सकास नरकंकाल : अंडमान से सिंधु वाया सोनघाटी, सभ्यता-यात्रा की सबसे पुरानी कहानी

पटना/डेहरी-आन-सोन (बिहार)-सोनमाटी टीम। बिंध्य पर्वतश्रृंखला की कड़ी कैमूर की तलहटी में स्थित बिहार के रोहतास जिला अंतर्गत सकास गांव में मिले नरकंकाल मानव इतिहास के इसी नए कथ्य को पुष्ट कर रहे हैं कि अफ्रीका के जंगल से निकलने के बाद आधुनिक आदमी (होमो सैपियन) की सभ्यता-यात्रा अंडमान से शुरू हुई और सोनघाटी होते हुए सिंधु घाटी तक पहुंची।

सकास टीले की खुदाई में प्राप्त हुए छह नरकंकालों की डीएनए रिपोर्ट आने के बाद मानव सभ्यता के विकास की एक नई कहानी सामने होगी। सभ्यता का आदि-स्थल सोनघाटी मानवीय गतिविधियों का तब केंद्र बन चुकी थी, जब विश्वप्रसिद्ध गंगाघाटी आबाद नहीं थी और सोन नद अंचल के इस भारतीय भूभाग पर वैदिक लोगों के आगमन में हजारों साल का समय शेष था।

जाहिर है, विश्वविश्रुत सोनघाटी, मानव सभ्यता का यह आदि-स्थल दुनियाभर के इतिहासकारों और जीव, नृ, पुरा, पर्यावरण, भूगोल, समाज, भाषा विज्ञान के वैज्ञानिकों के लिए शोध का नया तीर्थस्थल बनने जा रहा है।

सेन्दुआर और कबरा के बाद सकास के प्रमाण महत्वपूर्ण 
सोन नद के पूरब में कबरा (झारखंड) और पश्चिम में बिहार के सेन्दुआर के बाद अब सकास से प्राप्त साक्ष्य इस बात के प्रमाणिक गवाह हैं कि सोन नद की ऊपरवर्ती घाटी सिन्धु घाटी के आबाद होने के पहले से गुलजार रही है। सकास में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के पुरा-इतिहास विभाग के डा. विकासकुमार सिंह के निर्देशन में जारी खुदाई से सामने आए साक्ष्य भारतीय इतिहास में एक मीलस्तंभ खोज साबित हुई है। प्राप्त छह नरकंकाल मृत्यु होने पर शव-दाह के बजाय शव-दफन करने वाले अति प्राचीन जनसमुदाय से संबंधित हैं, जिससे जाहिर होता है कि तब अति आरंभिक संस्कृति वाला मानव-समूह यहां आबाद था, जो शवदाह से अलग हड़प्पा-मुइनजोदड़ो की तरह कब्र वाले संस्कृति-समूह से अलग और भारतीय वैदिक काल से पहले का है।

आदमी ने गुफाओं से बाहर निकलने के बाद सभ्यता की पहली तमीज सोनघाटी में सीखी

कैमूर पर्वत की गुफाओं में खोजे गए 20 हजार साल से भी अधिक पुराने गुहाचित्र यह बता रहे हैं कि आदमी (होमो सैपियन) ने हिमयुग के खत्म होने पर इन गुफाओं से नंग-धड़ंग बाहर निकलने के बाद सभ्यता की पहली तमीज सोनघाटी और कैमूर पर्वत की तलहटी में ही सीखी होगी। अपनी वाणी को भाषा के किसी प्राकृत रूप में विस्तार दिया होगा और झोंपड़ी बनाने, पशुपालन, वानिकी, बागवानी की नींव रखी होगी। कैमूर की बांधा और गुप्ताधाम की गुफाओं के भीतर बैठने और मंच जैसा स्थान होने से इस अनुमान को मजबूती मिलती है कि आदि मानव समूह ने अपने मनोरंजन के लिए इन गुफाओं में आदिम तरीके से नाटक (नृत्य, गान) भी करता होगा। हजारों सालों से प्राचीन भारत की सांस्कृतिक धमनियों में भस्मासुर वध की कहानी का धार्मिक कथ्य के रूप में प्रवाहनमान होना इसकी गवाही देता है। भस्मासुर वध को भरत मुनि के नाट्यशास्त्र पर आधिकारिक कार्य करने वाले अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त देश के वरिष्ठ रंगकर्मी  डा. ब्रजवल्लभ मिश्र ने भारतीय भूभाग का प्रथम नाटक माना है। कैमूर की गुफाओं में गुहाचित्र की खोज दो दशक पहले लेफ्टिनेंट कर्नल उमेश प्रसाद के नेतृत्व में सेना के पर्वतारोही दल ने की थी। उस दल में बिहार के पुरातत्व निदेशक डा. प्रकाशचंद्र प्रसाद शामिल थे और शांति प्रसाद जैन कालेज के इतिहास विभाग के वर्तमान प्रमुख डा. विजय कुमार सिंह ने भी दो हफ्ते से अधिक समय सेना के उस पर्वतारोही दल के साथ पहाड़ पर बिताया था।

सकास, सेनुआर, कबरा, नाऊर, कोडिय़ारी, तुम्बा तिलौथू, लेरुआ, मकराईं, घरी, अर्जुनबिगहा, रेहल, रिऊर हैं भारत की आरंभिक बस्ती
अदिमानव ने कैमूर पहाड़ी की गुफाओं से बाहर निकलकर बस्ती बसाने का प्रथम उपक्रम सोन नद के पूर्वी किनारे सकास, सेनुआर, कोडिय़ारी, तुम्बा, तिलौथू, मकराई, लेरुआ, घरी, अर्जुनबिगहा, रेहल, रिऊर आदि और पश्चिम किनारे कबरा, नाऊर आदि में किया था। सकास और सेनुआर को छोड़कर सभी स्थलों को चिह्नित करने का कार्य 20वीं सदी के अंत में अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद सरावगी के नेतृत्व में सोनघाटी पुरातत्व परिषद कृष्ण किसलय ( सोनमाटी संपादक) और अवधेश कुमार सिंह (कृषि विज्ञानी) की टीम ने किया था। कई भ्रमण-सर्वेक्षण में स्व. प्रो.अशोक सिंह, सतीश कुमार मिश्र (पत्रकार) भी साथ थे।
सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार ने ही सबसे पहले यह कहा था कि सोनघाटी की सभ्यता सिंधुघाटी की सभ्यता से पुरानी दुनिया का दुर्लभ स्थल है, जो ध्यानाकर्षण के अभाव में इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान दर्ज नहीं करा सका है। सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार ने सबसे पहले यह भी कहा था कि सोन की घाटी अंडमान से सिंधु तक आदिमानव के हजारों सालों के यात्रा-मार्ग का आदिस्थल रहा है।

सेन्दुआर टीले का उत्खनन बीएचयू के पुरा इतिहास विभाग के डा. वीपी सिंह के निर्देशन में 35 साल पहले किया गया था, जहां नवपाषाण काल के और प्राचीन मानव बस्ती के साक्ष्य मिले थे। सिंधुघाटी काल के समकक्ष माने गए कबरा में भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा खुदाई जारी है, जिसे चिह्नित करने का आरंभिक श्रेय सोनघाटी पुरातत्व परिषद, झारखंड के सचिव तापस डे और उनकी टीम को है। रोहतास जिला के इतिहास और काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, पटना के लिए जिला के पुरावस्तुओं का सर्वेक्षण कर सूचीबद्ध करने का कार्य करने वाले डा. श्यामसुंदर तिवारी ने भी अनेक पुरा-स्थलों और गुफाचित्रों को चिह्नित किया है। सकास के नरकंकालों के कम-से-कम पांच हजार साल पुराने होने के प्रथमद्रष्टया साक्ष्य मिले हैं।

सोनघाटी : जीव-विकास को क्रमबद्ध करने की चुनौती और नई इतिहास-कथा लिखने की अपरिहार्य परिस्थिति
देश के वरिष्ठ विज्ञान लेखक-पत्रकार, सोनघाटी पुरातत्व परिषद बिहार के सचिव और सोन अंचल के सांस्कृतिक इतिहास-विरासत के अन्वेषक कृष्ण किसलय का कहना है कि बीसवीं सदी के अंत में बिंध्य उपत्यका की सोनघाटी में खोजे गए बहुकोशीय जीव (बुर्रा कीड़ा) के जीवश्म ने जहां पृथ्वी पर जीव-विकास को नए सिरे से क्रमबद्ध करने की चुनौती दे रखी है, वहीं 21वीं सदी में सोन नद के ऊपरी अंचल, कोयल नदी की घाटी, कैमूर पर्वत पर खोजे गए अनेक पुरा-स्थलों ने मानव सभ्यता के बहुकोणीय इतिहास को नए रूप में लिखने की अपरिहार्य परिस्थिति पैदा कर दी है। 21वीं सदी में डीएनए परीक्षण की एक वैश्विक शोध से यह तथ्य सामने आ चुका है कि अंडमान की अति प्राचीन चार जनजातियां समूचे एशियावासियों के पुरखे हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आदमी (होमो सैपियन) सबसे पहले मिस्र, मेसोपोटामिया से चलकर एशिया और भारतभूमि पर सभ्यता की नींव रखने नहीं पहुंचा, बल्कि उसने अंडमान से चलकर सोनघाटी होते हुए सिंधुघाटी और पूरे एशिया में सभ्यता के विभिन्न चरणों की नींव रखते हुए अपना प्रसार-विस्तार किया।

कृष्ण किसलय के अनुसार, आदमी (होमो सैपियन) ने अफ्रीका के जंगल से निकलकर 60-65 हजार साल पहले अंडमान-निकोबार में बसेरा बनाया था। इसके बाद के कालखंड के हजारों सालों के अगले कई चरणों में आदिमानव सम्भवत: दक्षिण भारत के अंबुकुट्टीमाला पर्वत और बिन्ध्य पर्वत होते हुए सोनघाटी की गुफाओं में पनाह लिया। फिर यहां से ही अगले हजारों सालों के सभ्यता-यात्रा-क्रम में सिंधु घाटी तक पहुंचा था। नाग वंश, सूर्य वंश, चंद्र वंश की धार्मिक कथाएं और युद्ध-आख्यान इसके बाद के और बिहार-झारखंड के प्रसिद्ध रोहतासगढ़, मुंडेश्वरी, जपला, तुतला, ताराचंडी तो और बाद के समुदाय-संस्कृति-सभ्यता के संघर्ष-स्थल हैं। आदि-मानवों के हजारों सालों के यात्रा-क्रम में जहां-जहां चरण पड़े थे, उनके निशान बतौर पुरातात्विक साक्ष्य गु्फाचित्र, पर्यावरण अवशेष, जीवाश्म, प्राचीन संगीत, प्राचीन लोकभाषा और पुरा-वास्तु, पुरा-सामग्रियों में खोजे जा सकते हैं।
देश के वरिष्ठ भाषाविद् प्रो. (डा.) राजेन्द्र प्रसाद सिंह (शांति प्रसाद जैन कालेज, सासाराम) का मानना है कि रोहतास जिले में लेरुआ, तुम्बा, तूतही, घरी जैसे नाम जनजातीय भाषा के हैं। जबकि हिन्दी के यूनिवर्सिटी प्रोफेसर (वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय) रहे और प्राचीन गांवों के नाम पर अध्ययन कर रहे रोहतास जिला के एक अग्रणी विद्वान डा. नंदकिशोर तिवारी का कहना है कि रोहतास जिला में कैमूर की तलहटी में हजारों सालों से आबाद कई गांव अति प्राचीन हैं और शोध के विषय हैं।

श्रुति-स्मृति के रूप में सुरक्षित सबसे पुरानी कहानी
अंडमान की आदिम जनजातियों के बीच साठ हजार सालों से कही जा रही श्रुति-स्मृति के रूप में सुरक्षित सबसे पुरानी कहानी सामने आ चुकी है, जो अफ्रीका के जंगलों से आदमी (होमो सैपियन) के प्रथम पलायन का दुर्लभ अवशेष है। अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप की भूमि अंडमान पर आदमी के पहुंचने की इस कहानी को अंतरराष्ट्रीय ख्यातिलब्ध भाषाविद् पद्मश्री डा. अन्विता अब्बी ने अंडमान जाकर अति प्राचीन आदिवासी परिवार के सदस्य (नोआ जूनियर) के मुंह से 21 जनवरी 2006 की रात सुनी थी और लिपिबद्ध किया था।

डा. अब्बी अंडमान में 60 हजार साल से बोली जाने वाली एक भाषा (बो) की आखिरी वक्ता बोआ सीनियर (मृत्यु 2010) के आदिम अनुभव को भी सामने लाने का आधिकारिक कार्य कर चुकी हैं। बो बोली पृथ्वी से लुप्त हो चुकी है, क्योंकि बोआ सीनियर के बाद इसे बोलने वाला कोई पुरुष-स्त्री जीवित नहीं है। वास्तव में नई-नई खोजों और नए-नए तथ्यों के सामने के बाद अब दुनिया की भारतीय भूभाग की सबसे प्राचीन आदि-सभ्यता की पटकथा कुछ इस अंदाज में लिखी जाएगी कि सुनो-सुनो अब यह एक पुरानी कहानी, अंडमान की रानी सोन का राजा सिंधु दिवानी, सुनो-सुनो……

(विशेष रिपोर्ट और तस्वीर : कुमार बिन्दु, अवधेश कुमार सिंह, निशान्त राज)

तस्वीर (ऊपर से नीचे) : 1. सकास खुदाई स्थल,  2. सिन्दुआर टीला,  3. कैमूर पठार गुफा चित्र,  4. अर्जुनबिगहा में मकरचंद टीला पर बालक पीयूष प्रियदर्शी 2000 में,  5. लेरुआ के निकट गोड़इला पहाड़ पर कृष्ण किसलय 1998 में,  6. लेरुआ में ययूची मूर्ति,  7. अंडमान में बोआ सीनियर के साथ डा. अन्विता अब्बी,  8. ग्रेट अंडमानी नवयुवा जोड़ा 1976 में।

 

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