नीतीश फिर मुख्यमंत्री/ इस बार विधानसभा में 32 फीसदी दागी/ भीड़ में अकेला छूट गया बिहारी फस्र्ट!

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नीतीश फिर मुख्यमंत्री
-कृष्ण किसलय (संपादक, सोनमाटी)

17वीं विधान सभा के चुनाव में कम सीटें लाने के बावजूद नीतीश कुमार एक बा्र फिर मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे। जबकि उनके 13 सालों के सहयोगी रहे पूर्व उपमुख्यमंत्री सत्ता की दौड़ से फिलहाल बाहर रह गए और उनकी जगह पर तारकिशोर प्रसाद, रेणु देवी दो उपमुख्यमंत्री बनाए गए। इस बार के चुनाव में बहुत ही कांटेदार सियासी संघर्ष में अंतत: एनडीए ने बाजी मारी और सरकार बनाने के 122 का जादुई आंकड़ा पार कर कुल 3४3 में 125 सीटों पर अधिकार जमाया। प्रतिपक्षी महागठबंधन को 110 सीटें मिलीं। इस बार के चुनाव की खास बात यह है कि तेजस्वी यादव ने पिता लालू यादव की अनुपस्थिति के बावजूद नेतृत्व-क्षमता साबित की। नरेंद्र मोदी की चमक बरकरार रही और नीतीश से नाराजगी के बावजूद भाजपा को एनडीए में बड़ा भाई बनाने में कामयाब रहे। कांग्रेस पहले से भी कमजोर हुई और उसका प्रदर्शन छोटे दलों से भी खराब रहा। सबसे अधिक नुकसान नीतीश कुमार को हुआ। वाम दलों ने अपनी खोई हुई जमीन राजद के साथ समझौत कर करीब-करीब वापस पा ली। इस चुनाव से बिहार में ओवैसी की मुस्लिम सियासत की दमदार इंट्री हुई। ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने 50 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा किया था।

बसपा ने भी जीती एक सीट :

एनडीए के बड़े घटक भाजपा को 74, जदयू को 43, हम को 04 और वीआईपी को भी 04 सीटे प्राप्त हुईं। हम पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की और वीआईपी मुकेश सहनी की पार्टी है। जबकि महागठबंधन के बड़े घटक राजद को 75, कांग्रेस को 19 और वाम दलों को 16 सीटें हासिल हो सकी हैं। वाम दलों में भाकपा-माले को 12, भाकपा को दो और माकपा को भी दो सीटें मिलीं। बिहार में एनडीए से अलग होकर घोषित तौर पर नीतीश कुमार के जदयू के विरोध में लडऩे वाली चिराग पासवान की लोजपा को सिर्फ एक सीट मिल सकी। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने 05 सीट और बसपा ने भी एक सीट जीतने में सफलता हासिल की। ओवैसी ने उत्तरी सीमांचल में पांच सीटें जीतकर राज्य में भविष्य की मुस्लिम सियासत की शुरुआत कर दी है और लालू यादव की पार्टी राजद की ओर इशारा करते हुए कहा है कि मुसलमान मतदाता किसी पार्टी के बंधुआ नहींहैं। दक्षिणी सीमांत जिला कैमूर में बसपा ने लंबे समय बाद एक सीट हासिल की। एक सीट निर्दलीय की झोली में भी गई।

भाकपा-माले का बेहतर प्रदर्शन :

इस बार राजद को सबसे अधिक 22.9 फीसदी मत मिले हैं। भाजपा को मिलने वाला मत प्रतिशत 19.8 और जदयू को मिलने वाला मत प्रतिशत 15.4 है। भाजपा ने 2015 में 53 सीटें प्राप्त की थी, इस बार 74 सीटें उसे मिली। उसे 21 सीटों का फायदा हुआ। कहा जा सकता है कि 16 सीटें पाने वाली वाम दलों ने महागठबंधन में शामिल होकर 29 सीटों पर चुनाव लड़कर दशकों से अपनी खोई हुई जमीन पर दमदार वापसी की है। बिहार का लेनिनग्राद कहे जाने वाले बेगूसराय जिला में भी सीपीआई की पकड़ कमजोर हो चुकी थी। बेगूसराय में सीपीआई 04 सीटों पर चुनाव लड़कर दो सीटें हासिल की है। 2015 के चुनाव में सीपीआई (भाकपा) और सीपीएम (माकपा) खाता नहीं खोल पाई थी। भाकपा-माले 2015 में 03 सीट जीत पाई थी। भोजपुर, अरवल और सिवान जिलों में प्रभुत्व रखने वाली भाकपा-माले ने इस बार राजद-कांग्रेस के साथ समझौता कर 12 सीटें हासिल करने में सफल रही है।

कांग्रेस की स्ट्राइक कमजोर :

बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम में महागठबंधन के पीछे रह जाने की वजह कांग्रेस का कमजोर प्रदर्शन है। 70 सीटें लेकर कांग्रेस ने तेजस्वी यादव को नेता मानने की शर्त मंजूर की थी, मगर वह 19 सीटों पर ही जीत सकी। इस वजह से तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने का अरमान पर पानी फिर गया। कांग्रेस को 2015 में 27 सीटें हासिल हुई थी। उसे इस बार 08 सीट का नुकसान झेलना पड़ा। कांग्रेस की एक-चौथाई से थोड़ी अधिक सीटों पर जीत हुई और राजद की आधे से अधिक सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस से कहींअच्छा प्रदर्शन हम और वीआईपी जैसे एकदम स्थानीय क्षेत्रीय दलों ने किया। हम और वीआईपी महागठबंधन में ही बनी रहती तो शायद महागठबंधन बहुमत में होता और तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री होते। इस चुनाव में सबसे अधिक नुकसान जदयू को हुआ है। जदयू को 2015 में 71 सीट मिली थीं, इस बार 43 सीट से ही संतोष करना पड़ा। जदयू को 28 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा है।

सीमांचल में ओवैसी ने बदला मुस्लिम मतदाताओं का रुख :

चुनाव के समय एनडीए मजबूत और महागठबंधन अव्यवस्थित था, क्योंकि महागठबंधन के घटक दल तेजस्वी को नेता मानने को तैयार नहीं थे। रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे वरिष्ठ राजद नेता की नाराजगी भी सामने थी। उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी, मुकेश सहनी साथ छोड़ गए थे। मगर चुनाव प्रचार के जोर पकडऩे के साथ महागठबंधन के नेतृत्व की कमजोर कड़ी दूर हुई। तेजस्वी यादव ने दस लाख सरकारी नौकरी देने का वादा कर युवाओं के बीच एक नया आकर्षण पैदा किया तो चुनाव प्रचार का रुख ही रोजगार पर केेंद्रित हो गया। वाम दलों ने महागठबंधन को ताकत दी। कांग्रेस ने राजद से सवर्ण मतदाताओं की पारंपरिक नाराजगी को पाटने का काम किया। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने बिहार विधानसभा चुनाव-2020 में 52 विधानसभा क्षेत्रों से जुड़ी आठ रैलियां की, जिनमें 40 विधानसभा क्षेत्रों पर महागठबंधन को हार का सामना करना पड़ा। बिहार के सीमांचल में असदुद्दीन ओवैसी ने राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का वोट बैंक माने जाने वाले अल्पसंख्यकों का रुख अपनी ओर बदल दिया।

अभी मोदी के चेहरे पर भरोसा :

बिहार विधानसभा चुनाव को कोविड-19 महामारी के बीच होने के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की अग्निपरीक्षा के तौर पर देखा जा रहा था, क्योंकि केेंद्र द्वारा लगाए गए लाकडाउन से देश की इकोनामी और रोजगार पर असर पड़ा। बिहार देश के कोरोना प्रभावित राज्यों की सूची में 11वें पायदान पर है, जहां अस्पतालों की स्थिति संतोषजनक नहीं है। इस हालत में बिहार के मतदाता एनडीए के साथ रहे तो इसका यही अर्थ है कि मोदी के कोविड-19 प्रबंधन से बिहारी बहुत खुश भले न हो, मगर संतुष्ट जरूर हैं। राज्य के मतदाताओं ने भाजपा को मतदान कर यह स्पष्ट कर दिया कि अभी मोदी के चेहरे पर भरोसा है। भाजपा ने हर बिहारवासी को मुफ्त कोरोना टीका लगाने की बात भी कही। देश के गरीब राज्यों में शुमार बिहार में रोजगार की समस्या गंभीर है, जहां बेरोजगारी दर 10.2 फीसदी और देश की औसत बेरोजगारी दर से दोगुनी है। इसी वजह से बिहारी रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में पलायन करते हैं, जिन्हें लाकडाउन में वापस बिहार का रुख करना पड़ा। बिहार लौटे श्रमिकों में बड़ी संख्या में अभी बिहार में हैं, जो चाहते हैं कि बिहार में रहकर रोजी-रोजगार करें।

बेरोजगारी, बाढ़ कुप्रबंधन से नाराजगी :

बिहार लौटे लोगों की बेरोजगारी और बाढ़ से परेशानी को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रति नाराजगी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रैलियों में दमदार तरीके से गठबंधन की बात रखकर माहौल को बदला और आखिरी बिहार दौरे में महिलाओं से मत देने की अपील की। नरेंद्र मोदी ने सभी चुनावी रैली में केंद्र और राज्य सरकार की ओर से महिलाओं को दी गई सुविधा और उनके लिए योजनाओं का जिक्र किया। अंतिम दौर में भावनात्मक भाषण भी दिया कि बिहार की मां पूजा की तैयारी करें, दिल्ली में बैठा बेटा उनकी चिंताएं दूर करेगा। चुनाव प्रचार के अंतिम दिन नीतीश कुमार ने भी भावनात्मक भाषण दिया। कहा कि यह उनका अंतिम चुनाव है। इस पर तेजस्वी यादव ने लालू यादव के अंदाज में जवाब दिया, नीतीश कुमार थक चुके हैं।

देहरादून (दिल्ली कार्यालय) से प्रकाशित पाक्षिक चाणक्य मंत्र में कृष्ण किसलय की बिाहर (पटना) से रिपोर्ट- 1. नीतीश फिर मुख्यमंत्री।

इस बार विधानसभा में 32 फीसदी दागी

धनबल, बाहुबल और जातिबल के लिए जानी जाने वाली बिहार की सियासत में इस बार भी दागी प्रत्याशियों का बोलबाला रहा। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स की रिपोर्ट के मुताबिक, जहां 2015 के चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों की संख्या तीस प्रतिशत थी। इस बार 32 फीसदी उम्मीदवार दागी थे। इस बार विधानसभा के लिए चुने गए दागी विधायकों की संख्या 54 है। कई बाहुबली फिर चुनाव जीत गए हैं, जिनमें बहुचर्चित अनंत सिंह पर पुलिस थाना में सबसे अधिक 38 कांड दर्ज हैं। अपने घर में एके-47 और हैंड ग्रेनेड बरामद होने के कांड में जेल में बद अनंत सिंह ने मोकामा से फिर अपनी जीत का परचम लहराया। दो बार वह जेल में रहकर ही चुनाव जीते हैं। इस बार भी उन्होंने जेल में ही रहकर चुनाव लड़ा। इनका सहारा कभी नीतीश कुमार ने लिया था। नीतीश कुमार ने इन्हें सियासत दूर किया तो लालू प्रसाद के पुत्र तेजस्वी यादव की नजर ने इन्हें गुड एलीमेंट बनाकर मोकामा से टिकट दिया। अपने समर्थकों में छोटे सरकार के नाम से मशहूर अनंत सिंह पांचवी बार विधानसभा पहुंच गए हैं।

चार बार विधायक रहे आशा सिन्हा को हराया :

जेल में ही रहकर दानापुर से चार बार विधायक रहीं आशा सिन्हा के विरुद्ध चुनाव की रणनीति बनाने वाले बाहुबली रीतलाल यादव भी 16 हजार वोट से जीतक विधानसभा पहुंच गए हैं। रीतलाल यादव तीन माह पहले जमानत मिलने पर जेल से बाहर आए। आशा सिन्हा के पति दिवंगत नेता सत्यनारायण सिन्हा की हत्या का आरोप इस बाहुबली पर है। इसी तरह पटना जिला के बिक्रम विधानसभा क्षेत्र से बाहुबली कहे जा सकने वाले सिद्धार्थ भी दूसरी बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंच गए। सिद्धार्थ पर चार आपराधिक मामले दर्ज हैं। जब वह पहली बार विधायक थे, तब उन पर लड़की को अगवा करने का आरोप था। विधायक सिद्धार्थ अपने ड्राइवर और लड़की को साथ लेकर थाना पहुंचे थे। तब इनके ड्राइवर ने पुलिस को दिए बयान में जुर्म करना स्वीकार किया।

मतदाताओं ने दागियों को धूल भी चटाई :

हालांकि बिहार चुनाव में कई बाहुबलियों को जनमत ने धूल भी चटाई है। इन्हीं में से एक हैं जदयू के टिकट पर बेगूसराय जिला के मटिहानी से खड़े विधायक नरेंद्र सिंह ऊर्फ बोगो सिंह। अपनी ही सरकार में अफसरों पर दबंगई के लिए जाना जाने वाले बोगो सिंह 2005 से विधानसभा का चुनाव जीत रहे हैं। 2005 में बाहुबली बोगो सिंह निर्दलीय चुनाव लड़कर विजय पाई थी। 2010 और 2015 के चुनाव में जदयू के टिकट पर चुनाव जीता। इस बार चुनाव में चिराग पासवान की लोजपा ने उनकी गद्दी में आग लगा दी। उन्हें धूल चटाई लोजपा के राजकुमार सिंह ने। गोपालगंज जिला की कुचायकोट से लगातार चार बार जदयू के विधायक रहे अमरेंद्र पांडेय उर्फ पप्पू पांडेय को कांग्रेस के काली पांडेय ने 20 हजार से अधिक मतों के अंतर से हराया। गोपालगंज ट्रिपल मर्डर केस में यह आरोप है कि इस कांड को बाहुबली अमरेंद्र पांडेय उर्फ पप्पू पांडेय के इशारे पर अंजाम दिया गया। 25 मई की रात गोपालगंज के हथुआ थानांतर्गत रूपनचक गांव में घर में घुसकर राजद नेता जेपी यादव, उनके माता, पिता और भाई को गोलियों से भून दिया गया था।

फ्लाप हो गईं लंदन रिटर्न पुष्पम प्रिया :

लंदन से पढ़ाई करने वाली पुष्पम प्रिया चौधरी बिहार की राजनीति को बदलने और 2030 तक बिहार को यूरोप में तब्दील करने का दावा कर मुख्यमंत्री पद की स्वघोषित उम्मीदवार बनी थीं। उनकी प्लुरल्स पार्टी फ्लाप साबित हुई। खुद पुष्पम प्रिया चौधरी ने दो विधानसभा सीटों बांकीपुर और बिस्फी से चुनाव के मैदान में ताल ठोका, लेकिन दोनों ही सीटों पर कोई छाप छोडऩे में नाकाम रहीं। पटना जिला के बांकीपुर विधानसभा सीट और मधुबनी जिला के बिस्फी विधानसभा सीट उनकी भाजपा, कांग्रेस, जदयू, राजद के उम्मीदवार से दूर-दूर तक टक्कर नहीं थी। उनसे अधिक मत नोटा में पड़े। लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स से पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में मास्टर डिग्री धारक पुष्पम प्रिया चौधरी मूलत: दरभंगा निवासी जदयू नेता विनोद चौधरी की बेटी हैं। पुष्पम प्रिया चौधरी ने प्रमुख हिंदी-अंग्रेजी अखबारों में बड़े विज्ञापन देकर खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बताया था। चुनाव में उन्होंने पढ़े-लिखे और साफ-सुथरी छवि वाले लोगों को मैदान में उतारा। चुनाव के मैदान के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय रहीं। मगर मतदाताओं ने नोटिस नहींली।

भूपेंद्र यादव रणनीति के बड़े किरदार :

राजस्थान की पृष्ठभूमि के भूपेंद्र यादव पांच साल पहले बिहार भाजपा के प्रभारी बनाए गए थे। लोकसभा 2019 के चुनाव में मोदी रथ पर एनडीए ने 40 में से 39 सीटें बटोरीं तो सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट भूपेंद्र यादव की नजर बिहार विधानसभा की 243 सीटों पर टिक गई। उन्होंने अपनी बिहार विजय की रणनीति यह संदेश देने के प्रयास के साथ शुरू की कि यादव समीकरण सिर्फ लालू यादव के भरोसे नहीं रहने वाला। 2016 में यादव समाज के नित्यानंद राय को बिहार भाजपा की कमान सौंपे जाने में भूपेंद्र यादव की प्रमुख भूमिका थी। दूसरी तरफ 2020 चुनाव के पहले वैश्य समाज के संजय जायसवाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर यह संदेश भी देने की कोशिश की कि जूनियर मोदी (बिहार के सुशील मोदी) के आगे भी जहां है। इन दोनों रणनीति से बिहार में भाजपा में नई पार्टी लाइन तैयार हुई। इस बार टिकट बांटने में भूपेंद्र यादव ने पार्टी के कमजोर विधायकों की पहचान की और जीत दिलाने वाले तगड़े उम्मीदवारों की लिस्ट तैयार की थी। गुजरात में भाजपा की लगातार छठी बड़ी जीत के रणनीतिकार भूपेंद्र यादव को भी माना जाता है। उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में भी भाजपा की धमाकेदार वापसी में इनकी भूमिका मानी जाती है।

देहरादून (दिल्ली कार्यालय) से प्रकाशित पाक्षिक चाणक्य मंत्र में कृष्ण किसलय की बिाहर (पटना) से रिपोर्ट- 2. इस बार विधानसभा में 32 फीसदी दागी।

….और भीड़ में अकेला छूट गया बिहारी फस्र्ट! फर्स्ट

बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान की भूमिका को दो तरह से देखा और विश्लेषित किया जा रहा है। एक भाजपा के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहायक के रूप में और दूसरा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के घोर विरोधी के रूप में। सवाल यह भी किया जा रहा है कि क्या इस भूमिका के अलावा चिराग पासवान के पास अन्य विकल्प नहींथा? और यह भी कि क्या चिराग पासवान का बिहारी फस्र्ट का नारा सियासत की भीड़ में कहींअकेला तो नहींछूट गया? इस बात में दो राय नहींहै कि चिराग पासवान ने बिहार विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोलकर जदयू के प्रति नतीजे को अप्रत्याशित रूप से प्रभावित किया। इससे नीतीश कुमार का जनता दल यूनाइटेड राज्य में फिसल कर नंबर-वन से राष्ट्रीय जनता दल और भारतीय जनता पार्टी के बाद तीसरे नंबर पर आ गया। भले ही एनडीए की चुनावपूर्व समझौता के तहत मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनें, मगर भाजपा-जदयू के बीच सीटों में बड़ा अंतर होने से उहापोह की स्थिति हो गई है और नीतीश कुमार के सामने नैतिकता की समस्या भी खड़ी है।

चिराग ने क्यों अलापा नीतीश विरोधी राग? :

चिराग पासवान की रणनीति से लोजपा को सिर्फ एक सीट हासिल हुई और जिसके खाते में 5.8 फीसदी मत गए। लोजपा ने जदयू उम्मीदवारों के खिलाफ प्रत्याशी नहीं खड़ा किया होता तो संभव है कि जदयू बिहार में सबसे बड़ी पार्टी होती। आंकड़े यह बता रहे हैं कि लोजपा के विरोधी हो जाने के कारण जदूय को दो दर्जन सीटों पर नुकसान तो झेलना पड़ा है। चिराग पासवान ने भाजपा के लिए वोट कटवा की भूमिका निभाई। माना जा रहा है कि भले ही ताकतवर राष्ट्रीय पार्टी भाजपा बिहार में 2005 से जदयू के साथ छोटे भाई की भूमिका में सरकार बनाती-चलाती रही हो, मगर नीतीश कुमार का कद छोटा करने की उसकी चाह कसकती रही है। शायद इसी इच्छा-पूर्ति के लिए भाजपा ने चिराग पासवान को पिछले दरवाजे से आगे किया गया हो। बिना पिछला दरवाजा वाला शह के चिराग पासवान आखिर अचानक केेंद्र में नरेंद्र मोदी के साथ होने और राज्य में नीतीश कुमार के विरोध में होने की बात क्यों कहते?

क्या मत-पलायन रोकने की थी रणनीति? :

चिराग पासवान की रणनीति को दूसरे तरह से भी समझने की कोशिश की जा सकती है। भाजपा को पता था कि 15 साल पुराना सत्ता नायक होने से शराबबंदी, सरकारी अफसरों की मनमानी, भ्रष्टाचार पर अंकुश नहींहोने आदि मुद्दों को लेकर मतदाता नीतीश कुमार से नाराज भी थे, जिसे लाकडाउन के दौरान बिहार के श्रमिकों के पलायन के समय कुप्रबंध ने आग में घी डालने का काम किया था। इस स्थिति में नाराज मतदाताओं का रुख भाजपा से महागठबंधन की ओर भी हो सकता था। इसलिए यह माना जा रहा है कि भाजपा ने नीतीश कुमार से नाराज मतदाताओं को विकल्प देने की रणनीति के तहत ही चिराग पासवान को चुनाव से ठीक पहले आगे किया। अचानक चिराग पासवान नीतीश कुमार विरोधी राग अलापने लगे और जदयू के उम्मीदवारों के विरुद्ध अपना प्रत्याशी खड़ा किया। भाजपा के 22 बागियों में 21 ने लोजपा के टिकट पर जदयू और 01 ने भाजपा समर्थित वीआईपी के खिलाफ चुनाव लड़ा। इस रणनीति से महागठबंधन अधिकतम लाभ से वंचित रह गया। लोजपा को मिले करीब छह फीसदी मतों का आधा तीन फीसदी भी महागठबंधन की ओर चला जाता तो बाजी पलट सकती थी। लोजपा ने जिन विधानसभा क्षेत्रों में अपने प्रत्याशी उतारे थे, वहां जदयू के प्रत्याशियों को महागठबंधन से औसतन पांच फीसदी कम मत प्राप्त हुए। कोई ढाई दर्जन सीटों पर तो अंतर पांच से दस फीसदी तक का है। जहां लोजपा के प्रत्याशी नहीं थे, वहां महागठबंधन को औसतन सात फीसदी अधिक मत मिले। बेशक इस रणनीति में चिराग पासवान को बेहद घाटा हुआ। उनकी चमक फीकी पड़ गई और एक ही सीट विजय मिलने के कारण लोजपा किंगमेकर की भूमिका की संभावना से वंचित रह गई।

रामविलास की मूर्तिमान नहीं हुई आकांक्षा :

2005 से ही लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान की आंतरिक कोशिश नीतीश कुमार को सत्ता से दूर रखने की रही है। 2005 में मार्च में हुए चुनाव में लोजपा ने 29 सीट जीती थी। रामविलास पासवान ने नीतीश कुमार को समर्थन देने से इंकार कर दिया। तब राष्ट्रपति शासन लगा। नवंबर में हुए चुनाव के लिए नीतीश कुमार ने अपनी रणनीति बनाई और उनकी बहुमत से सत्ता में वापसी हुई। फिर वह लगातार सत्ता की परवान चढ़ते गए। 2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार पर अंकुश लगाने के लिए रामविलास पासवान ने लालू यादव से हाथ मिलाया, लेकिन उनका मंसूबा कामयाब नहीं हुआ। नीतीश कुमार ने 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू यादव के साथ हो गए तो रामविलास पासवान ने भाजपा के साथ मिलकर जोर आजमाईश की। तब भी रामविलास पासवान को सफलता नहींमिली। उनका बिहार का मुख्यमंत्री बनने की आकांक्षा मूर्तिमान नहींहो सकी। शायद अपने पिता रामविलास पासवान की इसी आकांक्षा के लिए चिराग पासवान ने अपना सियासी दाव खेला, क्योंकि उनके पास बिहार में खोने के लिए ज्यादा कुछ नहींथा। 2015 में लोजपा के सिर्फ दो ही प्रत्याशी विधायक बन सके थे।

नीतीश के साथ से ही मिला सत्ता का स्वाद :

गुजरे दो दशक पर नजर डाली जाए तो नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के वह योद्धा साबित हुए हैं, जिनके बिना किसी के लिए सत्ता का स्वाद चखना संभव नहींरहा। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर में प्रचंड बहुमत हासिल की तो भाजपा को लगा कि बिहार में वह अपने दम पर सत्ता में आ सकती है। मगर 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के सामने भाजपा फीकी रह गई। भाजपा को बिहार की सत्ता में आने के लिए नीतीश कुमार को साथ लेना ही पड़ा। एक दशक से सियासी वनवास झेल रहे लालू यादव जैसे बड़े वोट बैंक वाले नेता को भी 2015 में नीतीश कुमार से हाथ मिलाना पड़ा था। बिहार में जिस नीतीश कुमार के सामने नरेंद्र मोदी और लालू यादव जैसे दिग्गजों की नहीं चल पाई, उन्हें चिराग पासवान ने बेशक धराशायी करने का सफल प्रयास किया। नीतीश कुमार इस बार अजेय योद्धा नहींरह गए और उनकी विधायक-शक्ति तीसरी श्रेणी की हो गई। चिराग पासवान ने बिहार की राजनीति में अपना प्रवेश ही इस पार्टी-नारा के साथ किया था, मोदी से बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं।

लोजपा की तैयारी 2025 के लिए :

हालांकि भाजपा ने लोजपा को आगे करने की बात को सिरे से नकारा है। फिर भी हकीकत तो यही है कि लोजपा की रणनीति के कारण ही भाजपा राज्य में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी और कल तक बड़ा भाई की भूमिका में रहा जदयू छोटा भाई बन गया। यह भी माना जा रहा है कि चिराग पासवान ने 2025 के बिहार की सियासी तैयारी के तहत अपना आधार तैयार कर रहे हैं। चिराग पासवान के चाचा और हाजीपुर से सांसद पशुपति कुमार पारस ने कहा है कि नीतीश कुमार के खिलाफ चुनाव लडऩा पार्टी की संसदीय बोर्ड की अनुशंसा के बाद सोची-समझी रणनीति थी, जिसके तहत पार्टी ने 143 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे। 2019 में लोक जनशक्ति पार्टी के 20वें स्थापना दिवस समारोह में पार्टी प्रमुख दिवंगत रामविलास पासवान ने कहा था कि पार्टी को अभी से 2025 के विधानसभा चुनाव की तैयारी करनी चाहिए, ताकि चिराग पासवान को मुख्यमंत्री बनाया जा सके।

भविष्य में भाजपा-लोजपा गठजोड़ संभव :

संभव है कि भविष्य में भाजपा-लोजपा गठजोड़ की राजनीति बिहार में हो। रामविलास पासवान किसी दूसरे दल के प्रत्याशी के लिए औसतन छह फीसदी मत ट्रांसफर कराने के कुशल राजनीतिक प्रबंधक थे। इसी सियासी मत प्रबंधन की बदौलत वह केेंद्र सरकार में अपनी जगह लंबे समय से बनाए रखने में सफल रहे थे। चिराग पासवान इसी फार्मूला के तहत बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन बना रहे हैं। चिराग पासवान की इच्छा भी अपने पिता रामविलास पासवान की तरह सत्ता की चाभी अपने हाथ में रखने की है। अगर लोजपा को 25-30 सीट मिल जाति तो बेशक सत्ता की चाभी चिराग पासवान के हाथ में होती। इस बार चिराग पासवान का पासा जरूर उलटा पड़ा और उन्हें एक ही सीट पर जीत से संतोष करना पड़ा। नीतीश कुमार को सत्ता दूर रखने के गणित के करीब के आंकड़ा को छूते-छूते चिराग पासवान फिसल गए।

भाजपा प्रचंड शक्तिमान होने के करीब :

अगर यह माना जाए कि चिराग पासवान को आगे कर भाजपा ने अपने को अव्वल बनने का खेल खेला तो क्या उसने नहींसोचा होगा कि 122 तक आंकड़ा नहींपहुंचा तो नीतीश कुमार फिर तेजस्वी यादव से मुख्यमंत्री बनने की शर्त पर हाथ मिला भी सकते हैं? इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। चुनाव परिणाम आने के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह की नीतीश कुमार के प्रति ट्वीट में टटोला जा सकता है, जिसमें उन्होंने नीतीश कुमार को राष्ट्रीय राजनीति में कूदने की सलाह देते हुए कहा है कि नीतीशजी, बिहार अब आपके लिए छोटा हो गया है। उन्होंने कहा है कि भाजपा अमरबेल है, जिस पेड़ से लिपट जाए वह तो सूख जाती है और खुद हरी-भरी बनी रहती है। बहरहाल बिहार जैसे बड़े राज्य में भाजपा प्रचंड शक्तिमान होने की आकांक्षा के बेहद करीब तो पहुंच ही चुकी है।

देहरादून (दिल्ली कार्यालय) से प्रकाशित पाक्षिक चाणक्य मंत्र में कृष्ण किसलय की बिाहर (पटना) से रिपोर्ट- 3. भीड़ में अकेला छूट गया बिहारी फस्र्ट! फर्स्ट।

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    25-26 नवंबर को आयोजित होगा बिहार संवाद कार्यक्रम

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    विधान परिषद के सभागार में ‘सुनो गंडक’ का हुआ लोकार्पण

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    शिक्षा के साथ-साथ अपनी संस्कृति और माटी से भी कसकर जुड़े रहना चाहिए : रामनाथ कोविन्द

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