8. तिल-तिल मरने की दास्तां (किस्त-8)

रोहतास इंडस्ट्रीज की कागज कारखाने की मशीन नंबर-1 दुनिया की एकमात्र हाईटेक मशीन, जो अब कबाड़ बन गई, इसकी जोड़ी जर्मनी में द्वितीय विश्वयुद्ध में हो गई थी नष्ट
और बंद हो गई छुक-छुक करती रेलगाडिय़ों को चलाने वाली 110 साल पहले स्थापित छोटी लाइन भी, 50 हजार यात्रियों को पहाड़ की तलहटी से लाती-ले जाती थी, ढुलाई करती थी 90 हजार टन माल

डेहरी-आन-सोन (बिहार) – कृष्ण किसलय। दुनिया के नक्शे पर अब इतिहास बन चुके अपने समय के विश्वप्रसिद्ध डालमियानगर के कारखाने देश के लिए कितने महत्वपूर्ण थे कि इसका आकलन इसके कागज कारखाने में डुप्लेक्स बोर्ड बनाने वाली मशीन नंबर-1 के बारे में जानकरी प्राप्त किया जा सकता है, जो दुनिया भर में मौजूद और देश में एकमात्र हाईटेक मशीन (अब कबाड़) थी। इसके जोड़ की दूसरी मशीन जर्मनी में वर्लिन पेपर कारखाने में थी, पर वह मशीन और उसका कारखाना द्वितीय विश्वयुद्ध के हमले में नष्ट हो गया। डालमियानगर की मशीन नंबर-1 जिस गुणवत्ता का टैगबोर्ड बनाती थी, उसका उपयोग राकेट और कंप्यूटर से संबंधित उत्पादों के लिए भी होता था।
डालमियानगर की जिस जमीन पर रोहतास उद्योगसमूह खड़ा हुआ और 3700 एकड़ वाले औद्योगिक साम्राज्य व 27 सौ क्वार्टरों, बंगलों, चौड़ी सड़कों वाले बेहतर आधारभूत संरचना संपन्न आवासीय परिसर के रूप में विराट आकार लिया, वह जमीन यहां के लोगों, यहां के कर्मचारियों के पुरखों की है। उस समय डालमियानगर के लिए जमीन देने वालों को ेकारखानों में यथा योग्य काम दिए गए थे। यही कारण है कि डालमियानगर कारखानों के प्रमोटर अशोक जैन को यहां की संपत्ति व जमीन को कोर्ट में हलफनामा देकर छोड़ देने में कोई हिचक नहींहुई।

हजारों गुना की कमाई
अशोक जैन के नाना (रामकृष्ण डालमिया) , पिता (शांति प्रसाद जैन) और उनके अन्य संबंधियों की जितनी पूंजी लगी हुई थी, उससे सैकड़ों-हजारों गुना की वे कमाई कर चुके थे और दूसरे स्थानों पर भी कई गुनी संपदा बना चुके थे। वैसे भी उनकी पूंजंी यहां के किसानों की तरह हाड़तोड़ कमाई से पैदा नहींहुई थी। डालमियानगर के विशाल औद्योगिक परिसर को खड़ा करने में कहां-कहां के कितने लोगों (शेयरधारकों) की और कितनी कारोबारी संस्थाओं (वित्तीय व तकनीकी उपक्रमों) की पूंजी लगी, इसका लेखा-जोखा आज सामने नहीं है।

रोहतास इंडस्ट्रीज के बंद होने के साथ इसकी अनुसंगी कंपनियां पाश्र्वा प्रापर्टीज लिमिटेड (तिउरा-पीपराडीह) और डेहरी-रोहतास लाइट रेलवे (डेहरी-आन-सोन से 67 किलोमीटर दूर कैमूर पहाड़ की एकदम तलहटी की मानव बस्ती तिऊरा-पीपराडीह तक) भी बंद हो गईं। डेहरी-रोहतास लाइट रेलवे को इस इलाके में छोटी लाइन के नाम से जाना जाता था, क्योंकि यह तीन श्रेणियों की रेल लाइनों ब्राड गेज, मीटर गेज और नैरो गेज मेेंं सबसे छोटी (श्रेणी ढाई फीट चौड़ी) थी। 1907 में कोलकाता के ओक्टावियस स्टील एंड कंपनी ने डेहरी से 40 किलोमीटर दूर रोहतास (एतिहासिक अकबरपुर गांव) तक नैरो-गेज रेल लाइन पर यात्री और मालगाड़ी चलाने वाली डेहरी-रोहतास ट्राम-वे कंपनी की स्थापना की। इस छोटी लाइन पर भाप इंजन रेलगाड़ी परिचालन की अनुमति बंगाल सरकार (तब बंगाल से बिहार अलग नहींहुआ था) ने 10 नवंबर 1908 को दी थी। डेहरी-रोहतास ट्राम-वे कंपनी की प्रमोटर ओक्टावियस स्टील एंड कंपनी ब्रिटेन से 1876 में कोलकाता आई थी।

  • सोन नहर से  देश की राजधानी कोलकाता तक जाता था माल

चार साल बाद इस कपनी का नाम डेहरी-रोहतास लाइट रेलवे कर दिया गया, जो तब वन बहुल कैमूर पठार क्षेत्र के साल में औसतन 50 हजार यात्रियों को डेहरी से रोहतास के बीच लाती-ले जाती थी और 90 हजार टन माल (चूना पत्थर, मार्बल, बांस, ईख आदि) की ढुलाई करती थी। जो माल डेहरी-आन-सोन पहुंचता था, वह यहां एनिकट से निकले सोन नहर के जरिये छोटी स्टीमरों (भाप चालित नावों) पर लदकर गंगा नदी तक जाता और फिर उस वक्त की देश की तत्कालीन राजधानी कोलकाता तक भी पहुंचता था।
१९११ में डेहरी-रोहतास लाइट रेलवे के अकबरपुर तक 10 रेलवे स्टेशन थे, जो 1926 तक बढ़कर 16 हो गए। 1927 में छोटी लाइन का विस्तार अकबरपुर से बढ़ा कर ढाई किलोमीटर दूर कैमूर पहाड़ पर स्थित रोहतास किले की तलहटी तक कर दिया गया। इसके बाद डालमियानगर में रोहतास इंडस्ट्रीज की स्थापना के बाद डेहरी-रोहतास लाइट रेलवे का प्रबंधन भी रोहतास इंडस्ट्रीज प्रबंधन के अधीन आ गया और इसका विस्तार रोहतास किले की तलहटी से भी 25 किलोमीटर दूर तिऊरा पिपराडीह तक कर दिया गया, क्योंकि रोहतास इंडस्ट्रीज की सहयोगी कंपनी प्राश्र्वा प्रापर्टीज लिमिटेड को कैमूर पहाड़ की तलहटी में एक हिस्सा चूना व सीमेंट पत्थर के माइनिंग के लिए लीज पर सरकार ने अधिकृत किया था।

मुजफ्फरपुर में खामोश खड़ा इंग्लैंड का वह इंजन
डेहरी-आन-सोन से तिऊरा पिपराडीह तक 67 किलोमीटर की इस छोटी रेल-लाइन पर दो पैसेंजर ट्रेने अपनी छुक-छुक गति से दौड़ती थीं। हालांकि 1970 के दशक से सड़क निर्माण में विस्तार होने के बाद इस लाइट रेलवे का महत्व कम हो गया था। इस तरह 1932 में स्थापित रोहतास उद्योग समूह से 25 साल पहले 1907 से ही छोटी लाइन पर चलने वाली छुक-छुक रेलगाडिय़ों का चलना भी बंद हो गया। डेहरी-रोहतास लाइट रेलवे की मातृ कंपनी रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड के परिसर में धुआं उड़ाते हुए 1967 से 1983 तक चलने लोकोमोटिव (इंजन) भी बंद हो गई, जिसे डेहरी-आन-सोन रेलवे स्टेशन की दीवार से एकदम सटे दक्षिण से झक-झक कर गुजरते हुए भी देखा जाता था। वह लोकोमोटिव (आरआईएल-06) अब बिहार के मुजफ्फरपुर रेलवे जंक्शन के बाहर बतौर प्रदर्शनी खामोश खड़ा है, जो मुजफ्फरपुर स्टेशन आने-जाने वाले यात्रियों को अपने आधार स्तंभ पर लिखी गई जानकारी के जरिये बताता है कि एक वक्त था, जब दुनिया में भाप से चलने वाले इंजन (लोकोमोटिव) का दौर था और वे इंग्लैंड में बनते थे।

रोहतास इंडस्ट्रीज ने खरीदा था ईस्ट इंडियन रेलवे से
पांच दिसंबर 2015 को पूर्व-मध्य रेलवे के महाप्रबंधक एके मित्तल द्वारा डालमियानगर परिसर के लोकोमोटिव (आरआईएल-06) को सजा-धजा, रंग-रोगन कर जनता के अवलोकनार्थ लोकार्पण किया गया था। 2005-2009 में रेलमंत्री रहे लालू प्रसाद ने मृत हो चुके डालमियानगर कारखाने की कबाड़ हो गईं मशीनों को खरीदने का फैसला किया था। उस कबाड़ में यह धरोहर लोकोमोटिव (आरआईएल-06) भी था। इस लोकोमोटिव (इंजन) का निर्माण ब्रिटेन के लंकशेयर स्थित कंपनी वालकन फाउंड्री ने 1908 में किया था। वालकन से ब्रिटिश भारत की ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी ने इस इंजन (आरआईएल-06) सहित इसी तरह के 10 लोकोमोटिव खरीदे थे। छह दशक बाद ईस्ट इंडियन रेलवे में लगातार चलने के बाद 60 साल पुराने इस लोकोमोटिव को रोहतास इंडस्ट्रीज ने अपने औद्योगिक परिसर व डेहरी रेलवे स्टेशन से भी कच्चा या उत्पादित सामग्री ढोने के लिए खरीदा था।
(बिहार के सबसे बड़े और देश-दुनिया के एक प्रमुख उद्योगसमूह रोहतास इंडस्ट्रीज, डालमियानगर की स्थापना से मृत होने तक की कहानी आगे भी जारी)

 

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