और समय लिखेगा इतिहास…

और समय लिखेगा इतिहास :

बिहार के तीन वरिष्ठ पत्रकारों सुरेन्द्र किशोर, गुंजन सिन्हा और अनिल विभाकर के फेसबुक वाल पर पोस्ट की गई सामग्री यहां सोनमाटी के पाठकों के लिए प्रस्तुत है। देश और समाज के संदर्भ में इनकी टिप्पणियां आईन दिखाने वाली हैं और समसामयिक पीड़ा का प्रकटीकरण भी। आखिर कैसा बनता जा रहा है समाज? सवाल यह भी है कि नई पीढ़ी क्यों सपना पालें, क्यों संकल्पबद्ध हो देश और समाज के लिए? नए नजरिये से देखने वाले, आगे की सोचने वाले, सही प्रतिरोध करने वाले और प्रतिरोध का खामियाजा भुगतने वाले समाज के चंद फीसदी लोग अर्थयुग में, 21वीं सदी में, आर्थिक चकाचौंध में पूरी तरह हाशिए पर रख दिए गए हैं। अब तो उनके हिस्से में सम्मान भी नहीं बचा है और उन्हें अयोग्य भी बताया जा रहा है। सुरेन्द्र किशोर की टिप्पणी यह संकेत दे रही है कि पुरानी पीढ़ी के लोग थक चुके हैं या चूकने लगे हैें। गुंजन सिन्हा की टिप्पणी पुरानी पीढ़ी के पत्रकारों को अपराधबोध भी कराती है कि क्यों नहीं जनसंपर्क (पब्लिक रिलेशन) वाली पत्रकारिता को स्वीकार किया? अनिल विभाकर की ‘क्लिपर टाइम्सÓ में प्रसारित टिप्पणी देश की जनतांत्रिक व्यवस्था के एक सवोंच्च अंग के नंगे सच को सामने लाती है। बहरहाल, मन नहीं मान रहा, नहीं हार रहा और कह रहा है कि समय लिखेगा इतिहास। …और सच भी शायद यही है !

                                                                                                                                                                   – सोनमाटी संपादक

अब तो सोचना है नई पीढ़ी को : सुरेन्द्र किशोर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनसीसी की रैली में कहा है कि इस देश के तीन पूर्व मुख्यमंत्री जेलों में हैंं और युवाओं से आह्वान किया कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनसीसी की रैली में कहा है कि इस देश के तीन पूर्व मुख्यमंत्री जेलों में हैंं और युवाओं से आह्वान किया कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ें। यह सच है कि अब उम्मीद तो नयी पीढ़ी से ही है। हालांकि मोदी की बात से भ्रष्टाचार को लेकर देश की अधूरी तस्वीर ही सामने आती है। भ्रष्टाचार के मामले में देश का हाल यह है कि यदि कानून को काम करने दिया गया होता तो आज कम-से-कम एक दर्जन पूर्व मुख्यमंत्री विभिन्न जेलों में बंद होते। एक पूर्व प्रधानमंत्री की उम्र तो जेल में ही कट गयी होती। वैसे उपमुख्य मंत्री छगन भुजबल और पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री मतंग सिंह भी इन दिनों जेल में ही हैं। नरसिंह राव मंत्रिमंडल में मतंग सिंह राज्यमंत्री थे, पर उनका रुतबा कैबिनेट मंत्री की तरह था। यदि जयललिता जीवित होतीं तो वह भी अभी जेल की ही शोभा बढ़ा रही होतीं।
देश में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का हाल यह है कि पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि यदि अमर सिंह ने मुझे नहीं बचा लिया होता तो मैं जेल में होता। यानी अमर सिंह जैसे कुछ लोगों को भी यह सुविधा मिली हुई है कि वे किसी को जेल जाने से बचा लें। जाहिर है, जांच एजेंसियों और अदालतों को देश के हुक्मरान अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए कई बार काम करने नहीं देते। भ्रष्टाचार के कई गंम्भीर मामले तो तार्किक परिणति तक पहुंच ही नहीं पाते। क्या खुद मौजूदा प्रधानमंत्री यह भी सुनिश्चित करेंगे कि जांच एजेंसियां अपना काम बिना भेदभाव के करें।
कई साल पहले असम के एक मुख्यमंत्री के खिलाफ वहां के राज्यपाल ने मुकदमा चलाने की अनुमति अज्ञात कारण से नहीं दी। जबकि आरोप बेहद गंम्भीर थे। अनुमति देते तो वे भी जेल में होते। उस राज्यपाल ने तीन अलग-अलग भाषणों में तीन अलग-अलग अजीब सफाई दी। उनमें एक था कि यदि मुख्यमंत्री जेल जाते तो सीमावर्ती राज्य में राजनीतिक अस्थिरता आ जाती। कानून को काम करने दिया जाता तो उत्तर प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री जेल में होते। कई लोगों को आश्चर्य हो रहा है कि हिमाचल प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री जेल से बाहर क्यों हैं? महाराष्ट्र के कुछ पूर्व मुख्यमंत्री सहित कई बड़े नेता जेल जाने पात्रता रखते हैं। दो मौजूदा मुख्यमंत्री जेल जाने की पात्रता हासिल करने में इन दिनों लगे हुए हैं और कुछ पूर्व मुख्यमंत्रियों की संतानें भी इसी लाइन में हैं। दक्षिण भारत के एक पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र के पास 365 करोड़की संपत्तिका पता चला है। सीबीआई का आरोप है, वे सबूतों को नष्ट कर रहे हैं।
कल्पना कीजिए। आपकी जाति के ही डाकू घातक हरवे-हथियार के साथ रात में आपके घर में घुस जाएं। हथियार दिखा कर आपकी कमाई लूट ले जाएं। परिवार के सदस्य की हत्या भी कर दें। क्या उसके बाद आप कहेंगे कि चलिए, कोई बात नहीं डाकू मेरी जाति का था, दूसरी जाति के लोग भी तो लूटते हैं। ऐसा आप नहीं कहेंगे, क्योंकि आप पर सीधे मार पड़ी है। पर, जब सरकारी खजानों से आपके दिए हुए टैक्स के पैसों को सत्ताधारी नेता, व्यापारी व अफसर लूटते हैं तो आपको कोई एतराज नहीं होता है? क्योंकि, वह आपकी जाति का होता है। सरकारी खजाने के लुट जाने का नतीजा होता है कि कई बार सरकार के पास सरकारी अस्पतालों में डिटॉल,रुई तक के पैसे नहीं होते। वेतन व जरूरी सुविधा के अभाव में डाक्टर नहीं मिलते। आपके परिवार का गंभीर मरीज इलाज के अभाव में गुजर जाता है। क्या यह वैसी हत्या नहीं, जैसा डाकू-अपराधी करते हंै? अब तो यह नयी पीढ़ी को ही सोचना है।

 

रिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर

 

 

 

बत्ती बन गई पत्रकारिता के सिद्धांतों की : गुंजन सिन्हा

सरकार के सारे कानून कहां गए? और, पत्रकारिता के सिद्धांतों की क्यों बत्ती बन गई? आखिर कोई इस पर चूं भी नही करता? हाल की बात थी, साम्प्रदायिक दंगों को दो गुटों के बीच तनाव कहते थे। दंगे में मरने वालों की धार्मिक-जातीय पहचान डिस्क्लोज नही की जाती थी। तोगडिय़ा, ओवैसी, आजम और प्राची जैसे लोगों के भड़काऊ बयान चैनलों पर नहीं चलाते थे अत्यधिक हिंसक दृश्य टीवी न्यूज में तो क्या सिनेमा में भी सेंसर किये जाते थे।
एडिटर्स गिल्ड नाम की संस्था मानकों का उल्लंघन करने पर भत्र्सना करती थी। दंगाइयों को पत्रकार नहीं बनाया जाता था। ऐंकर बहसों में निष्पक्ष होते थे। पत्रकार दोनों पक्षों की बातें रखते थे। पत्रकारों की यूनियनें उनके हक की लड़ाई के साथ पत्रकारिता के संघर्षको शक्ति देती थीं। संपादक न्यायाधीश की तरह होता था और उसी तरह किसी के आने पर सम्पादक की कुर्सी से उठकर खड़ा नही होता, क्योंकि वह जनता की न्यायिक अंतरात्मा और अधिकार का प्रहरी होता था।
प्रधानमंत्री नेहरू को अपने ही अखबार नेशनल हेराल्ड के संपादक से मिलने के लिए उसके कक्ष के बाहर इन्तजार करना पड़ता था और प्रधानमंत्री (सह मालिक) भी ऐसे थे कि वे आजाद दिमाग संपादक को 30-35 साल बर्दाश्त करते थे बिना किसी शिकायत के। तब समझा जाता था कि जो बुरा हो रहा है,उसे बताना प्राथमिकता है क्योंकि अच्छा काम तो सरकार को, संस्था को, व्यक्ति को तो करना ही है।
अब तो, जो काम हो रहा है, वही समाचार है, जिसे पिछली सदी में पीआर कहते थे। ऐसा बिना प्रतिरोध के हो रहा है। इसलिए कि समाज-पाठक ऐसी पत्रकारिता, ऐसे नेता, ऐसी ही सरकार डिजर्व करते हैं। इंदिरा गांधी ने सही कहा था-‘पीपुल डिजर्व द गवर्नमेंट,दे गेट (लोग जिस लायक होते हैं, उन्हें वैसी ही सरकार मिलती है)।

 

रिष्ठ पत्रकार गुंजन सिन्हा

 

 

 

सीधे जनता के बीच क्यों आए सुप्रीम कोर्ट के चार जज ?: अनिल विभाकर
सुप्रीमकोर्ट के चार जजों ने प्रेस कांफ्रेेंस कर जो कहा, वह काफी गंभीर और चिंता की बात है। इन जजों ने देश की सर्वोच्च अदालत के अन्य 21 जजों की ईमानदारी पर सवाल उठाया यह कहकर कि अब जनता तय करे कि उसे क्या करना है? एक प्रकार से इन जजों ने जनविद्रोह का आह्वान कर दिया।
आजादी के बाद देश में ऐसा पहली बार हुआ। चारों जजों ने इस्तीफा देकर प्रेस कांफ्रेेंस की होती तो मामला गंभीर नहीं होता। लगभग ऐसे ही अपराध के लिए कोलकाता हाईकोर्ट के जस्टिस कर्णन को छह महीने के कारावास की सजा दी गई। उस सजा सुनाने वालों में प्रेस कांफ्रेेंस करने वाले जज भी शामिल थे। मुकदमों की सुनवाई किस बेंच में होगी? यह तय करना मुख्य न्यायाधीश का काम है। उनके इस अधिकार को चुनौती नहीं दी जा सकती। जाहिर है, चारों जज कुछ खास मामालों की सुनवाई किसी खास योजना के तहत करना चाहते थे। सुप्रीम कोर्ट के जजों की प्रेस कांफ्रेेंस के पीछे जो योजना थी, उसका मकसद राम मंदिर मुद्दे की सुनवाई लोकसभा चुनाव तक टालना भी शामिल है। असंतुष्ट जजों की शिकायत यही है कि कार्य आवंटन में निष्पक्षता नहीं बरती जाती।
प्रेस कांफ्रेेंस के बाद एक पत्रकार ने जस्टिस लोया ममाले के बारे में सवाल पूछा, जिस पर जस्टिस रंजन गोगोई ने हामी भरते हुए कहा कि यह मामला भी है। जजों के प्रेस कांफ्रेेंस कुछ ही देर बाद राहुल गांधी ने भी प्रेस कांफ्रेेंस कर कहा था कि सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने के लिए जस्टिस लोया मामले की जांच एसआईटी से कराने की मांग की गई।
ये बातें सुप्रीम कोर्ट के चारों जजों,जो खुद को ईमानदार मानते हैं, की नीयत पर सवाल खड़े करती हैं। क्या ऐसे जजों को न्याय की कुर्सी पर बैठने का अधिकार है? वे अपना असंतोष राष्ट्रपति के पास रख सकते थे, पर ऐसा न कर उनका सीधे जनता के बीच आना क्या जनविद्रोह का आह्वान नहींहै?  (क्लिपर टाइम्स के डिजिटल संस्करण से संक्षिप्त अंश)

 

रिष्ठ पत्रकार अनिल विभाकर



 

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