बहुत दिनों के बाद भक्ति आन्दोलन पर ताजगी लेकर एक किताब आयी है, ‘अक्क महादेवी’। सुभाष राय की इस किताब ने आने के साथ ही गंभीर लोकप्रियता अर्जित की है और तीन महीने में उत्तर से लेकर दक्षिण तक इसकी चर्चा आम है। हिन्दी में भक्ति आन्दोलन पर पुस्तकों का लिखा जाना प्रायः चलता रहा है। इस युग के कवियों का दायरा इतना बड़ा और विविध है कि लिखनेवाले को गुंजाइश दिखायी पड़ जाती है। मगर ऐसी किताबें कम लिखी जा सकी हैं जिनमें नयापन हो!
यह किताब हिन्दी के पाठकों को इस कारण आकर्षित कर रही है कि इसमें गैर-हिन्दी प्रदेश कर्नाटक के भक्ति आन्दोलन की सुंदर जानकारी उपलब्ध है। हमलोग प्रायः यह सुनते आए हैं कि ‘भक्ति द्राविड़ ऊपजी’ मगर द्रविड़ भारत की भक्ति के बारे में विवरण से वंचित रहने को उत्तर भारत के लोग अभिशप्त रहे! और द्रविड़ भाषाओं की भक्ति कविता को हिन्दी के देशज प्रवाह में जानने के योग तो कम ही बने हैं! लगभग बीस साल पहले गोपेश्वर सिंह ने ‘आलोचना’ पत्रिका में दक्षिण की भक्ति पर बहुत सुंदर लिखा था। उसके बाद से मेरे देखते ऐसी कोई लिखावट सामने नहीं आयी जो ध्यानाकर्षण कर सके!
‘अक्क महादेवी’ किताब के प्रति आकर्षण का एक कारण यह भी है कि भक्ति आन्दोलन के निर्माण में स्त्री भक्त कवि और स्त्री-पक्ष की जैसी पहचान यह किताब कर रही है, वह दुर्लभ है! हिन्दी में हम मीरा को पढ़ते आए हैं। मीरा से शुरू होकर मीरा पर खत्म हो जाने की हिन्दी-नियति हमें दूसरी स्त्रियों की भूमिका को जानने के अवसर देती ही नहीं है।
इस बात पर दो-राय नहीं हो सकती है कि एक कवि को उसकी कविता के आधार पर ही ठीक से जाना जा सकता है। मगर यह भी ठीक है कि भक्त कवियों को केवल कवि कहकर मूल्यांकित नहीं किया जा सकता है। उनके व्यक्तित्व का बड़ा हिस्सा सामाजिक प्रश्नों से जुड़ा है, जिनके बारे में वे अपनी कविता और कविता के बाहर जाकर भी विचार और व्यवहार करते हैं। इन कवियों ने अपनी कविताओं में समाज, धर्म, जेंडर, जाति, सत्ता आदि से जुड़े न जाने कितने व्यावहारिक प्रश्नों को उठाया और उनके तीखेपन को अपने जीवन में सहा भी!
‘अक्क महादेवी’ के लगभग 300 पृष्ठों में सुभाष जी के शोध-प्रयत्न सुशोभन ढंग से फलित हुए हैं। प्रवाह-प्रभाव-शाली शैली में तथ्यों को रखते हुए लेखकीय संतभाव के साथ सुभाष राय इस किताब में खूब डूबते हैं। जानता हूँ कि यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि सुभाष जी ने जीवन-भर में केवल यही किताब लिखी होती तब भी वे इतने ही महत्त्वपूर्ण होते जितने आज हैं। ताउम्र जो सोचा-विचारा और जिया है उन सबको जैसे व्यक्त करने का मार्ग सुभाष जी को अक्क ने प्रदान किया है। सुभाष जी ‘सलीब पर सच’ को दिखानेवाली कविताएँ लिखते हैं और ‘मूर्तियों के जंगल में’ ले जाकर कविता को दिखाते हैं कि तुम्हारी असली पहचान जीवन-जगत् के मूल प्रश्नों पर आस्था बनाए रखने में है। दोनों संग्रहों की कविताओं को जान-समझकर कहा जा सकता है कि सुभाष राय के कवि की पूर्णाहुति अक्क के कन्नड़ के वचनों को हिन्दी की काव्य-संपत्ति बनाने में हुई है।
अक्क के सौ वचनों को हिन्दी में ढाला है सुभाष जी ने! अनूदित कविता की ऐसी काव्य-भाषा दुर्लभ मालूम पड़ती है! ऐसा लगता है मानो अनूदित कविता की हिन्दी काव्य-भाषा ‘नए चाल में ढली’ है। लगभग 60 पृष्ठों में सौ वचनों की हिन्दी काव्य-सम्पदा आह्लादक है। भक्ति की क्रांतिकारी भावभूमि को समझ सकनेवाली भावयित्री मनोभूमि से इन वचनों को पढ़िए तो अक्क के साथ सुभाष राय का भी कायल होने का मन होने लगता है। अक्क की साधना ने सुभाष जी को ऐसा घेरा है कि इन अनुवादों में तो हृदय की जीवंतता है ही, इनके प्रभाव से लिखी गयी छाया कविताओं से भी लगभग 35 पृष्ठ भरे हुए हैं। लगभग 300 पृष्ठों का शोधित ललित गद्य और 100 पृष्ठों में अक्क का अनुशीलन करती कविताएँ! कुल मिलाकर यह किताब सुभाष राय के अब तक के साहित्यिक व्यक्तित्व को एकबारगी अधिक ऊँचाई प्रदान करने में सक्षम है!
छंद के बिना कविता हो सकती है मगर छंद को समझते हुए! कविता होने के लिए छंद का होना जरूरी नहीं है, मगर छंद की बनावट को न समझना कवि के अधूरेपन की निशानी है! सच तो यही है कि कविता की सृजन-प्रक्रिया को समझने में छंद एक जरूरी पाठ है! छंदों को समझे बिना कवि के रूप में शायद ही कोई सफल हुआ हो! आपका चयन हो सकता है कि आप छंद में लिखें या न लिखें!
सुभाष राय ने वचनों के अनुवाद से लेकर छाया कविता तक में जिस प्रवाह का सुंदर निर्वाह किया है उसमें हिन्दी का देशज और छंद का सहज समाया हुआ है। इन अनुवादों में 8 मात्राओं के चरण को चिह्नित किए बगैर सुभाष जी – से संतरण करते गए हैं। 8 मात्राओं के ये चरण कहीं दो हैं और कहीं तीन अर्थात् 16 या 24 मात्राओं में! पहले वचन को देखिए,
प्रेम किया है सुन्दरतम से -16 मरण न उसका, क्षरण न उसका -16 रूप न उसका, देस न उसका -16 जन्म नहीं है, अंत नहीं है -16 माँ, सुन, मेरा प्रेम वही है -16 |
सुभाष जी को सर्वाधिक प्रिय है 16 मात्राओं का बंद! इन वचनों में छंद का व्याकरण कई जगहों पर बदला भी है, मगर सर्वाधिक उपस्थिति 16 मात्राओं के बंद की है जो अपनी आतंरिक संरचना में 8-8 मात्राओं के चरण से चलती है।
वचन संख्या – 32 के प्रयोग में थोड़ी भिन्नता है, मगर छान्दस चेतना बनी हुई है। इसमें 24, 14 और 10 का क्रम दिखायी पड़ रहा है। ध्यान दिया जाए तो यहाँ भी 14 और 10 को जोड़कर 24 की मात्रा को पहचाना जा सकता है, फिर वही 8 मात्राओं के गुणक में काव्य-सरिता का प्रवाहित होना! 26 और 22 मात्रा की दोनों पंक्तियों को साथ रखें तो इनमें भी बँटवारा 24-24 का ही होगा!
टुकड़े-टुकड़े होने और घिस जाने से – 24 चन्दन अपनी मधुर गंध – 14 तज देता है क्या – 10 काटे जाने और आग में तपने पर भी – 24 सोना अपनी चमक कभी – 14 तज देता है क्या – 10 तोड़े-काटे-परे जाने, चीनी की खातिर – 26 कड़ाह में सतत उबाले जाने पर भी – 22 पीड़ा में गन्ना मिठास – 14 तज देता है क्या – 10 |
अब देखा जा सकता है उनकी एक छाया कविता को! ‘द्वंद्व’ कविता से उदाहरण देकर इस छांदिक लय-क्रम को समझा जा सकता है जो संगीत की तरह सुभाष जी के मन-प्राण में अनुगूंजित है,
चिड़ियों से, पेड़ों से मैंने -16 पूछा प्रियतम को देखा क्या -16 जो भी मिला राह में मेरे -16 आँधी, बारिश, तूफानों से -16 मैंने आर्त गुहार लगायी -16 कभी अगर देखो तुम उसको -16 मुझे तनिक आवाज लाना -16 उसको भी मेरी पीड़ा की कथा सुनाना -16+8 |
‘अक्क महादेवी’ किताब पर कई ढंग से बात की जा सकती है। उन सब के सहारे यह बात खुल कर कही जा सकती है कि ‘द्रविड़ भारत’ से ‘आर्य भारत’ को परिचित कराने और प्रेम बढ़ाने में ऐसे कामों का सांस्कृतिक महत्त्व है। दक्षिण के लोग उत्तर को जितना जानते हैं उतना उत्तर को लोग दक्षिण को नहीं जानते हैं। प्रमोद रंजन, ओमप्रकाश कश्यप आदि लेखकों की पुस्तकों को याद करना प्रासंगिक होगा जिनमें पेरियार के लेखन को हिन्दी में लाने और विश्लेषित करने के सार्थक प्रयास हुए हैं। साहित्य अकादमी पहले भी अनुवाद के सहारे ऐसे काम कराती रही है, मगर उसकी पुस्तकों में ‘स्पार्क’ का प्रायः अभाव रहा है। उन अनुवादों में हिन्दी भाषा की अपनी देशजता और प्रवाहमयता की रक्षा प्रायः नहीं की जा सकी है, इसलिए वे सुपाठ्य नहीं बन पायी हैं। अब जो निजी प्रयास हो रहे हैं उनमें भरपूर आत्मीयता है! यह आत्मीयता उत्तर भारत को दक्षिण भारत की साहित्यिक फलतः सांस्कृतिक विरासत से जोड़ेगी!!
समीक्षित पुस्तक – अक्क महादेवी
लेखक – सुभाष राय
प्रकाशक- सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2024
पृष्ठ – 439 मूल्य – 449/-
समीक्षा– कमलेश वर्मा A-20, सन्धिनी, त्रिदेव कॉलोनी, चाँदपुर, वाराणसी – 221106 मो .- 09415256226 ईमेल : [email protected]
(संपादन : निशांत राज )