
आलेख-
तनाव मुक्त परीक्षा: प्रणाली और मानसिकता दोनों में बदलाव जरूरी
– प्रो. ब्रजेश पति त्रिपाठी
विभागाध्यक्ष (अर्थशास्त्र),पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर ‘परीक्षा पर चर्चा, कार्यक्रम में परीक्षार्थियों शिक्षकों और अभिभावकों से संवाद करने जा रहे हैं। 27 जनवरी को आयोजित परीक्षा पर चर्चा कार्यक्रम का यह छठवां संस्करण है। 2018 में इस कार्यक्रम की शुरुआत हुई और आरंभ से लेकर अब तक यह कार्यक्रम देशवासियों विशेषकर परीक्षार्थियों, शिक्षकों और अभिभावकों के बीच काफी लोकप्रिय हो चुका है। इसमें छात्रों को परीक्षा के दौरान तनावमुक्त रहने, मनोबल बनाए रखने और अंकों के पीछे ना भागकर अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। साथ ही परीक्षा के जो भी परिणाम हों, उसे पूरी दृढ़ता और समझदारी के साथ स्वीकार करने के टिप्स दिए जाते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परीक्षा में शामिल होने वाले छात्रों को ‘एग्जाम वारियर्स’ का नाम दिया है। उन्होंने ‘एग्जाम वारियर्स’ नाम से एक पुस्तक भी लिखी है, जिसमें बच्चों को तनाव मुक्त रहने के लिए मार्गदर्शन किया गया है। प्रधानमंत्री ने इस किताब में छात्रों को संवाद का एक मंत्र दिया है। योर एग्जाम, योर मेथड-चूज योर ओन स्टाइल।इसके जरिए पीएम ने छात्रों से परीक्षा की तैयारी के अपने-अपने तरीकों और इस दौरान महसूस किए गए दिलचस्प अनुभवों को साझा करने का आग्रह किया है। इस संबंध में अपने ट्वीट में प्रधानमंत्री ने कहा कि इससे निश्चित रूप से हमारे एग्जाम वारियर्स प्रेरित होंगे।
निसंदेह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह पहल सराहनीय है। इस कार्यक्रम से बोर्ड और अन्य प्रतियोगी परीक्षा देने वाले छात्रों को तनाव कम करने में सहायता अवश्य मिलेगी, लेकिन यह प्रश्न आज भी कायम है कि हमारी परीक्षा प्रणाली में ऐसी क्या कमी है जिसके कारण परीक्षार्थी तनाव और अवसाद से ग्रसित हो जाते हैं। कभी-कभी यह तनाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि उन्हें आत्महत्या करने के लिए भी विवश कर देता है। एक प्रश्न यह भी है कि क्या दोष सिर्फ परीक्षा प्रणाली का है या फिर शिक्षकों के पढ़ाने के तौर-तरीके, अभिभावकों की महत्वाकांक्षाओं का दबाव और समाज में बच्चों के तुलनात्मक अध्ययन की मनोवृति के कारण ही यह सब घटित हो रहा है।परीक्षा प्रणाली पज़ल की तरह होनी चाहिए जिसमें प्रश्नों को हल करने में परीक्षार्थियों को इतना आनंद आए कि वह इसमें डूब जाए और समाधान ढूंढने बिना उसे बाहर निकलने की इच्छा ना हो। दुर्भाग्य से हमारी परीक्षा पद्धति ऐसी है जिसमें परीक्षार्थी एग्जाम से पहले ही इतना नर्वस हो जाता है कि कई बार परीक्षा हाल में घबराहट के कारण आते हुए प्रश्नों को भी हल नहीं कर पाता।
यह देखना सुखद है कि सरकार ने इस पर ध्यान देना शुरू किया है, और बच्चों को रटे रटाये प्रश्नों का उत्तर देने के बजाय उनके ज्ञान और समझ को परखने पर बल दिया जा रहा है।अभी हम परीक्षा के मूल्य को उसी रूप में जानते हैं जिस रूप में शेयरों और भूमि के मूल्य को।हम अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा और ऐसी परीक्षा देने के लिए प्रेरित करते हैं जो उससे अधिक कमाने के योग्य बना सके। विशेष रूप से पाश्चात्य शिक्षा पद्धति ने परीक्षा की ऐसी प्रणाली को और मजबूत किया है। एक अध्यापक जिसके ऊपर अपने छात्रों को अधिक से अधिक अंक लाने का दबाव रहे वह क्या सही मायने में सार्थक शिक्षा दे पाएगा? विद्यालयों विशेष रूप से प्राइवेट स्कूलों में शिक्षकों का मूल्यांकन इसी आधार पर होता है कि उनके छात्रों के कितने अंक आए, ऐसे में शिक्षक इस तनाव और दबाव से गुजरते हैं कि वह अपने बच्चों को अधिक से अधिक अंक लाने के लिए कैसे तैयार करें। इसके कारण शिक्षक न केवल स्वयं तनावग्रस्त रहते हैं बल्कि चाहे अनचाहे छात्रों को भी उस तनाव से आच्छादित कर देते हैं।

एक अध्यापक जो केवल पाठ्यपुस्तक का वाचन करके विद्यार्थियों को परीक्षा की दृष्टि से पढ़ाता है वह अपने छात्रों को मौलिक ज्ञान नहीं दे पाता है। सही ज्ञान केवल पाठ्य पुस्तकों पर निर्भर रहकर नहीं प्राप्त किया जा सकता है। केवल वही शिक्षक छात्रों पर परीक्षा का दबाव कम करने में सफल हो सकता है जो विद्यार्थियों से घनिष्ठता स्थापित कर ले। जब शिक्षक छात्रों में से ही एक बन जाता है तब विद्यार्थी विषय को रटते नहीं बल्कि समझने लगते हैं और उनमें बातों बातों में सीखने की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है।
जब से हमने शिक्षा को कमाई का साधन बनाया है तब से छात्र केवल उन विषयों को पढ़ने के लिए बाध्य हुए हैं जो उन्हें रोजगार दे सके। अभिभावकों की तरफ से भी बच्चों को ऐसे विषयों को लेने का दबाव रहता है, भले ही उस विषय में छात्र की रूचि हो या ना हो। इसका परिणाम यह हुआ है कि छात्र अपने अनचाहे विषय को लेकर जबरदस्ती रट्टा मार कर परीक्षा पास करने का प्रयास करते हैं, जो उनमें तनाव और अवसाद का एक बड़ा कारण बनता है। अपने बच्चों के रोजगार को लेकर अभिभावकों में एक प्रकार की असुरक्षा रहती है और यही असुरक्षा उन्हें बच्चों पर रोजगार परक विषय को पढ़ने और अंक तालिका में ऊपर बने रहने का अत्यधिक दबाव बनाने के लिए प्रेरित करती है। इससे छात्रों पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है।समाज में धन और भोग की बढ़ती प्रवृत्ति और लोगों के पैसे के पीछे भागने की आदत ने भी छात्रों पर गहरा दबाव डाला है।प्रतियोगी परीक्षा संबंधी स्पर्धा में जो बच्चे आगे निकल जाते हैं उनका तो ठीक है, लेकिन जो बच्चे थोड़ा पीछे रह जाते हैं या जो बच्चे बिल्कुल भी आगे नहीं जा पाते, समाज और परिवार उनका जीना मुहाल कर देता है।मीडियाॅकर और कमजोर छात्रों के लिए हम लगातार असहिण्णु होते जा रहे हैं, जबकि इन विद्यार्थियों में भी लाखों ऐसे छात्र हैं जो किसी न किसी विशेष प्रतिभा के धनी हैं। उनकी उस छुपी हुई प्रतिभा पर काम किया जाए तो वो जीवन में बहुत आगे जा सकते हैं। ऐसे बच्चे जो कहीं भी सेटल होने के योग्य नहीं हैं, उनको भी खपाने की ताकत हमारे समाज में होनी चाहिए। इसके लिए हमें भारत की संयुक्त परिवार प्रथा से सीख लेनी होगी जिसमें चार भाइयों में यदि दो भाई नहीं कमाते थे तो भी परिवार के कमाने वाले सदस्य उनका गुजारा कर लेते थे। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य छात्रों को शिक्षित करना है और उन्हें ज्ञान के क्षेत्र में बेहतर और सराहना का पात्र बनने में सहायता करना है। इसके लिए एक ऐसी परीक्षा प्रणाली होनी चाहिए जिससे यह पता चले कि छात्रों को वास्तव में सिखाया क्या जा रहा है। यह भी देखना जरूरी है कि छात्र को जो पढ़ाया जा रहा है वह उसे समझ पा रहा है या नहीं, या फिर, यदि वह समझ पा रहा है तो उसकी यह समझ महज रट्टा मार कर याद करने जैसी क्षणिक है या फिर गहराई से विषय का ज्ञान ले पा रहा है। इसके लिए एक ऐसी परीक्षा प्रणाली विकसित करनी होगी जिसके अंतर्गत छात्रों को उन कार्यों को दिया जाता है जिन्हें वह घर पर पूरा कर सकते है।जब कुछ दिनों में उस कार्य को पूर्ण करने का टास्क दिया जाएगा और काम के लिए पर्याप्त समय होगा तो बच्चा निश्चिंत और निर्भय होकर पढ़ाई कर पाएगा।हालांकि यह प्रणाली अभी भी लागू है लेकिन प्रोजेक्ट और असाइनमेंट को और ज्यादा प्रभावी तरीके से लागू करने की जरूरत है। असाइनमेंट ऐसा होना चाहिए जिसके लिए बच्चे को मेहनत करनी ही पड़े कहीं और से नकल करके वह इसका अनुचित लाभ न उठा सके।असाइनमेंट के मूल्यांकन की पद्धति को भी मजबूत और कारगर बनाना होगा।
भविष्य में छात्रों को बहुत सारी चीजें सिखाने के बजाय किसी खास विधा में विशेषज्ञता हासिल करने के लिए प्रेरित करना ज्यादा मुनासिब होगा। हम छात्र को उस विषय का सुझाव दे सकते हैं जिसमें वह अधिक बेहतर प्रदर्शन कर सके। इसके लिए विद्यालयों को बच्चों की रुचि को परखने का सिस्टम विकसित करना चाहिए। सिर्फ कुछ अंकों के आधार पर छात्रों की क्षमता के मूल्यांकन की प्रवृत्ति ने विद्यार्थियों पर अत्यधिक दबाव और तनाव बनाने का काम किया है। शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना है। उसके अंदर छिपी हुई प्रतिभा को निखार कर बाहर लाना है, ताकि वह अपना अपनी क्षमता का सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन कर सके और देश और समाज को भी अपना सर्वश्रेष्ठ दे सके। इसके लिए वर्तमान मूल्यांकन प्रणाली में आमूलचूल सुधार करने की आवश्यकता है।परीक्षा लेने के पैटर्न में भी बदलाव करना होगा।उपरोक्त विवेचना के क्रम में दो महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार करना जरूरी है पहला परीक्षा का पैटर्न क्या होना चाहिए और दूसरा जब तक इसमें बदलाव नहीं होता तब तक ऐसे कौन से कदम उठाए जाएं जिससे छात्रों में परीक्षा के डर से उपजे दबाव और तनाव को कम किया जा सके।

परीक्षा का पैटर्न बदलने के लिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बड़े बदलाव की जरूरत है।प्रसन्नता की बात है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के जरिए केंद्र सरकार ने बदलाव की पहल शुरू कर दी है। इस संबंध में महात्मा गांधी के शिक्षा संबंधी विचारों पर प्रकाश डाला जा सकता है जिसमें उन्होंने पाठशाला एवं पाठ्य पुस्तकों के बाहर की शिक्षा का पुरजोर समर्थन किया था।गांधी जी ने शिक्षा को सदा ही जीवन तथा समाज का एक अभिन्न अंग माना। उन्होंने कक्षा- कक्ष की चारदीवारी में बंद कर प्रदान की जाने वाली शिक्षा को सही शिक्षा नहीं माना। उनका लक्ष्य जीवन के माध्यम से जीवन हेतु शिक्षा तथा आजीवन शिक्षा थी। उन्होंने जमीनी शिक्षा पर बल दिया और बुनियादी शिक्षा के जरिए मानवता तक पहुंचने की चेष्टा की।इससे थोड़ा सा और आगे बढ़ते हुए हम प्राचीन गुरुकुल शिक्षा पद्धति की ओर चल सकते हैं, जहां वनो और उपवनों से आच्छादित प्रदूषण मुक्त वातावरण में बालक शिक्षा ग्रहण करने जाते थे। घर परिवार और समाज के तनाव से दूर गुरुकुल में रहकर वह केवल रटी रटाई शिक्षा नहीं लेते थे बल्कि अपने जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए हर तरह का ज्ञान अर्जित करते थे। भिक्षाटन से लेकर लकड़िया चुनने, भोजन पकाने में सहयोग, आश्रम की साफ-सफाई, कक्षाओं में बैठना, योग ध्यान और अन्य शारीरिक व्यायाम के जरिए तन और मन को स्वस्थ शुद्ध और शांत करने के गुण सिखाए जाते थे।गुरुकुल शिक्षा पद्धति में केवल रोजगार पर ही जोर नहीं होता था बल्कि बेहद शुद्ध वातावरण में छात्रों के सर्वांगीण विकास पर बल दिया जाता था।ना वहां समाज का डर था और ना अभिभावकों का दबाव ना ही शहरी जीवन की चकाचौंध में फंसकर बच्चों के बहकने का डर। गुरुकुल शिक्षा पद्धति का पुनर्जीवन छात्रों में परीक्षा के दबाव और तनाव के साथ विद्यार्थियों के जीवन की अन्य जटिलताओं को कम करने में सफल हो सकता है।इसके माध्यम से देश को नैतिक और मानवीय गुणों से युक्त तन मन से स्वस्थ सबल व ज्ञानवान युवा प्राप्त हो सकते हैं।हालांकि उपरोक्त सुझाव पर अमल करने में समय लग सकता है,लेकिन वर्तमान परिस्थिति में छात्र अपने आप को परीक्षा के दबाव से कैसे मुक्त रखें यह देखना जरूरी है।
निश्चित रूप से पीएम के परीक्षा पर चर्चा कार्यक्रम के जरिए शिक्षकों छात्रों और अभिभावकों के बीच होने वाला संवाद छात्रों के लिए हितकारी होगा, लेकिन यह संवाद केवल एक दिन का ना हो, बल्कि हर स्कूल कॉलेज और घरों में ऐसे छोटे-छोटे संवाद नियमित रूप से आयोजित किए जाने चाहिए। बच्चों में परीक्षा के डर को कम करने के लिए पहले शिक्षकों व अभिभावकों की असुरक्षा और डर को कम करना होगा। उन्हें यह एहसास दिलाने की जरूरत है कि वे चाहे अनचाहे बच्चों के मन के बोझ को और बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। इस संबंध में साप्ताहिक खुली चर्चा का भी आयोजन होना चाहिए। इसमें शिक्षक छात्र अभिभावक सभी साथ बैठें और बच्चों से हर मुद्दे पर खुलकर चर्चा करें।यह बैठक केवल औपचारिकता ना हो बल्कि यह प्रयास हो कि छात्र अपनी बात खुल कर रखें। यही नहीं अपने अंदर छुपे हुए डर को लेकर भी उन्मुक्त रूप से चर्चा करें, तभी उनकी समस्या का कोई सार्थक समाधान निकल पाएगा।
पीआईबी (पटना)