अरुण दिव्यांश की कविता: भुट्टा
वो देखो अनोखा भुट्टा ,
आग पे कैसे पक रहा है ।
भुट्टा देख मुॅंह पानी आया ,
दूर बैठ कोई तक रहा है ।।
भुट्टा बना मौसमी फल ,
कोई भुट्टा लेने जा रहे हैं ।
कोई बैठ बहुत प्रेम से ,
आग में भुट्टा पका रहे हैं ।।
बाजार से खरीद लाया ,
अग्नि में हम पका रहे हैं ।
मुॅंह तो है दाॅंतों से खाली ,
एकतरफा ही चबा रहे हैं ।।
माॅं गंगा आई हैं भुट्टा खाने ,
हर खेतों में वे जा रही हैं ।
हम लाए बाजार से खरीद ,
वे खेत में घुस खा रही हैं ।।
हम बिहार छपरा के वासी ,
माॅं गंगा छाईं गाॅंव गाॅंव में ।
हम तो गंगातट के ही वासी ,
सदा रहते उनकी छाॅंव में ।।
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