ब्रिटिश राज के प्रथम विद्रोही

आंचलिक पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘सोनमाटीÓ ने कई मीलस्तंभ कार्य किया है, जिनमें में से एक है ब्रिटिश राज का भारत में सबसे पहले विरोध करने वाले बिहार के विद्रोही राजा नारायण सिंह के गुमनाम इतिहास को सामने लाना। राजा नारायण सिंह के पुरखों द्वारा सात शताब्दी पहले सोनघाटी के पाश्र्व में स्थापित किए गए राजवंश (पवईगढ़) और इस वंश के 20वींसदी में अवशेष रूप में बचे गढ़-गांव और वंश के अंतिम जमींदार से पहली बार देश-दुनिया को परिचित कराने के श्रम-समय साध्य शोधपूर्ण कार्य का श्रेय सोनमाटी को है। राजा नारायण सिंह की रियासत (पवईगढ़) का शासन-केेंद्र बटाने नदी के किनारे लघु पहाड़ी की तलहटी में पवई गांव (औरंगाबाद जिला) में था, जिसकी सीमा उत्तर में सोन नद के किनारे अंछा (दाउदनगर), पूरब में गोह (औरंगाबाद) और पश्चिम में बारुन से आगे सोन पार मकराईं (डेहरी-आन-सोन), अमझोर (रोहतास जिला) तक विस्तृत थी। पवईगढ़ की रियासत (सरकार) के अधीन 2800 गांव थे। राजा नारायण सिंह ने ब्रिटिश शासन का उसके एकदम शुरुआती दौर में ही प्रबल विरोध किया था। तब भारतीय समाज में राष्ट्रीयता नामक प्रवृत्ति का विकास नहींहुआ था, जिसके अभाव में अंग्रेजी राज के विरुद्ध उनकी मुखालफत संगठित और व्यापक नहींहो सकी। मगर अंग्रेजी राज से उनका आरंभिक विद्रोह जन स्वीकार्य हुआ और आगे चलकर बिहार में राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम का प्रेरणा-स्रोत बना। उनकी मृत्यु के बाद की अगली सदी में अंग्रेजों के खिलाफ 1857 का संगठित विद्रोह कुंवर सिंह-अमर सिंह के नेतृत्व में सामने आया। वीर कुंवर सिंह के रिश्तेदार और स्वाधीनता संग्राम के उनके सहयोगी राजा नारायण सिंह की ही अगली पीढ़ी के वंशज थे।                                                                                           – कृष्ण किसलय, समूह संपादक, सोनमाटीडाटकाम

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शोध-खोज को व्यापक सामाजिक स्वीकृति
प्रियवर किसलय जी, सोनमाटी, आर्यावर्त, नवभारत टाइम्म, हिन्दुस्तान में राजा नारायण सिंह पर आपकी रिपोर्ट और फिर सत्यकथा में राजाजी (राजा नारायण सिंह) की विस्तृत कहानी को देख-पढ़ कर अति प्रसन्नता होती रही है। राजाजी के दो सौ साल पुराने अपरिचित गौरवशाली इतिहास को सामने लाने के लिए आपके प्रयास की सभी मुक्तकंठ प्रशंसा करते रहे हैं। अचानक महत्वपूर्ण हो उठे राजा नारायण सिंह को लेकर जो कुछ हो रहा है, उसका श्रेय आपको जाता है। इससे मिली प्रेरणा के बाद राजाजी की 200वीं पुण्यतिथि औरंगाबाद नगर भवन में 12 नवम्बर 1993 को मनाई जाएगी। उस अवसर पर आपकी उपस्थिति होगी, ऐसा विश्वास है।

-ब्रजेश्वरनारायण सिंह, मुखिया, पवई पंचायत,(जिला औरंगाबाद)

मान्य भाई, 24 अप्रैल 1994 को प्रसिद्ध साहित्यकार-सांसद शंकरदयाल सिंह ने पवई में कार्यक्रम रखा है। वह दादाजी (स्व. वीरकेश्वरनारायण सिंह) की मूर्ति का अनावरण करेंगे। आपके प्र्रयास (लेखन) से ही सवा दो सौ साल पहले का इतिहास सामने आया, जिससे पवई गांव चर्चा और सम्मान की स्थिति में पहुंचा है।

-नृपेश्वरनारायण सिंह, अधिवक्ता, पवईराज निवास, औरंगाबाद

प्रिय किसलय जी, हमें राजा नारायण सिंह की स्मृति के लिए प्रयासरत रहना है। शुरुआत तो आपने ही की थी।

-कृष्णानंद पांडेय, पूर्व वरिष्ठ लेखापरीक्षा अधिकारी, पवई (औरंगाबाद)

मगर देखिए यह सोच…
बहुप्रिय किसलय जी, राजा नारायण सिंह से संबंधित पिछले वर्षों में आपके समाचार, विशेष रिपोर्ट, लेख के बाद विस्तृत सत्यकथा को पढ़कर आपकी शोध-प्रवृत्ति और प्रस्तुति-शिल्प से मन प्रफुल्लित हो गया। आपने अपनी खोजपूर्ण पत्रकारिता से समाज, राज्य व राष्ट्र का कल्याण किया है। मगर अफसोस यह है कि जिसकी कलम ने सात सौ साल के इतिहास को कुरेदा और गुमनाम विद्रोही (स्वतंत्रता सेनानी) का मार्मिक स्मरण कराया, उसे औरंगाबाद के समारोह में प्रशासनिक-राजनीतिक लोगों द्वारा सम्मान के साथ बुलाने की बात तो दूर आधिकारिक औपचारिक आमंत्रण देने की जरूरत भी नहीं समझी गई। यह मौजूदा समाज के मानसिक दिवालियापन का उदाहरण है। शायद चोर दरवाजे से कई लोगों ने राजा नारायण सिंह के इतिहास को सामने लाने का श्रेय खुद लेना चाहा होगा।

-श्रीशचंद्र मिश्र सोम, वरिष्ठ नाटककार, ज्ञानगंगा, दाउदनगर


आधुनिक इतिहास के अध्येता एवं महिला कालेज (डेहरी-आन-सोन) के प्राचार्य डा. अशोककुमार सिंह का कहना है कि सरकार को राजा नारायण सिंह से संबंधित पुरा-अवशेष का भविष्य की पीढ़ी के लिए संरक्षण करना चाहिए और देश के बड़े इतिहासकारों को इस दिशा में कार्य कर उनके प्रामाणिक इतिहास को सामने लाना चाहिए, ताकि नई पीढ़ी स्वाधीनता संग्राम के आरंभिक बीज-तत्व के बारे में सटीक ज्ञान प्राप्त कर सके।

 

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राजा नारायणसिंह की कहानी, जो सोनमाटी और मित्रप्रकाशन,इलाहाबाद की बहुप्रसारित मासिक सत्यकथा (1993) में प्रकाशित हुई थी।   पुनप्र्रस्तुति संयोजन : मिथिलेश दीपकनिशांत राज                                  तस्वीर : उपेन्द्र कश्यप
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ब्रिटिश राज के प्रथम विद्रोही 

-लेखक : कृष्ण किसलय

भारत के मुगल सम्राट शाह आलम से 16 अगस्त 1965 को ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल (आज के पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बांग्लादेश) की दीवानी का अधिकार प्राप्त किया था। तब तक अंग्रेजों (ईस्ट इंडिया कंपनी) की तिजोरी का दिवाला फ्रांसिसी, डच, मराठा और हैदरी अली के साथ हुए युद्ध में निकल चुका था। कंपनी (ईस्ट इंडिया कंपनी) ने दीवानी (लगान, अन्य राजस्व) से अधिकाधिक आय के लिए देशी रियासतों को मनमाने तरीके से ठेका (वार्षिक किराया) पर देने लगी। ठेकापद्धति के कारण मुगल राज में देशी रियासतों की टिमटिमा रही सत्ता कंपनी शासन में बुझने लगी। इससे देशी रियासतों के कंपनी के आर्थिक सम्राज्य में विलीन होने के सिलसिले की शुरुआत हुई। ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड आफ डायरेक्टर ने २0 अक्टूबर 1773 को बंगाल का अपना प्रथम गवर्नर जनरल ंऔर सेना नायक भी वारेन हास्टिंग्स को बनाया, जिसने लगान वसूलने की पंचवर्षीय व्यवस्था का सूत्रपात किया। हास्टिंग्स ने लगान प्रशासन को संहिताबद्ध किया और लगान वसूली प्रक्रिया लागू करने के लिए माल अदालतों का गठन किया। रिसायतों से लगान वसूलने का ठेका नीलामी के आधार पर उन्हें सौंपा जाने लगा, जो ऊंची डाक बोलते थे। १८वीं सदी के सातवें-आठवें दशक (1769-73) में पूरे बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था, जिसमें भुखमरी से करीब एक करोड़ लोग मौत के गाल में समा गए थे। लाखों की संख्या में बिहार के क्षेत्र में भी मौत हुई थी। तब भी अंग्रेजों ने राक्षसी कु-नीति अपनाते हुए निर्ममता-क्रूरता से राजस्व वसूली की।

अकाल के बावजूद शैतानी फरमान
तब पवईगढ़ (सिरिस-कुटुम्बा रियासत) बिहार में अपनी स्वतंत्र सत्ता वाली अविभाजित भारत की 622 रियासतों में एक था, जिनकी अपनी सरकार, सेना, खजाना, जमीन और अपनी रियाया (आबादी) थी। पवईगढ़ बिहार की पहली रियासत थी, जिसने अंग्रेजों के पैशाचिक लगान वसूली प्रक्रिया का मुखर विरोध किया। पवईगढ़ ने ईस्ट इंडिया कंपनी से अकाल वाले साल के लिए अपनी रियासत की मालगुजारी माफ करने की गुजारिश के साथ राहत कार्य चलाने की मांग की। अंग्रेज कलक्टर ने भी कम्पनी सरकार (बोर्ड आफ डायरेक्टर्स) को रिपोर्ट में लिखा कि सिरिस-कुटुम्बा रियासत की स्थिति मालगुजारी वसूलने की नहींहै, घास के अलावा फसल नहींके बराबर हुई है। उत्तर में कलक्टर को कंपनी सरकार का यह जवाब आया कि घास अच्छी चीज है, उसी को बिकवा कर मालगुजारी वसूल करें। पवईगढ़ पहले से ही मुगल सल्तनत को कर (मालगुजारी आदि टैक्स) चुकाने में समर्थ नहींथा। अकाल के बावजूद अंग्रेजों (कंपनी सरकार) की शैतानी फरमान से पवईगढ़ के तरुण उम्र राजा नारायण सिंह के तन-बदन में जैसे आग लग गई। उन्होंने इस फरमान का कड़ा विरोध किया और प्रतिज्ञा की कि अंग्रेजों को फूटी कौड़ी नहींदेंगे। यह भारत में अंग्रेजी राज के विरुद्ध पहली खुल्लमखुला बगावत और नारायण सिंह द्वारा फूंकी गई आजादी की जंग की आरंभिक दुंदुभी थी।
12 जून 1757 को पलासी (कोलकाता और मुर्शिदाबाद के बीच) के युद्ध में गवर्नर राबर्ट क्लाइब ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराकर भारत में अंग्रेजी राज की नींव रखी थी। इसके बाद 1764 में 23 अक्टूबर को बिहार के बक्सर जिले के चौसा के मैदान में दिल्ली के मुगल बादशाह शाह आलम, अवध के नवाब (लखनऊ) व दिल्ली सल्तनत के वजीर शुजाउद्दौला और रामनगर (बंगाल-यूपी सीमा पर स्थित बनारस) के राजा चेत सिंह और बंगाल के नवाब मीर कासिम की सेना की संयुक्त मोर्चा ने युद्ध किया, जिसमें अंग्रेजी फौज की ही जीत हुई। इसके बाद तो बंगाल पर अंग्रेजी राज की पक्की नींव पड़ गई और दिल्ली के बादशाह से उसी समय सिरिस-कुटुम्बा की गद्दी (पवईगढ़) पर किशोर वय राजा नारायण सिंह का राज्याभिषेक हुआ था।

13वीं सदी में पृथ्वीराज चौहान के वंशज ने की थी पवईगढ़ राजवंश की स्थापना 

पवईगढ़ राजवंश में विष्णु सिंह एक प्रतापी राजा थे, जिन्होंने कोल-राज (आदिवासी सरदार) से पलामू क्षेत्र के घिरसिंडी और परमार वंश के नवीनगर क्षेत्र को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया था। विष्णु सिंह के समय पवईगढ़ के अधीन रामनगर बाजार (मौजूदा टंडवा) से सवा सेर सोने की कीमत के बराबर राजस्व प्राप्त होता था। पवईगढ़ राजवंश की स्थापना 13वींसदी में पृथ्वीराज चौहान के काका (चाचा) कान्हदेव के वंशज उज्जैनी राजपूत बंधु रायभान सिंह व हरभान सिंह ने की थी, जो मुस्लिम हमलावरोंं के दबाव से पलायन कर संवत 1305 (1249 ईस्वी) में सोनघाटी के विस्तृत मैदानी क्षेत्र के वनाच्छादित कीकट देश (बिहार-झारखंड के क्षेत्र) चले आए थे। यहां उन्होंने चेर राजा (कोल भील कुल) को मारकर क्षत्रिय राजवंश की नींव डाली और अपनी सत्ता का केेंद्र पवई में रख अपने राज-क्षेत्र का विस्तार किया। बड़े भाई रायभान सिंह पवई में रहे। छोटे भाई हरभान सिंह कर्मा के राजा बने।
खून के तिलक से राज्याभिषेक
अंग्रेज कलक्टर ओमेलो के समय के डिस्ट्रिक्ट गजट से पता चलता है कि रायभान सिंह के वंश में राजा विष्णु सिंह निसंतान थे। उनके छोटे भाई की रानी पुष्पावती ने अपने कुल की दूसरी शाख के नवजात शिशु को गोद लिया था, जिसका नाम रखा गया था पृथ्वीपति। 1764 में विष्णु सिंह की मृत्यु के बाद पृथ्वीपति के राजतिलक की पूर्व-तैयारी निकटवर्ती मालीगढ़ के चित्रसारी किले में चल रही थी। पवईगढ़ और मालीगढ़ में उन दिनों जारी शत्रुता-षड्यंत्र की रस्साकशी में पवईगढ़ की शीर्ष सत्ता से जुड़े लोगों को पृथ्वीपति का राज्याभिषेक स्वीकार नहींथा। पूर्व योजना के तहत पवईगढ़ के दो राजभक्तों खुशहाल सिंह (तेन्दुआ, नवीनगर) और रहम सिंह (रहमबिगहा, कुटुम्बा) के नेतृत्व में चित्रसारी किले में पृथ्वीपति को तलवार से मौत के घाट उतार दिया गया। पृथ्वीपति के ताजे रक्त से तिलक लगाकर चित्रसारी किले के बाहर ही बबूल पेड़ के नीचे पवईगढ़ के राजकुमार नारायण सिंह का राज्याभिषेक किया गया, जो विष्णु सिंह के दूसरे छोटे भाई श्रीकुमार सिंह के पोते थे। इस तरह खूरेंजी जिद्दोजहद के बीच राजा बने नारायण सिंह मालगुजारीदेने की असमर्थता के कारण सत्ताच्युत नहींहोना चाहते थे।
पवईगढ़ रियासत में छह परगने गया जिले के चिरकांवा, गोह, औरंगाबाद जिले के सिरिस, कुटुम्बा, अंछा, और रोहतास जिले का सोनतटीय पंचवन (डिहरी, तिलौथू, अकबरपुर) क्षेत्र थे। 2800 गांवों वाले इस रियासत का प्रशासनिक गढ़ (कचहरी) शाहपुर (औरंगाबाद शहर के मौजूदा शाहपुर मुहल्ला में यादव कालेज के निकट) और आवासीय गढ़ शाहपुर से आठ किलोमीटर दूर बटाने नदी के किनारे पवई में था। राजा नारायण सिंह के राजकाल में उनकी प्रतिष्ठा में यह कविता लिखी गई थी-‘इत अंछा, उत चिरकावां, सिरिस, कुटुम्बा, पंचवन, गोह। अष्टविंशा ग्राम शत, राज करत नृप सोहÓ।।
इतिहास के आवृत तथ्यों के आधार पर यह धारणा रही है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सशस्त्र क्रांति का संगठित आरंभ बिहार में 1857 में जगदीशपुर (भोजपुर) के जमींदार बाबू कुंवर सिंह ने किया था। लेकिन, सच यह है कि क्रांति की चिनगारी सन संतावन के व्यापक प्रतिरोध से 75 साल पहले 05 मार्च 1782 को तीन किलोमीटर चौड़ी पाट के कारण समुद्र जैसी दिखने वाली सोन नदी में डेहरी-आन-सोन और बारून के बीच फूटी थी, जब राजा नारायण सिंह ने फिरंगियों की फौज की पूरी पलटन को  सोन नदी में डुबवा दिया था। जिस कालखंड में विश्व में अंग्रेजी साम्राज्य का सूरज नहीं डूबता था, वैसे समय में उस साम्राज्य की प्रतिनिधि ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज से टक्कर लेने का दुस्साहस नवयुवा राजा ने किया था। तब तक बिहार में बिरसा मुंडा जैसा जननायक पैदा नहींहुआ था। यहां के लोग गुरिल्ला युद्ध का नाम नहींजानते थे। कुंवर सिंह और झांसी की रानी जैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महारथी पैदा नहींहुए थे। और,1942 के स्वाधीनता आंदोलन के सर्वव्यापी प्रचंड रूप के प्रकट होने में 160 साल की देर थी।
जब सोन नदी में डूबीं नावें
1780 में बंगाल (बिहार सीमा) के बाद उत्तर प्रदेश में रामनगर (बनारस) के राजा चेत सिंह से ईस्ट इंडिया कंपनी ने सालाना टैक्स 22.5 लाख रुपये के अलावा मैसूर युद्ध के नाम पर पांच लाख रुपये और दो हजार घुड़सवारों की मांग की थी। उस वक्त के हिसाब से उतना बड़ा सैन्य बल और उतनी बड़ी रकम देने में राजा चेत सिंह ने असमर्थता जाहिर की। नकारात्मक उत्तर पर गवर्नर जनरल वारेन हास्टिंग्स ने चेत सिंह पर 50 लाख रुपये का जुर्माना लगाया और जुर्माने की रकम वसूलने फौज लेकर कोलकाता से बनारस के लिए चल पड़ा। वारेन हास्टिंग्स की मदद के लिए झारखंड के चतरा से कमांडर जेम्स क्राफोर्ड के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज की पलटन शेरशाह सूरी पथ (जीटी रोड) पर बनारस की ओर बढ़ी। जीटी रोड के बीच सोन नदी पड़ती थी, जिसकी एक ओर औरंगाबाद का बारून (सोननगर रेल स्टेशन के करीब) और दूसरी ओर रोहतास का देहरी घाट (डेहरी-आन-सोन) था। जेम्स क्राफोर्ड ने राजा नारायण सिंह को आदेश भेजा कि वह फौज को सोन नदी पार करने के लिए अपने मल्लाहों को नावों का पुल बनाने के लिए कहें। मेजर के आदेश के मुताबिक सोन नदी में सैकड़ों नावें तैरने लगीं। अंग्रेजी फौज के सिपाही अपने सैन्य साजोसमान के साथ नावों पर सवार हुए। अचानक नदी की बीच धारा में पहुंचने पर नावें डुबनी शुरू हो गईं। यह राजा नारायण सिंह की बुद्धिमत्ता से तैयारी की गई गुप्त योजना थी। राजा नारायण सिंह के विश्वस्त मल्लाहों ने पूरी अंग्रेजी पलटन को जलसमाधि दे दी।
इस घटना के बाद राजा नारायण सिंह अंगरक्षकों के साथ कैमूर पर्वत की तलहटी में पंचवन क्षेत्र (तिलौथू-अमझोर-बौलिया के जंगल) में छिप गए। इस बीच ईस्ट इंडिया कंपनी ने कर्नल वार्कर के नेतृत्वव में सिरिस-कुटुम्बा रियासत में फौज भेज कर प्रशासनिक गढ़ शाहपुर और आवासीय गढ़ पवई के साथ इस रियासत की निकटवर्ती लालपहाड़ी स्थित छोटी फौजी छावनी काो नष्ट कर दिया। इसके बाद कंपनी सरकार ने राजा नारायण सिंह पर नजर रखने के लिए गया-औरंगाबाद जिले की सीमा पर शेरघाटी में स्थाई फौजी छावनी बनाई और देहरी घाट पार सेना पड़ाव स्थल (डेहरी-आन-सोन का मौजूदा पड़ाव मैदान) बनाया।

राजा के विश्वस्त मल्लाहों ने पूरी अंग्रेजी पलटन को सोन में  दे दी जलसमाधि 

1780 में बंगाल (बिहार सीमा) के बाद उत्तर प्रदेश में रामनगर (बनारस) के राजा चेत सिंह से ईस्ट इंडिया कंपनी ने सालाना टैक्स 22.5 लाख रुपये के अलावा मैसूर युद्ध के नाम पर पांच लाख रुपये और दो हजार घुड़सवारों की मांग की थी। उस वक्त के हिसाब से उतना बड़ा सैन्य बल और उतनी बड़ी रकम देने में राजा चेत सिंह ने असमर्थता जाहिर की। नकारात्मक उत्तर पर गवर्नर जनरल वारेन हास्टिंग्स ने चेत सिंह पर 50 लाख रुपये का जुर्माना लगाया और जुर्माने की रकम वसूलने फौज लेकर कोलकाता से बनारस के लिए चल पड़ा। वारेन हास्टिंग्स की मदद के लिए झारखंड के चतरा से कमांडर जेम्स क्राफोर्ड के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज की पलटन शेरशाह सूरी पथ (जीटी रोड) पर बनारस की ओर बढ़ी। जीटी रोड के बीच सोन नदी पड़ती थी, जिसकी एक ओर औरंगाबाद का बारून (सोननगर रेल स्टेशन के करीब) और दूसरी ओर रोहतास का देहरी घाट (डेहरी-आन-सोन) था। जेम्स क्राफोर्ड ने राजा नारायण सिंह को आदेश भेजा कि वह फौज को सोन नदी पार करने के लिए अपने मल्लाहों को नावों का पुल बनाने के लिए कहें। मेजर के आदेश के मुताबिक सोन नदी में सैकड़ों नावें तैरने लगीं। अंग्रेजी फौज के सिपाही अपने सैन्य साजोसमान के साथ नावों पर सवार हुए। अचानक नदी की बीच धारा में पहुंचने पर नावें डुबनी शुरू हो गईं। यह राजा नारायण सिंह की बुद्धिमत्ता से तैयारी की गई गुप्त योजना थी। राजा नारायण सिंह के विश्वस्त मल्लाहों ने पूरी अंग्रेजी पलटन को सोन में जलसमाधि दे दी

इस घटना के बाद राजा नारायण सिंह अंगरक्षकों के साथ कैमूर पर्वत की तलहटी में पंचवन क्षेत्र (तिलौथू-अमझोर-बौलिया के जंगल) में छिप गए। इस बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्नल वार्कर के नेतृत्वव में सिरिस-कुटुम्बा रियासत में फौज भेज कर प्रशासनिक गढ़ शाहपुर और आवासीय गढ़ पवई के साथ इस रियासत की निकटवर्ती लालपहाड़ी स्थित छोटी फौजी छावनी काो नष्ट कर दिया गया। इसके बाद कंपनी सरकार ने राजा नारायण सिंह पर नजर रखने के लिए गया-औरंगाबाद जिले की सीमा पर शेरघाटी में स्थाई फौजी छावनी बनाई और देहरी घाट पार सेना पड़ाव स्थल (डेहरी-आन-सोन का मौजूदा पड़ाव मैदान) बनाया।
प्रशासनिक दुर्ग, आवासीय गढ़ व सैन्यछावनी नष्ट किए जाने के बावजूद राजा नारायण सिंह ने आतातायी अंग्रेजों के सामने नतमस्तक होना स्वीकार नहीं किया और पूरे साहस के साथ विद्रोही तेवर बरकरार रखा। राणा प्रताप की तरह पंचवन की गुफाओं में शरण ले रखे बिहार के इस राजा ने बनारस के राजा चेत सिंह के श्वसुर पिताम्बर सिंह (टेकारी, गया), चेत सिंह के फौजदार बेचू सिंह और सासाराम परगना के आमिल (वित्त प्रमुख) कुली खां की मदद से तीन-चार सौ लड़ाकूओं को संगठित किया। वह मौका देख जीटी रोड या पवईगढ़ की ओर आने वाली अंग्रेजी फौज पर गुरिल्ला हमला करते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1783 में बंगाल के नवाब अशरफ अली खां के बेटा बाबर अली खां को पवई रियासत से मालगुजारी वसूलने का ठेका डेढ़ लाख रुपये में दे दिया। मगर बाबर अली खां पवई़ रियासत से माल वसूल करने में सफल नहीं हुए। तब वह जमाना था, जब राजशाही की सियासी लड़ाई में प्रजा सहभागी नहींहोती थी। रियासतों के शासकों को ही युद्ध की कमान संभालनी पड़ती थी। प्रजा जानती थी कि जो जितेगा, उसके लिए भी मालगुजारी देने की बोझ पड़ेगी। पवई रियासत के किसानों (खेत मालिकों) ने अंग्रेजों के लिए मालगुजारी देना बंद कर दिया। संभवत: फिरंगियों के प्रति राजा नारायण सिंह द्वारा प्रजा के जेहन में बोई गई घृणा का प्रतिफल था। शायद दूसरी वजह यह थीकि उनका राजा अंग्रेजों के न तो हाथ आया और न मारा गया है।

धोखा देकर राजा की गिरफ्तारी
जब राजा नारायण सिंह ने रोहतास में भैरवां (या भैंसहा) के पास अंग्रेजी फौज को आगे बढऩे से रोका और मार-काट की, तब अंग्रेजों ने यह माना कि राजा के स्वतंत्र रहते कंपनी सेना व प्रशासन चैन की नींद नहींसो सकते। शेरघाटी के उप समाहर्ता चार्टर्स ने गवर्नर जनरल को रिपोर्ट भेजी थी कि राजा नारायण सिंह शांति भंग कर सकता है। कंपनी की फौज राजा को गिरफ्तार करने में सफल हुई।उन्हें पटना में गवर्नर से वार्ता करने के धोखे में गिरफ्तार किया गया था। जंगल से उन्हें लाने के लिए डोली और घुड़सवार भेजकर राज-सम्मान देने का नाटक किया गया। राजा अपने भाइयों-पट्टीदारों से मंत्रणा कर पटना गए। पटना में उन्हें महाराजा की उपाधि देने का लोभ दिया गया। राजा की धमनियों में तो मुस्लिम शासकों से सदियों से टक्कर लेते आए पृथ्वीराज चौहान के वंश का रक्त बह रहा था। गवर्नर से उन्होंने दोटूक शब्दों में कहा, अंग्रेज बिहार को बख्श दें। राजा को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 5 मार्च 1786 को कालापानी की सजा सुनाई गई और बतौर राजबंदी ढाका के बेगम हवेली जेल भेजा गया।

विवशता में ईस्ट इंडिया कंपनी ने पवई रियासत की जमींंदारी राजा को ही बंदोबस्त की
1790 में राजा नारायण सिंह ढाका जेल से मुक्त हुए। विवशता में ईस्ट इंडिया कंपनी ने पवई रियासत की जमींंदारी उन्हें ही सालाना 1.60 लाख रुपये में बंदोबस्त कर दी। यातानापूर्ण कारावास के कारण उनका शरीर रुग्ण हो चुका था। कार्तिक (नवम्बर) 1794 में उनकी मृत्यु हो गई। राष्ट्रीयता के अभाव और रियासतों के अलग-थलग रहने के कारण राजा नारायण सिंह का विद्रोह उनके जीवनकाल में संगठित नहींहो सका। तब न तो स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि थी और न ही देश के भविष्य का कोई ब्लूप्रिंट था। नारायण सिंह की बगावत की मुख्य वजह शोषक विदेशी हुकूमत के प्रति घृणा थी। कंपनी सरकार ने राजा की मृत्यु के बाद पवई रियासत की जमींदारी नीलाम कर कोलकाता के श्यामबिहारी मित्र (जिनके नाम पर कोलकाता का शाम या श्याम बाजार है) दे दी और विश्वासपात्रों को रियासत के गांवों में बसाया।
पटना, गया, औरंगाबाद, रोहतास में मौजूद दस्तावेज इस बात के प्रमाण है कि खून के आपसी रिश्तों में जुड़े विभिन्न सिरिस, कुटुम्बा, माली, शेरघाटी, बनारस, जगदीशपुर आदि के जमींदारों द्वारा आक्रामक अंग्रेजों के बहिष्कार-विरोध की लगभग एक सदी की निरंतर दुर्घर्ष प्रवृत्ति ही सन सत्तावन के उत्कट विद्रोह के रूप में विकसित परिणत हुई, जब जगदीशपुर, आरा (बिहार) के जमींदार बाबू कुंवर सिंह के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सशस्त्र संघटित विद्रोह प्रारंभ हुआ। राजा नारायण सिंह की पत्नी गुलाब कुंवर भोजपुर की थीं।

शेरघाटी के उप समाहर्ता एच. डेविड की अनुशंसा पर पटना के आयुक्त स्टार्टन ने कुंवर सिंह को सहयोग देने के आरोप में औरंगाबाद जिला (पूर्व में जिला बिहार या गया) के जिन 12 मालदारों (भूस्वामियों) की संपत्ति जब्त करने का आदेश दिया था, उनमें अनेक राजा नारायण सिंह के वंशज थे। कुंवर सिंह को सहयोग देने वालों के नाम भानुप्रताप सिंह, दर्शन सिंह (माली), बालगोविन्द सिंह (बरहड़ा), जग्गू सिंह (उरनाडिह), जगदम्बा सहेरी (मुनौरा), लालबहादुर सिंह (मुठानी), महाबल सिंह (मिर्जापुर), शेख चौकोरी (घोटा), पिताम्बर सिंह, अयोध्या सिंह (मुहौली) और जगन्नाथ सिंह (सिमरा) हैं। राजा नारायण सिंह का कोई पुत्र नहींथा। उन्होंने अपने छोटे भाई के पुत्र जयनाथ सिंह को गोद लिया था। जयनाथ सिंह एक सिद्धहस्त कवि थे, जिनकी कई कविताएं उस समय की फारसी की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं।

बगावत का ऐतिहासिक महत्व
राजा नारायण सिह की बगावत का ऐतिहासिक महत्व इसलिए है कि इनका ही संघर्ष राष्ट्रीय स्वधीनता आंदोलन का प्रेरणास्रोत बना। मगर अफसोसनाक बात यह है कि अंग्रेजी राज से बगावत करने वाले इस बागी राजा के नाम पर कोई महत्वपूर्ण स्मारक नहींहै। यहां तक की इतिहासकारों ने उनकी शौर्यगाथा लिखने की भी जरूरत नहींसमझी और न ही सरकार व समाज द्वारा उनके किले (पवईगढ़) की सुरक्षा की गई। खंडहर बने किले की इमारत लगभग जमींदोज हो चुकी है। लोग उसकी नींव के पास की मिट्टी काटकर ले जाते हैं और मिट्टी कटने से बनी भूगर्भ सतह से झांकते बर्तनों के प्राचीन टुकड़े पवईगढ़ की नारकीय बदहाली पर आंसू बहा रहे हैं। पवई का सदियों पुराना तालाब लगभग भर चुका है और तालाब निर्माण के वक्त बना प्राचीन मंदिर वक्त के थपेड़ों में नष्ट होकर जमीन पर सिर्फ टोपी (गुम्बज अवशेष) के रूप में बचा हुआ है। जबकि सोनघाटी के विस्तार की दृष्टि से देखा जाए तो शैव व आर्य संस्कृतियों के संघर्ष-मिलन के अंतिम स्थल रहे पवईगढ़ का इतिहास राजा नारायण सिंह से भी साढ़े चार सौ साल पहले का है।
अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इतिहासकार कालीकिंकर दत्त ने पुस्तक ‘कुंवर सिंह अमर सिंहÓ में भारत के बारे में कई सालों वाले एक सैनिक अफसर के हवाला देकर यह लिखा है कि बनारस के राजा चेत सिंह का विद्रोह पड़ोसी बिहार के विद्रोह की ही प्रतिक्रिया थी। बिहार के कई जमींदार ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ उठ खड़े हुए थे। कालीकिंकर दत्त ने लिखा है, उज्जैन राजपूतों के बिहार आगमन का इतिहास आख्यानों-दंतकथाओं में इस तरह घुला-मिला हुआ है कि उसे अलग नहींकिया जा सकता। उस समय का सही-सही प्रामाणिक विवरण भी अब कहींउपलब्ध नहींहै।

‘नारायण सो करण की……’
राजा नारायण सिंह के छोटे भाई जयनाथ सिंह के वंश में अंतिम जमींदार (1953 तक) वीरकेश्वरनारायण सिंह थे, जिन्होंने आयुक्त बनाने का अंग्रेजी सरकार का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। उनसे अनुग्रहनारायण सिंह, सत्येन्द्रनारायण सिंह जैसी दिग्गज राजनीतिक हस्तियां भी विचार-मशवरा करती थीं। इस वंश की 8वींपीढ़ी के वरिष्ठ सदस्य मुखिया रहे ब्रजेश्वरनारायण सिंह का कहना था कि अपने बुजुर्गोंं से सुना है, पवई राज घराने की सदियों पुरानी गाथा फारसी की दुर्लभ पुस्तक ‘सैरूलमोताखरीनÓ में लिपिबद्ध है। देश की आजादी के बाद तो जिला, राज्य के राजनेताओं ने राजा नारायण सिंह के प्रति चुप्पी साध ली, क्योंकि राजा की प्रतिष्ठा के कारण पवई जनमानस का तीर्थस्थल बन जाता और सबका महत्व कम हो जाता। बहरहाल, बटाने नदी के किनारे एक विराने में महज दो गज जमीन पर बने राजा का छोटा-सा ‘समाधि-स्मारकÓ श्रद्धा के नियमित दो फूल से भी मोहताज दो सदी से अधिक वक्त से खामोश पड़ा हुआ है। ‘समाधि-स्मारकÓ के करीब पहुंचने पर उस बागी राजा के यश का बखान करता जयनाथ सिंह के दोहे की प्रतिध्वनि गूंजती महसूस होती है- ‘इत अंछा उत पलमुआ, इत चिरकावां उत रोहतास। नारायण सो करण की, सबही भये हतासÓ।।

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    One thought on “ब्रिटिश राज के प्रथम विद्रोही

    1. प्रिय संपादक महोदय कृपया मैं रियासतों में माली के अलावा सोनोरा रियासत पर भी आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा ये वही है देवी सिंह व प्रियव्रत नारायण सिंह जैसे जमींदार जिसकी जुड़ाव औरंगाबाद के पवई रियासत से है और सिरिस का योगदान की जानकारी कही वर्णित नही है कृपया इन रियासतों के विषय मे भी जानकारी एकत्रित कर अपने लेख में सम्मिलित करें ।
      ।। धन्यवाद ।।

      आशुतोष सिंह
      वाराणसी
      8115608004

    2. आपने लिखा की प्रथ्वीराज चौहान के काका कान्ह के वंशज उज्जैनी राजपूत ने की । महोदय उज्जैनी राजपूत परमार/पंवार वंश की शाखा है जो चौहानो से भिन्न है ।जगदीशपुर ,डुमराव ये उज्जैनी राजपुतो की रियासते है तथा परमार है जो उज्जैन से आकर बसे थे

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