डा. रूबी भूषण की दो कविताएं

     अब गूंजेगा आदिम राग

प्रेम की कोमल अनुभूतियों को
आदिम राग की मधुर रागिनियों को
मन में गुनगुनाते
तन में कुलबुलाते
प्रीत के ताप को
प्रीत के उत्ताप को
तुम बूझ ना सके
नेह के गेह को
तुमने सहज तोड़ डाले
स्नेह रिक्त कटु शब्दों के आघात से
प्रेम ही देवता
प्रेम ही ईश्वर
प्रिय तुम इसे समझ ना सके
अनुत्तरित से प्रश्न जंजीरों से बंधे पड़े रहते हैं अंत:स्थल में
पर अब उन्हें मुखर होना हो गया है नितांत अनिवार्य
अब जरूरत है परत दर परत
हिया में ग्रंथि की बंधी अदृश्य गांठ को खोलने की
अब चुप नहीं रहेगा मन
अब और ना सहेगा मन
अब हृदय में गूंजेगा आदिम प्रेम राग
अब हृदय के तार छेड़ेंगे राग मल्हार

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     ओ मेरी बिटिया

      ओ मेरी बिटिया !
      कर रहे थे वो हर फैसला
      तोड़ कर रख दिया हर हौसला
      मैं गिरी
      फिर उठी
      उठकर फिर गिरी
     हर बार फिर भी उठी
     मैं तिल- तिल जली
     ताने सुने
    उलाहने सुने
    उससे क्यों बोली- बतियाई
    क्यों सांझ ढलने पर घर आई
   घर का सारा काम कौन करेगा
   यह दारुण दुख सहा मैंने
  उफ्फ तक नहीं किया मैंने
   मगर ओ मेरी बिटिया रानी
   मगर ओ मेरी प्रिय बहू रानी
  तुम ना सहना यह दुख- संताप
  जीवन का यह ताप- उत्ताप
  तू अबला नहीं नारी नहीं बनेगी
  तू हर अन्याय का प्रतिरोध करेगी
  तू झुकेगी नहीं, तू टूटेगी नहीं
  दृढ़ संकल्प से कभी डिगेगी नहीं
  एक दिन जय तेरी होगी
  एक दिन जीत तेरी होगी
  तू अपनी पसंद की दुनिया बनाना बहू
  तू प्रीत की ऐसी बगिया सजाना बेटी
  जिसकी खुशबू से महके हर दिल का दामन
  जिसकी खुशबू से महके हर जीवन का आंगन
  तुम सुन रही हो न बहू
  तुम गुन रही हो न बिटिया

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