comments on news-report in FB group of INDIAN COUNSIL OF HISTORICAL RESEARCH —- by AMULYA MOHANTY 14.05.2018 :– Thank you very much . I am now inclined to argue that there is deficiency in both Nepal & Kapileswar theories, but deficiency in Nepal theory is substantial & critical. Second, the mysterious missing of Kapileswar plate inscription is interesting.
comments on news-report in FB group of ARCHEOLOGICAL SURVEY OF INDIA —- by ARJUN SINGH :- बहुत ही महत्वपूर्ण शिलालेख है। तिथियुक्त। यह तिथि सिद्ध करती है कि बुद्ध अजातसत्तु से बहुत बाद हुए। & KV Raghvendra Rao Hebber :- Eye opener for people who blindly follow western Historians.
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-बोधगया से 18 योजन दूर बारून में सोन नदी पार कर डेहरी-आन-सोन, सासाराम, कैमूर होकर पांच हफ्ते में ऋषिपत्तन (सारनाथ) पहुंचे बुद्ध
-उसी प्राचीन रास्ते से राजकुमार चंद्रगुप्त को मगध सम्राट नंद के साये से तीन हजार किलोमीटर दूर युद्ध-कला, राजनीति-अर्थनीति का प्रशिक्षण देने तक्षशिला ले गए थे चाणक्य
-बौद्ध भिक्षुणी बनी सुजाता की स्मृति में बना स्तूप इसी 21वींसदी में उत्खनन कर खोजा गया, सोनघाटी से होकर गुजरने वाले उसी प्राचीन पहाड़ी मार्ग पर मिले हैं सम्राट अशोक के तीन शिलालेख
-प्राचीन काल के जैनों-बौद्धों की भाषा भोजपुरी-मगही मिश्रित प्राकृत थी और इसी भाषा में लिखे गए प्राचीन जैन-बौद्ध साहित्य की लिपि थी ब्राह्म्ïाी
-कपिलेश्वर का शिलास्तंभ अशोक के अन्य शिलालेख जैसा, जबकि नेपाल का शिलालेख रंग-रूप व लिखावट में भिन्न और अशोक काल के बाद का, बुद्ध ने अपने को बताया था तोशिला वासी, उड़ीसा का अति प्राचीन नाम है तोशिला
गया/डेहरी-आन-सोन (बिहार)-कृष्ण किसलय। महात्मा बुद्ध का जन्म क्या नेपाल के कपिलवस्तु में नहीं हुआ था और वह बोधगया में ज्ञान प्राप्त करने के बाद अपना पहला उपदेश देने क्या गंगा नदी के जलमार्ग से यात्रा कर सारनाथ नहीं गए थे? प्रकाश में आए नए तथ्य-साक्ष्य यही संकेत देते हंै कि बुद्ध का जन्म उड़ीसा के कपिलेश्वर में हुआ था और वह अपने ज्ञान (कर्मकांड के बंधन से मुक्ति पाने की समझ और आत्मदीपो भव) का उपदेश देने जेठियन वनमार्ग (सोनघाटी के जंगली-पहाड़ी रास्ते से होकर) से पैदल सारनाथ तक की यात्रा की थी। साक्ष्य यह भी संकेत देते हैं कि उन्होंने सबसे पहले अपना अनौपचारिक उपदेश भोजपुरी में देकर जिन दो सार्थवाहों (व्यापारियों के कारवां के भारवाहक ट्रांसपोर्टरों) को अपने मत में दीक्षित किया, वे सोनघाटी के थे।
बौद्ध साहित्य में उसावेला (बोधगया) से ऋषिपत्तन (सारनाथ) की दूरी 18 योजन (216 किलोमीटर) बताई गई है और बताया गया है कि महात्मा बुद्ध पांच हफ्ते में बोधगया से सारनाथ पहुंचे थे। बुद्ध अपनी प्रथम उपदेश यात्रा के लिए जिस जेठियन वनमार्ग से गुजरे थे, वह मगध की राजधानी के राजगृह से पाटलिपुत्र (पटना) स्थानांतरित हो जाने के बाद धीरे-धीर लुप्त हो गया। राजगृह से पश्चिम स्थित सोनपुर गांव से शुरू होने वाला उस प्राचीन वनमार्ग पर चलकर महात्मा बुद्ध पुनपुन-अदरी नदी संगम पर (जहां आज मरोवां गांव, औरंगाबाद जिला है) पहुंचे होंगे और वहां से पश्चिम-दक्षिण में पुनपुन-बटाने नदी संगम (प्राचीन धार्मिक स्थान जम्होर, अनुग्रहनारायण रोड) होते हुए बारून मे सोन नदी पार कर मौजूदा डेहरी-आन-सोन (घरी, अर्जुन बिगहा या मकराईं) के पास पहुंचे होंगे, जहां से कैमूर पहाड़ की एकदम तलहटी में बसे आज के लेरुआ या तुतलवस्तु (तिलौथू) के पास पहाड़ी मार्ग के रास्ते ताराचंडी, मुंडेश्वरी, बसहा (कैमूर), अहरौरा (मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश) होकर सारनाथ पहुंचे होंगे।
घनघोर जंगल से होकर गुजरने वाला वह जंगली-पहाड़ी अति प्राचीन मार्ग
घनघोर जंगल से होकर गुजरने वाला वह जंगली-पहाड़ी अति प्राचीन मार्ग बुद्ध के समय, बुद्ध से पहले, मौर्य राजवंश की स्थापना और उसके बाद भी व्यवहार में था, जिससे ही होकर युद्धविद्या, राजनीति व अर्थशास्त्र के महाआचार्य कौटिल्य (चाणक्य) राजकुमार चंद्रगुप्त को मगध सम्राट नंद के साये से तीन हजार किलोमीटर दूर युद्ध-कला, राजनीति-अर्थनीति का प्रशिक्षण देने घोड़े पर सवार होकर तक्षशिला (शिक्षा का बड़ा केेंद्र) ले गए थे। गांधार देश के राजा पुक्कुसुति महात्मा बुद्ध के दर्शन के लिए उसी पैदल मार्ग से यात्रा कर गिरिव्रज (राजगृह) पहुंचे थे और मगधराज बिंबिसार के साथ उपहारों का आदान-प्रदान किया था। कई सदी बाद भी उसी रास्ते से तरुण उम्र के नागसेन पंजाब के वत्र्तनीय (स्यालकोट) से व्यापारियों के कारवां (सार्थवाहों) के साथ सौ योजन (1200 किलोमीटर) की दूरी पैदल चलकर अशोकाराम विहार (पाटलिपुत्र) आए थे और बौद्ध आचार्य धर्मरक्षित के विख्यात शिष्य बने थे।
निरंजना नदी के तट पर स्थित मौजूदा बकरौरा (पाली साहित्य का सैनी गांव) में भी बुद्ध ने प्रवचन दिया था, जिस गांव के नजदीक पीपल के वृक्ष के नीचे तपस्या से मरणासन्न बुद्ध को साहूकार अनाथपिंडिक की बहू सुजाता ने खीर खिलाकर उनका 49 दिनों का उपवास तोड़ा था और बौद्ध भिक्षुणी बन गई थी। सुजाता की स्मृति में बकरौरा में बनाया गया स्तूप इसी 21वींसदी में उत्खनन कर खोजा गया। महाजनपदों के उदय के उस काल में सोनघाटी में आबादी मुख्य तौर पर पहाड़ों या पहाडों़ की तलहटी में बसी हुई थी और मैदानी इलाके घनघोर जंगल से आच्छादित थे।
बुद्ध के जलमार्ग के बजाय वनमार्ग से गुजरने का तर्क
बुद्ध के जलमार्ग के बजाय वनमार्ग से गुजरने का तर्क यह भी है कि गंगाघाटी में आर्य संस्कृति के लोगों का प्रसार होने से उनके नए विचार-मत के प्रसार की अनार्य संस्कृति के लोगों में ज्यादा गुंजाइश थी। बौद्ध मत (संप्रदाय) को राज्याश्रय प्रदान कर इसका विस्तार करने वाले सम्राट अशोक के तीन शिलालेख सोनघाटी से होकर गुजरने वाले उसी प्राचीन पहाड़ी मार्ग पर मिले हैं। कैमूर पहाड़ पर सासाराम के ताराचंडी (पीर चंदनशहीद) में अशोक का लघु शिलालेख और उसी प्राचीन वनमार्ग पर स्थित मनौरा या मरोवां (औरंगाबाद जिला) में बुद्ध की पद्मासन मुद्रा वाली मूर्ति डा. फ्रांसिस बुकानन ने 19वीं सदी के आरंभ में खोजी थी, जिसे स्थानीय महिलाएं सदियों से हनुमान मानकर पूजती रही थीं। अशोक के दो नए शिलालेख-चित्र बसहा पहाड़ी और मोरिया (दोनों कैमूर पहाड़ी, कैमूर जिला) में 21वींसदी में खोजे गए हैं।
बौद्ध साहित्य में उल्लेख है कि महात्मा बुद्ध अपना पहला आधिकारिक उपदेश देने के लिए बोधगया से सारनाथ पांच हफ्ते में पहुंचे थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि 216 किलोमीटर की उस यात्रा में बुद्ध के रात्रि विश्राम के लिए सोनघाटी के वन-पर्वतज के बाशिंदों द्वारा जगह-जगह उनके ठहरने का प्रबंध भी किया गया होगा।
दो सार्थवाहों को उपदेश देकर किया दीक्षित
अपने मत (संप्रदाय) का प्रसार उन्होंने अपना प्रवचन प्राकृत भाषा (अद्र्ध या पूर्व मागधी यानी मगही-भोजपुरी मिश्रित) में दिया, क्योंकि अद्र्ध मागधी (भोजपुरी मिश्रित) सोनघाटी क्षेत्र की भाषा थी, जिसमें कालांतर में कई भाषाओं को शब्द समाहित होने के कारण उसके परिवर्तित मगर खांटी रूप का प्रयोग आज भी सोन के ऊपरी दक्षिणी-पर्वतीय इलाके के बाशिंदे (खासकर कुड़ुख भाषी उरांव) करते हैं। बोधगया में बोध (ज्ञान) पाने के दो महीनों (आठ सप्ताह) बाद सोनघाटी के लेरुआ (उरुवेला) में महात्मा बुद्ध ने दो सार्थवाहों (व्यापारियों का सामान ढोने वाले ट्रांसपोर्टरों) को अपने मत में यह उपदेश देकर दीक्षित किया था कि वेद को ही प्रमाण मानना और सिर्फ स्नान में धर्म समझना जड़ बुद्धि है।
सम्राट अशोक ने बुद्ध प्रवचन के संग्रह त्रिपिटक को उसी अद्र्ध या पूर्व मागधी भाषा में पढ़ा था, जिसका अनुवाद बाद में पालि भाषा में हुआ। उसी प्राचीन भाषा की लिपि ब्राह्म्ïाी (अब लुप्त) में अशोक ने अपना धर्म संदेश या राजाज्ञा बुद्ध के प्राचीन यात्रा-मार्ग पर पत्थरों पर खुदवाया था। ब्राह्म्ïाी लिपि भारत की अति प्राचीन सिंधु-सरस्वती सभ्यता की चित्रलिपि के काल से दो हजार साल के कालखंड में विकसित-परिवर्तित होते हुए बुद्ध-मौर्य काल तक मौजूद रही, जिसमें लिखावट (शिलालेख) के ईसा-पूर्व छठी शताब्दी के प्रमाण भी तमिलनाडु और श्रीलंका में खोजे जा चुके हैं। प्राचीन काल के जैनों-बौद्धों की भाषा भोजपुरी-मगही मिश्रित प्राकृत थी और इसी भाषा में लिखे गए प्राचीन जैन-बौद्ध साहित्य की लिपि ब्राह्म्ïाी थी।
इतिहासकार कोसाम्बी ने माना भी है कि बुद्ध ने आदिवासियों को किया दीक्षित
प्रसिद्ध भाषाविद, गणितज्ञ व इतिहासकार दामोदर धर्मानन्द कोसाम्बी ने माना भी है कि महात्मा बुद्ध ने नाग आदिवासियों को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था, जिस कारण ही नालंदा के बौद्ध पूजा केेंद्र का विकास नाग पूजा स्थल के रूप में हुआ था। बिहार-झारखंड की सोनघाटी और बिहार-उत्तरप्रदेश का कैमूर का पठार नागवंशियों (कोरवांअंों, शब्बरों, उरांवों, मुंडाओं, चेरो, खरवारों) का वासस्थल था, जहां रोहतासगढ़ (रोहतास जिला, बिहार) को केेंद्र बनाकर नागवंशी सदियों तक रहे थे। हालांकि उरांवों को दो बार रोहतासगढ़ से पलायन करना पड़ा। पहली बार खरवारों के हमले में उरांवों ने पठार से उतरकर सोन नदी पार कर कोयल (सोन की सहायक नदी) के अंचल में बसेरा बनाया और दूसरी बार चेरों के हमले के बाद उरांवों ने पलायन कर राजमहल की पहाड़ी (झारखंड) में पहुंचकर ईसा के बाद 64 ईस्वी में नागवंश की नई राजधानी छोटा नागपुर (नाग-पुर अर्थात रोहतासगढ़ की स्मृति में) की स्थापना कर अपने प्रथम राजा फणीमुक्ता राय का राज्याभिषेक किया था। नागवंश के प्राचीन केेंद्र नाग-पुर (मौजूदा रोहतासगढ़) के पतन होने के बाद सदियों के समय के थपेड़ों और युद्ध के संघर्ष में नागवंशी उरांव खेत मजदूर बनकर रह गए। कुड़ुख बोली बोलने वाले उरांवों का एक लोकगीत आज भी प्रचलित है- रुईदास में सिरजलै रे मैना, नग-पुर अंडा पराय…।
कपिलेश्वर का शिलास्तंभ अशोक के अन्य शिलालेख जैसा
उड़ीसा के चक्रधर महोपात्रा ने आज से 47 साल पहले प्रकाशित अपनी पुस्तक (द रीयल बर्थ पैलेस आफ बुद्ध) में यह स्थापना दी थी कि महात्मा बुद्ध नेपाल के कपिलवस्तु में नहीं, बल्कि उड़ीसा के कपिलेश्वर में पैदा हुए थे। रुम्मनदेई में मिले अशोक के शिलालेख के आधार पर यह माना जाता रहा है कि बुद्ध नेपाल (कपिलवस्तु) में पैदा हुए। जबकि भुवनेश्वर के निकट कपिलेश्वर गांव में 1928 में रुम्मनदेई अभिलेख के आशय जैसा ही शिलालेख खोजा गया, जो बुद्ध की मृत्यु के 240 साल बाद सम्राट अशोक द्वारा खुदवाया गया था। कपिलेश्वर को पुराने रिकार्ड में लेम्बेई कहा जाता था और इस नाम का एक गांव भी कपिलेश्वर के नजदीक है। कपिलेश्वर का शिलास्तंभ लिखावट और रंग-रूप में अशोक के अन्य शिलालेख जैसा दिखता है। जबकि कपिलवस्तु (नेपाल) का शिलालेख अशोक के अन्य शिलालेख से रंग-रूप व लिखावट में भिन्न दिखता है और अशोक काल के बाद का लगता है।
बुद्ध ने अपने को बताया था तोशिला वासी, उड़ीसा का अति प्राचीन नाम है तोशिला
प्राचीन बौद्ध साहित्य सुत्तनिपात्त में बताया गया है कि महात्मा बुद्ध ने अपने को तोशिला का वासी बताया हैं, जो जम्बूद्वीप के मध्य क्षेत्र में स्थित मांझी देश में है। उड़ीसा का एक प्राचीन नाम कलिंग के अलावा तोशिला भी है। महात्मा बुद्ध के जीवित रहने के समय और उनकी मृत्यु के बाद उड़ीसा में बौद्ध उपदेश-मत को व्यापक तौर पर संरक्षित किया गया था। जब शैव संप्रदाय-संस्कृति का वर्चस्व उड़ीसा में बढ़ा, तब कपिलेश्वर और लेम्बई अपभ्रंश होकर कपिलवस्तु और लुम्बिनी हो गए। आज कपिलेश्वर का अशोक कालीन शिलालेख (शिलास्तंभ) शिवलिंग के रूप में भुवनेश्वर के मंदिर में पूजा जाता है। कुशीनीरा में मौजूदा मलय लोग बुद्ध की देखभाल इसी रूप में करते रहे हैं। कोणार्क मंदिर के पीछे ही मायादेवी मंदिर है। माया देवी बुद्ध की मां थीं। कलिंग के राजा ब्रहमदत्त ने बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके दांत को प्राप्त किया था, जिससे उनकी राजधानी (राजा ब्रह्म्ïादत) को दंतपुर भी कहा जाने लगा था।
इतिहासकारों-पुरातत्वविदों से अपेक्षा
अब प्रकाश में आए नए साक्ष्यों के आलोक में इतिहासकारों-पुरातत्वविदों और इतिहास की मान्य संस्थाओं से यह अपेक्षित है कि वे निरीक्षण-परीक्षण कर अपने विचार देश-दुनिया के सामने रखें, क्योंकि तथ्य-सत्य के अंतिम निष्कर्ष के अधिकारी वही हैं।
तस्वीरें : अवधेशकुमार सिंह, उपेन्द्र कश्यप, निशांत राज, अमूल्य मोहंती