क्या कैमूर फिर करवट बदलने लगा है और बिहार सहित चार राज्यों को जोडऩे वाले कैमूर पर्वत पर नक्सली गतिविधियां फिर वापस लौटेंगी? क्या सचमुच हथियार हाथ में आने के बाद आदमी का मन भटक जाता है? क्या सुग्रीव खरवार की गिरफ्तारी के बाद नक्सली गतिविधि पर अंकुश लगाने के लिए कोई पुलिस का मुखबीर बनना चाहेगा? क्या पुलिस का रवैया अपने मुखबीर या सहयोग देने वालों के प्रति उचित या न्यायपूर्ण नहींहोता है? इस तरह के अनेक सवालों को कैमूर पहाड़ पर नक्सल विरोधी अभियान में पुलिस-प्रशासन के साथ लंबे समय तक कदम मिलाकर चलने वाले और अपने आदिवासी इलाके के ग्राम पंचायत के निर्वाचित जनप्रतिनिधि (मुखिया) रहे सुग्रीव खरवार की गिरफ्तारी ने खड़ा कर दिया है। साथ ही, नक्सल विरोधी आंदोलन में सक्रिय लोगों की निष्ठा-कार्यशैली से जुड़े भरोसे की सीमा (एक हद) पर भी संदेह पैदा हो गया है।
जब बदली शासन और पुलिस की रणनीति
एक समय था जब कैमूर पहाड़ पर स्थित प्राचीन रोहतासगढ़ किले पर राष्ट्रध्वज तिरंगे को फहराने की जगह नक्सलियों का प्रतीक ध्वज (काला झंडा) लहराया जाता था। कैमूर पर्वत के रोहतासगढ़ शिखर पर राज्यों के नक्सली संगठन अपना काला झंडा फहराते और प्रशिक्षण शिविर चलाते थे। तब अनेक वर्षों तक नक्सलियों के महफूज पनाहगाह बने रोहतासगढ़ की नक्सली गतिविधि पर अंकुश लगाने की हिम्मत प्रशासन भी नहीं जुटा पाता था। इसके पीछे संसाधनहीनता, सुरक्षा संगठन, जनतांत्रिक जिम्मेदारी सहित अन्य वजहें थीं। देश-काल-परिस्थिति बदली। समय और समाज ने करवट बदला। सरकारों ने जरूरत समझी। शासन और पुलिस की रणनीति बदली।
कैमूर पहाड़ और इसके पाश्र्ववर्ती क्षेत्र में पुलिस के आम चरित्र से अलग सामुदायिक पुलिसिंग का विस्तार किया गया। आदिवासी-वनवासी-पर्वतवासी समुदाय में भी समाज की मुख्य धारा से जुडऩे की ललक बढ़ी और जनतांत्रिक व्यवस्था में उन्हें अवसर भी मिला। पहाड़ के 300 से अधिक युवाओं को पर्यटन गाइड के रूप में जोड़ा गया। रोहतास के आरक्षी अधीक्षक रहे विकास वैभव के कार्यकाल में नतीजा सामने आया। रोहतासगढ़ पर राष्ट्रीय तिरंगा फहरने लगा।
गहरे शोध का विषय
इस बात में संदेह नहींहो सकता कि नक्सल आन्दोलन के उद्देश्य में भटकाव, गुटबाजी, गिरोहबाजी, वर्ग मित्र या सहकर्मियों के शोषण की शिकायतें आम रही हैं। पूरा नक्सल आन्दोलन ही अपने परावर्ती काल में ऐसे विवादों-आरोपों से जूझता रहा है। नक्सल आन्दोलन के भटकने का नुकसान यह हुआ है कि जनविरोध की सामूहिक सामाजिक शक्ति कमजोर पड़ गई। अब लंबे समय तक, शायद सदियों तक, नक्सल आंदोलन जैसे सामाजिक परिवर्तन के किसी सामुदायिक उपक्रम की कल्पना संभव नहींहै, क्योंकि पिछले अनुभवों व नुकसान के मद्देनजर जनता का व्यापक जुड़ाव इस तरह के किसी आंदोलन से स्पष्ट निष्कर्ष के अभाव या सफल परिणति के संशय के कारण शायद नहींहो सकेगा।
दिशा सही नहींहो, या रास्ता बदल जाए या संयम-नियमन अराजक हो जाए तो ताकत आदमी के भटकाव की वजह बन जाती है। आदमी का अतीत यही बताता है कि अस्त्र और अर्थ की शक्ति व्यक्ति को विचलित करती रही है? हथियार व मानव बल की सामूहिक निरंकुशता, अर्थ की शक्ति व्यक्ति और समाज के का चरित्र को भी बिगाड़ता है। इस अर्थ में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ को जोडऩे वाले कैैंमूर पहाड़ पर नक्सली आंदोलन के पनपने, पनाह लेने और इससे आदिवासी समुदाय के एक हिस्से के जुड़ाव की जरूरत या मजबूरी गहरे शोध का विषय हो सकता है। सुग्रीव खरवार प्रकरण के आरंभिक विश्लेषण से भी इस बात को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।
खड़ा हुआ सवाल
फिलहाल तो यह सवाल खड़ा हुआ है कि यदि सुग्रीव खरवार नक्सल विरोधी मुहिम में पुलिस के साथ भागीदार थे तो कैसे वे नक्सली घटना को अंजाम देने वाले बन गए? रोहतास के एसपी का कहना है कि सुग्रीव खरवार को नक्सल गतिविधियों में लिप्त होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। यदि पुलिस सही है तो फिर जनता अपने ही जनप्रतिनिधि पर कैसे भरोसा करे? आखिर खरवार किस परिस्थिति में भटके या पुलिस के इस्तेमाल होने की नियति के शिकार बन गए? बहरहाल, संदेह के सवाल दोनों तरफ हैं और इन प्रश्नों के उत्तर मिले बिना संदेह दूर भी नहींहोंगे।
-उपेन्द्र कश्यप, लेखक-पत्रकार
(संपादन व इनपुट : सोनमाटी समाचार डेस्क)