरार पडऩे का कारण था कुर्सी। सचिव, महासचिव बनने के लिए कुछ लोग चाहते थे कि हमारे सिवा दूसरा कोई नहीं हो।
प्रश्न : उस दौर में जब आप प्रलेस से जुड़े थे, उसके कार्यक्रमों का स्वरूप क्या होता था? उत्तर : जगह-जगह कवि सम्मेलन और साहित्यिक गोष्ठियां होती थीं। इससे नये लिखने वाले संगठन से जुड़ते थे।
प्रश्न : कवि सम्मेलनों से आप काफी दिनों से जुड़े रहे हैं। पहले जो स्थिति थी और अब जो है, उसमें क्या फर्क है? उत्तर : पहले सम्मेलन किसी पार्टी पर आधारित नहीं होता था। हर तरह के कवि उसमें भाग लेते थे। इसलिए भीड़ होती थी। आज खेमा बंट गया तो खेमे वाले ही कवि सम्मेलन कराते हैं। लोग भी बंट गए हैं। हमलोग रात-रात भर कविता सुनाते थे। लोग उठते नहीं थे। जाड़े के दिन में रजाई ओढ़ कर लोग कविता सुनते थे। अब आदमी जुटाना मुश्किल हो जाता है। उससे अच्छा हम गोष्ठी समझते हैं। दस-बीस आदमी ही आते हैं लेकिन बुद्धिजीवी होते हैं। कवि.सम्मेलन में अब सिनेमा के गीत लिखने वालों पर मेला जुटता है, ऐसे नहीं जुटता है।
प्रश्न : आजकल के नये कवियों को आप पढ़ते हैं? उत्तर : हां, नये कवियों को पढ़ते हैं। आडंबर साहित्य में बहुत ज्यादा घर कर गया है। नये-नये लेखक लोग, कवि लोग नये तरह से राह निकालना चाहते हैं।
प्रश्न : तो इस तरह के साहित्य की क्या भूमिका समझी जा सकती है? उत्तर : इस साहित्य की भूमिका कुछ नहीं है। इन लोगों की हॉबी है कि इसके माध्यम से हम आगे बढ़ जाएं। समाज में लोग पेट की भूख और बेकारी से परेशान हैं और ऊंचाई तक सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। जो बहुत अच्छी रचना है, बहुत ऊंचाई से लिखी गई है। लोग ये समझते हैं कि ये मेरी बात नहीं है, आम आदमी की बात कविता में नहीं है।
प्रश्न : आम लोगों के लिए कविता और खास लोगों के लिए कविता के क्या अलग-अलग मानदंड बनाए जा सकते हैं? प्रश्न : उत्तर : हां, आम लोगों के लिए कविता तो समाज का दर्पण है। जो समाज है, उसमें लिखने वाला जो व्यक्ति है, उसकी लड़ाई है पैसे वालों से। उसकी लड़ाई है धनवानों से। उसकी लड़ाई है धर्म के आडंबर से है। इस तरह की लड़ाई लडऩे वालों को समाज में बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है।
प्रश्न : आम लोगों के लिए जो साहित्य है, उसके प्रकाशन की व्यवस्था नहीं हो पाती है। उसका प्रसार नहीं हो पाता है। इस समस्या के बारे में आप क्या सोचते हैं? उत्तर : यह बड़ी समस्या है। सरस्वती और लक्ष्मी में संबंध पहले नहीं था। अब सरस्वती प्रवेश कर गई है लक्ष्मी के घर में और सरस्वती का जो उपासक है, वो बेचारा भटकता चला जा रहा है। नौबत है कि खरी-खरी सुनाने वाले कलमकार को भूखे रहना पड़ता है। पूरा चूल्हा घर में नहीं जलता है। कहें तो किससे कहें? समाज का स्तर अभी भी ऐसा है। समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे चला जााए?
प्रश्न : लेकिन प्रकाशन, वितरण और साहित्य के प्रचार का काम संगठन क्यों नहीं करता? उत्तर : करना चाहिए संगठन को। लेकिन संगठन में लोग कहां हैं? नाम का संगठन सब जगह बना हुआ है?
प्रश्न : खेमेबाजी की समस्या का क्या समाधान नहीं है? कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा है।
प्रश्न : संगठन में मज़दूर-किसानों के बीच से लोग नहीं आते हैं। एक वर्ग का आदमी दूसरे का मूल्यांकन कभी पूर्वाग्रह मुक्त होकर नहीं कर सकता। इस प्रवृत्ति की जड़ कहां है? उत्तर : कम संख्या है वैसे लोगों की जो कुछ करना चाहते हैं। प्रकाशन की व्यवस्था भी नहीं है। लोग टूट जाते हैं। अपने तरफ से, अपने इनकम से या पैसा कहीं से इक_ा कर कोई अपनी पुस्तक प्रकाशित कर ले तो संगठन चाहें तो उसको वितरित कर सकता है, बेच सकता है। लेकिन पैर खींचने वाली राजनीति में है। घुसपैठिया लोग साहित्य में भी घुसे हुए हैं। जरूरत हैं कि वैसे लोग एकजुट हों जो काम करने वाले हों। संगठन में ओहदे वाले लोग चाहते हैं कि हमारी राजनीति चले। हालांकि जैसा चल रहा है, वैसा बहुत दिनों तक चलेगा नहीं।
– मनोजकुमार झा (दैनिक भास्करडाटकाम के संपादकीय विभाग भोपाल में)
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