फेसबुक पर आनलाइन कवि सम्मेलन, वीडियो प्रस्तुति भी
पटना (सोनमाटी समाचार नेटवर्क)। फेसबुक पर अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका के पेज पर आनलाइन हेलो फेसबुक कविसम्मेलन का आयोजन वरिष्ठ कवि सिद्धेश्वर के संचालन-संयोजन में किया गया, जिसमें बिहार और दूसरे प्रदेश के 25 से अधिक कवियों की भागीदारी हुई। करीब तीन घंटों के इस कार्यक्रम को पांच सौ से अधिक लोगों ने जुड़कर लाइव देखा-सुना। मुख्य अतिथि कोलकाता की पत्रिका साहित्य त्रिवेणी के संपादक डा. कुंवरवीर सिंह मार्तण्ड ने कहा कि शब्दों की सरलता और भाषा तरलता ही कविता को हृदयग्राही बनाती है, मगर आजकल आम तौर पर छंदमुक्त कविता के नाम पर सपाटबयानी का चलन बढ़ गया है और छंदबद्ध कविताएं भी अनुशासन में नहींहै। अध्यक्षीय टिप्पणी में डा. आरती कुमारी (मुजफ्फरपुर) ने कहा कि कविता के गद्य से ऊबकर पाठक-श्रोता गीत-गजल सुनना अधिक पसंद करने लगा हैृ विशिष्ट अतिथि डा. शरदनारायण खरे (म. प्र.) ने कहा कि सुगठित, सार्थक और संदेशपूर्ण कविता पाठक-श्रोता को अपनी ओर खिंचती है। सिद्धेश्वर (पटना), अपूर्व कुमार (हाजीपुर), मीना कुमारी परिहार, प्रियंका श्रीवास्तव शुृभ्र, राज प्रिया रानी ने भी मौजूदा समय में लिखी-पढ़ी जा रही कविता के बारे में अपने विचार रखे। जिन कवियों ने आनलाइन लाइव कविताएं पढ़ी, उनकी और उनके अलावा अज्ञेय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, राकेश रेणु, विनोद दास, लीलाधर मंडलोई, रमेश कंवल, लोकेश कुमार साहिल, ऋचा सत्यार्थी, भगवती प्रसाद द्विवेदी, डा. शिवनारायण, केशव शरण, कृष्ण कुमार बेदी, ओंकार सिंह, रघुविंद्र यादव, भारत भूषण पांडे, दिलीप कुमार की साभार ली गई कविताओं को अपनी कलाचित्रों को जोड़कर सिद्धेश्वर ने वीडियो प्रस्तुित की।
हृदय में रागिनी भरकर उतारूं
गीत के अक्षर!
कला के साथ ब्याही हूं,
मैं एक बूंद स्याही हूं!
(डा. कुंवरवीर सिंह मार्तण्ड)
प्यारा बसंत विरहण की बैरी है
फूलों के वाण उसे विष जैसे लगते हैं!
(डा. शांति जैन)
संबंधों के घनघोर जंगल में
जहां जाने से तुम ठिठकते होगे
जरा गौर से देखना कि
होगा कोई एक रोशन चिराग!
(कृष्ण किसलय, डालमियानगर)
खुद को देख रहा हूं तब से
ए उसने मुझको देखा जब से
मैं था तन्हां एक तरफ ृ
और जमाना एक तरफ !
(विज्ञान व्रत, नोएडा)
आंखों में मेरे अंतर की तस्वीर हो गए,
कैसे भूल जाऊं पत्थर की लकीर हो गए।
(संतोष मालवीय, राजगढ़, म.प्र.)
टूट जाते हैं रिश्ते कभी जो खास होते हैं
मतलब ही मतलब जब हमेशा पास होते हैं!
(डा. बीएल प्रवीण, डुमरांव)
धूल हूं मैं
धरती की श्रृंगार हूं मैं!
(डा. पुष्पा जमुआर)
कुछ तो बदला जरूर लगता है
पास जो था वह दूर लगता है!
(संजीव प्रभाकर, गांधीनगरद्ध)
तुम्हें दुनिया की नजरों से बचाकर साथ रखना है
मेरी चाहत का खत हो तुम छुपा कर रखना है!
(डा. आरती कुमारी, मुजफ्फरपुर)
दौड़ती भागती जिंदगी में अजब सा विराम लाया है
एक बार फिर कोरोना एक सन्नाटे वाला कोहराम लाया है!
(ऋचा वर्मा, पटना)
शायद धरा पर बहुत तपी है
पलकों में युग-युग की पीर ढपी है।
(शैवाल सत्यार्थी, ग्वालियर)
सर्वनाश आज दहलीज झांक रही
उन्मुक्त हवाएं रौद्र रूप दिखला रही!
(राज प्रिया रानी)
बहुत जरूरी है अभिलाषा
बहुत जरूरी है तुम्हारी आशा तुम्हारा विश्वास
बहुत जरूरी है खुला आकाश!
(रामनारायण यादव, सुपौल)
हर तरफ एक तीरगी है
क्या लिखूं कैसे लिखूं
कैद में अब रोशनी है
क्या लिखूं कैसे लिखूं
(कृष्ण कुमार बेदिल)
जिंदगी तू मौत से घबराती क्यों है
जीने के पहले तू मर जाती क्यों है
(सिद्धेश्वर)
प्रस्तुित : ऋचा वर्मा, सचिव, भारतीय युवा साहित्यकार परिषद, पटना