सोन-तट का उस्ताद शायर : नासेह नासरीगंजवी
- लक्ष्मीकांत मुकुल
यह 1994-95 की बात है। जब मैं बक्सर की गलियों में कविता की आवारगी में घूमा करता था। वह उर्दू के तरही मुशायरों का दौर था। उसी दरमियान बड़ी मस्जिद के ऐसे ही एक मुशायरे में नासेह नासरीगंजवी नामक एक शख्स मिले, जो औरों के खिलंदड़ स्वभाव से सर्वथा भिन्न थे। विनम्रता, सादगी और मौलिकता से भरे! पता चला कि वह यहां पर पदस्थापित डीसीएलआर मो. सुलेमान साहब के कवि- मित्र हैं और उन्हीं के बुलावे पर यहां आए हैं। तब बक्सर के उर्दू शायरी की दुनिया में हिरमा भोजपुरी, मंजर साहब, बाप साहब, कुमार नयन, शिकन साहब, दर्द साहब, अश्क साहब और विजयन जी बड़े ही महत्वपूर्ण नाम थे। नासेह नासरीगंजवी साहब के कई गुण मुझे बहुत अच्छे लगे। शायरी के प्रति उनका गंभीर ज्ञान वहां हो रही चर्चाओं में निर्णायक भूमिका निभाता था। हालांकि मेरे और उनके बीच उम्र और साहित्यिक प्रवृत्तियों का काफी फासला था- जैसे वे उस समय अधेड़ावस्था में पहुंच गए थे और मैं किशोरावस्था की आगोश में था। वे उर्दू में ग़ज़लगोई करते थे और मैं समकालीन हिंदी कविता की धारा में तैराकी सीख रहा था। जबकि उनकी और मेरी माली हालत समान प्रतीत हो रहे थे, जो हमारे पहनावे और फिजूलखर्ची में संकोच करने की आदतों से झलकते थे।
बरसों – दशकों बीत गए। उस शायर से हुई मुलाकातें ज़ेहन में बनी रहीं, उनकी सादगी मेरे आंतरिक दिल में जगह बनाई रही। जब कुछ वर्ष पहले मैं उर्दू सीख रहा था, तो मेरी इच्छा थी कि सीखने के बाद उस शायर की रचनाओं को पढ़ सकूं। मेरी इस तमन्ना को पूरा किया नासरीगंज निवासिनी शिक्षिका सुश्री यासमीन परवीन ने। उन्होंने उस बुजुर्ग शायर की अब तक प्रकाशित दो गजल संग्रह “गुलिस्तां – ए- आरजू” और “कलाम- ए नासेह” को मुझे पढ़ने के लिए उपलब्ध कराया। नासेह साहब एक उस्ताद शायर माने जाते हैं, जिन्होंने शायरी की दुनिया में वाजिद मुकाम हासिल किया है और नवोदित शायरों की रचनाओं का नोक पलक बखूबी तरीके से दुरुस्त करने और उन्हें शायरी कौशल का मार्गदर्शन करने का भी महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।
सोन नद के बाएं तट पर बसा नासरीगंज का इलाका साहित्यिक दृष्टि से पुरातन काल से बहुत ही उर्वर रहा है। सोन की कल- कल बहती धाराएं, वानस्पतिक विविधता, बालुका राशि से पुरित वहां की पीताभ धरती और प्राकृतिक वातावरण किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को कवि/ साहित्यकार बनाने की भरपूर क्षमता रखता है। वहां की मिट्टी-हवा-पानी में गजब का आकर्षण बल है। संस्कृत के महान गद्य- कवि बाणभट्ट की जन्मस्थली प्रीतिकूट उसका पड़ोसी स्थल है, तो बिहार की नदियों के भागीरथ हवलदार त्रिपाठी
सह्रदय, आठवें दशक के हिंदी के महत्वपूर्ण कवि अरुण कमल, कथाकार बनाफरचंद्र, भोजपुरी के लोकधर्मी कवि गंगा प्रसाद अरुण और कवि_ आलोचक हरेराम सिंह की जन्मभूमियां भी इसी क्षेत्र में हैं। नासरीगंज की साहित्यिक पृष्ठभूमि में उस्ताद शायर नासेह नासरीगंजवी की उपस्थिति साहित्यिक – सांस्कृतिक परिक्षेत्र, विशेषकर उर्दू अदब में अपना मुकम्मल स्थान रखती है।
नासेह नासरीगंजवी की गज़लों का मुख्य स्वर प्रेमबोध की अनुरागी भावनाओं से ओत प्रोत है। इश्क मिजाजी की शायरी के अनूठे रचनाकार के रूप में इनकी महत्तर पहचान बनती है। इनकी रचनाओं का प्रेम राग केवल दैहिक प्रेम और प्रेमालाप का उद्बोधन ही केवल नहीं कराता है, बल्कि प्रेम एहसासों में विस्तार पता हुआ मनुष्यता, सामाजिक परिवेश और सांसारिकता के भावबोध को अपने में समाहित कर लेता है। प्रेम ही एक ऐसा मूलभूत भावनात्मक आवेग होता है, जो जीव जगत के मूर्त- अमूर्त वस्तुओं में सजीविता और पूर्णता को प्राप्त करने की चेष्टा करता है। नासेह साहब की गज़लें ग़ज़ल विधा की शैली यथा भाषा, व्याकरण और संजीदगी पर खरी उतरती हुई मोहब्बत की अनेक दास्तानों को बड़ी सूक्ष्मता के साथ अभिव्यक्त करती हैं –
चैन दिल से नींद आंखों से चुरा ले जाएगा
जाएगा तन्हा मगर सब कुछ मेरा ले जाएगा
जिंदगी का हुस्न जीने की अदा ले जाएगा
बे निशां करके मुझे मेरा पता ले जाएगा
उससे कतरा कर गुजर जाएगा हर एक हादसा
साथ अपने वो बुजुर्गों की दुआ ले जाएगा
दौलतें गम से हूं मालामाल मुझको गम नहीं
मेरी खुशियों के सिवा वह और क्या ले जाएगा
जरद एक पत्ता है बस उस खौफ से सहमा हुआ
जाने कब झोंका कोई इसको उड़ा ले जाएगा
सोवियत संघ के सुप्रसिद्ध कवि रसूल हमजातोव ने अपनी पुस्तक “मेरा दागिस्तान” में कहा है कि कवि गण इसलिए पुस्तक लिखते हैं कि लोगों को युग और अपने बारे में, आत्मा की हलचल के संबंध में बता सकें, उनको अपनी भावनाओं और विचारों से अवगत करा सकें। संभवत: कविगण ही संसार के सर्वाधिक उदार व्यक्ति हैं। वे लोगों को सबसे ज्यादा मूल्यवान और वांछित चीज भेंट करते हैं। नासेह नासरीगंजवी भी अपनी जीवन में प्राप्त संचित अनुभवों, नसीहतों, ज्ञान परिधियों और अर्जित मूल्यों को पाठकों के समक्ष पेश करते हैं। यह भी उनका प्रेमबोध को प्रदर्शित करने का एक बेहतर तरीका है। अपनी एक ग़ज़ल में उनका कहना है कि-
खेत जब सरसों के पीले हो गए
मस्त रातें, दिन सफीले हो गए
उनकी यादों की चलीं पुरवइया
सबके यह लम्हे नशीले हो गए
उनके होठों से और होने के बाद
बोल गीतों के रसीले हो गए
मेरी गजलों, मेरी नज्में, मेरे गीत
मेरी सेहत के वसीले हो गए
अब न रखे उनसे नगमों की उम्मीद
साज दिल के तार ढीले हो गए
शाम गम नासेह ये डंस लेंगे मुझे
नाग फरकत के चटीले हो गए
नासेह साहब ने समय और समाज के मसलों, बदलते दौर में मूल्यों के क्षरण और देश- काल परिस्थितियों को बड़ी बारीकी से अपनी गज़लों का विषय बनाया है। आज का समय बहुत ही कठिन जीवनचर्या से भरा है। नई बनती समाजार्थिक व्यवस्था में जहां बाजारवाद अपनी नित नई चालों से पुरानी जड़ हो चुकी व्यवस्थाओं की चूलें हिला रहा है, वहीं कुछ ऐसे भी बदलाव हो रहे हैं, जिसने हमारे परिवार, सामाजिक संबंधों का ताना-बाना, हमारी तहजीब और सबसे खास हमारी दौलत गंगा – जमुनी संस्कृति नष्ट होने की कगार पर पहुंच गई है। जड़ हो चुके तत्वों का खात्मा तो अच्छा है, परंतु तहजीब ओ तमादुम को बचाए रखने वाली हमारी ताकतें कायम – दायम रहें, यही हमारे दौर – ए- जमाना की सबसे बड़ी जरूरत है। राजनीति समाज को लगातार तोड़ रही है। अब समय आ गया है कि अदब, तहजीब, कला- संस्कृति से जुड़े लोग इसके लिए सार्थक पहल करें। ऐसे दौर के हालात पर नासेह साहब अपनी भावनाओं को यूं व्यक्त करते हैं-
कच्ची दीवारें हैं घर खपरैल का
डर रहा हूं इसलिए बरसात से
जन्नतुल फिरदौस कहते हैं जिसे
वह मिलेगी सिर्फ मां की जात से
ए मेरे वक्त मुझे मत उलझ
मैं तो वाकिफ हूं तेरी औकात से
हार से मैं अपनी खुश हूं इसलिए
मेरा दुश्मन खुश है मेरी मात से
तू तो नासेह शायर गुमनाम है
कौन वाकिफ है तेरी खिदमात से
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समझ रहा हूं जिसे मेहरबान मेरा है
यकीन तो नहीं हां यह गुमान मेरा है
पनाह ढूंढने आखिर कोई कहां जाए
जमीन मेरी न ये आसमान मेरा है
हजारों टुकड़ों में तक्सीम कर दिया है जिसे
वह कुनबा मेरा है वह खानदान मेरा है
है चप्पे चप्पे पर इसके मरने निशाने कदम
कसम खुदा की ये हिंदुस्तान मेरा है
मैं अपने सीने में रखता हूं दर्दें इंसानी
खुदा का शुक्र है सारा जहां मेरा है
अभी तो मंजिलें इश्क व वफा है दूर बहुत
कदम कदम पर अभी इम्तिहान मेरा है
जमाना सुन के जिसे दम बखुद है नासेह
वह तेरा जिक्र है हुस्ने बयां मेरा है
नब्बे पतझड़ों – वसंतों को देख चुके नासेह नासरीगंजवी( मूल नाम_ मोहम्मद अबु नासेह) साहब नासरीगंज जैसे एक गुमनाम मुकाम पर रहते हुए भी और मुफलिसी में उच्च विचारों को आत्मसात करते हुए अब भी जीवंतता के साथ साहित्य साधना में लीन होकर नई पीढ़ी को अपना सर्वोच्च ज्ञान बांटने के कार्य में खुशमिजाजी के साथ तल्लीन हैं।
ऐसे महान शायर के सुखद, स्वस्थ और रचनात्मक जीवन के लिए कोटिशः मंगलकामनाएं निवेदित करता हूं।
संपर्क-
ग्राम – मैरा, पोस्ट – सैसड,
भाया – धनसोई ,
बक्सर
(बिहार) – 802117
ईमेल – [email protected]
मोबाइल नंबर – 6202077236