जन्म : 31 दिसंबर 1950, भोजपुर (बिहार)
कहानी संग्रह : बाबूजी, बन्द रास्तों के बीच, दूसरा महाभारत, मेफना का निर्णय, तिरिया जनम, हरिहर काकी, एक में अनेक, एक थे प्रो. बी. लाल, भोर होने से पहले
उपन्यास : झुनिया, युध्दस्थल, सुरंग में सुबह
सम्मान : अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार, सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार, यशपाल पुरस्कार, अमृत पुरस्कार
संपर्क : कातिरा हाता, आरा (बिहार)
कहानी
आरा शहर। भादों का महीना। कृष्ण पक्ष की अँधेरी रात। ज़ोरों की बारिश। हमेशा की भाँति बिजली का गुल हो जाना। रात के गहराने और सूनेपन को और सघन भयावह बनाती बारिश की तेज़ आवाज़! अंधकार में डूबा शहर तथा अपने घर में सोये-दुबके लोग!
लेकिन सचदेव बाबू की आँखों में नींद नहीं। अपने आलीशान भवन के भीतर अपने शयन-कक्ष में बेहद आरामदायक बिस्तरे पर अपनी पत्नी के साथ लेटे थे वे। पर लेटनेभर से ही तो नींद नहीं आती। नींद के लिए – जैसी निश्चिंतता और बेफ़िक्री की ज़रूरत होती है, वह तो उनसे कोसों दूर थी।
हालाँकि यह स्थिति सिर्फ़ सचदेव बाबू की ही नहीं थी। पूरे शहर पर खौफ़ का यह कहर था। आए दिन चोरी, लूट, हत्या, बलात्कार, राहजनी और अपहरण की घटनाओं ने लोगों को बेतरह भयभीत और असुरक्षित बना दिया था। कभी रातों में गुलज़ार रहनेवाला उनका यह शहर अब शाम गहराते ही शमशानी सन्नाटे में तब्दील होने लगा था। अब रातों में सड़कों और गलियों में नज़र आनेवाले लोग शहर के सामान्य और संभ्रांत नागरिक नहीं, संदिग्ध लोग होते थे। कब किसके यहाँ क्या हो जाए, सब आतंकित थे।
जब इस शहर में अपना यह घर बनवा रहे थे सचदेव बाबू तो बहुत प्रसन्न थे कि महानगरों में दमघोंटू, विषाक्त, अजनबीयत और छल-छद्मी वातावरण से अलग इस शांत-सहज और निश्छल-निर्दोष गँवई शहर में बस रहे हैं। लेकिन अब तो महानगर की अजनबीयत की अपेक्षा यहाँ की भयावहता ने बुरी तरह से त्रस्त और परेशान कर दिया था उन्हें। ये बरसाती रातें तो उन्हें बरबादी और तबाही का साक्षात संकेत जान पड़ती थीं।
इसे दुर्योग कहें या विडंबना कि जिस बात को लेकर आदमी आशंकित बना रहता है, कभी-कभी वह बात घट भी जाती है। इस अंधेरी, तूफ़ानी, बरसाती रात में जिस बात को लेकर डर रहे थे सचदेव बाबू उसका आभास भी अब उन्हें होने लगा था। उन्हें लगा था कि गेट फाँदकर उनके दरवाज़े पर कोई चढ़ आया है। बस, उनके कान खड़े हो गए। वे उस आगंतुक की आहट लेने लगे। उनकी शंका सही थी। अब दरवाज़े पर थपथपाहट की आवाज़ भी आने लगी थी। सचमुच कोई आ धमका था।
सचदेव बाबू की पत्नी ने दबी आवाज़ में उनसे पूछा, “कौन है यह यदु मिस्त्री?”
उन्होंने भी दबी आवाज़ में ही जवाब दिया, “राज मिस्त्री है। इस मकान में काम कर चुका है। ठेकेदार के साथ आनेवाले मिस्त्रियों में एक यह भी था।”
“तो इस समय क्यों आया है। यह सब राज मिस्त्री और मजदूर अच्छे नहीं होते, घर का भेदिया होते हैं। घर के अंदर-बाहर सब कुछ इनका देखा-जाना होता है।” अपनी शंका व्यक्त की उन्होंने।
जवाब में सचदेव बाबू ने भी उनकी शंका को अपनी सहमति प्रदान की, “पिछली चोरी में इस घर के मजदूर-मिस्त्रियों का ही हाथ था। छत से बिना सीढ़ी के आँगन के रास्ते उतरने का तरीका उनके सिवा किसी को ज्ञात नहीं था।”
यदु मिस्त्री की पुकार और थपथपाहट की आवाज़ जारी थी, “सो गए हैं क्या साहब? हाकिम! इंजीनियर साहब! मैं यदु मिस्त्री हूँ, यदु!”
लेकिन सचदेव बाबू व उनकी पत्नी ने पहले ही से तय कर रखा था कि चाहे जो हो, रात में दरवाज़ा नहीं खोलना। वे जानते थे, परिचित आवाज़ में कोई एक दरवाज़ा खुलवाता है और दरवाज़ा खुलने पर उसके साथ छिपकर आए दस लुटेरे भरभराकर अंदर घुस आते हैं।
अब किसी पर विश्वास करने का समय नहीं रहा। मुसीबत और परिचय के नाम पर ही तो सब कुछ होता रहा है। उन्हें यदु की बातों में हरगिज़ नहीं आना है। ठीक इसी समय उनकी पत्नी ने भी कहा, “अपने मित्रों, रिश्तेदारों और पुलिस को फ़ोन क्यों नहीं करते हो? शायद कोई रास्ता निकल आए?”
उन्हें लगा, पत्नी भी उनकी तरह ही सोच रही है। अब वे सक्रिय हो गए। फ़ोन रखने का वास्तविक उपयोग तो ऐसे अवसरों पर ही होता है। लेकिन ये लुटेरे भी कम चतुर नहीं होते। लूट के लिए आने से पूर्व फ़ोन आदि के कनेक्शन काट चुके होते हैं। पर सचदेव बाबू को डूबते को तिनके के सहारे के भाँति फ़ोन का कनेक्शन ठीक मिला। बस, वे डायल घुमा, सजग-सतर्क हो, अपनी इच्छित जगहों पर, तत्क्षण बोल उठे धीमी आवाज़ में, ताकि बाहर यदु को उनकी आवाज़ सुनायी न पड़े। वैसे भी उनके शयन-कक्ष और कमरों की बनावट ऐसी थी कि बंद दरवाज़ों और खिड़कियों के भीतर की आवाज़ बाहर नहीं पहुँच पाती थी।
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इधर बाहर दरवाज़ा थपथपा रहा और आवाज़ लगा रहा यदु मिस्त्री बारिश में पूरी तरह भीगा हुआ था। उसके कपड़े बदन से चिपक गये थे और माथे के बेतरतीब बालों से पानी की बूँदें टप-टप चू रहीं थीं। वह कुछ हाँफ भी रहा था। बारिश में भीगते और दौड़ते हुए ही वह यहाँ आया था। अपनी घरवाली को आज ही दोपहर अपने गाँव से यहाँ शहर के अस्पताल में लाया था। उसके पेट के दर्द का एकमात्र इलाज डॉक्टर ने ऑपरेशन बताया था। गाँव से जो पैसे लेकर वह चला था, वह तो चिकित्सक की मोटी फीस और महंगी सुइयों-दवाइयों में तत्क्षण समाप्त हो गए थे। फिलहाल कुछ रुपयों की उसे सख्त आवश्यकता थी। गाँव जाकर रुपये लाने का समय भी तो उसके पास नहीं। इस स्थिति में सहसा उसका ध्यान सचदेव बाबू की ओर चला आया था।
सचदेव बाबू के मकान में लंबे समय तक काम कर चुका था वह। उनके मकान निर्माण के लिए ही उसे गाँव से बुलवाया था ठेकेदार ने। शहर के मिस्त्रियों से ज्यादा काम करता था वह। नींव से लेकर छत ढलाई और प्लास्टर-फिनिशिंग तक इस मकान में कर चुका था। इस घर की एक-एक ईंट से वह परिचित था। कई जगह सचदेव बाबू जैसा चाहते थे, उनकी बात ठेकेदार नहीं समझ पाता था। लेकिन मिस्त्री होने के चलते वह जल्द ही समझ जाता था। यह देख सचदेव बाबू उस पर खुश हो उठते थे और ठेकेदार से कहते थे, “इस मिस्त्री को यहाँ से मत हटाना। इसे काम की अच्छी जानकारी है। और यह परिश्रमी भी है।”
त्योहारों पर तो वे अपनी ओर से उसे अक्सर बख़्शीश भी दिया करते थे और लंच के लिए अपने खाने में से सब्ज़ी और अचार आदि उसे भी प्रदान करते रहते थे। ठेकेदार का काम समाप्त होने पर भी बचे हुए शेष कार्य के लिए उन्होंने उसे अपने यहाँ कायम रखा था। अपने प्रति उनके इस आकर्षण ने ही इस तूफानी रात में उसे यहाँ तक पहुँचा दिया था। उनसे प्रार्थना कर कुछ रुपये माँग लेगा वह। वे ना नहीं करेंगे। फिर गाँव लौटते ही उनके रुपये ला चुकाएगा।
यदु जानता था कि बाहर के गेट से आवाज़ अंदर नहीं पहुँचती, इसीलिए गेट फाँदकर बालकनी में मुख्य दरवाज़े के पास वह आ गया था। चूँकि सचदेव बाबू मिस्त्री-मज़दूरों के बीच बड़े साहब, हाकिम और इंजीनियर साहब के नाम से ही विख्यात थे, इसीलिए उसी नाम से वह आवाज़ भी लगाता जा रहा था। उसकी आवाज़ पहचानने के बाद सचदेव बाबू चुप नहीं रहेंगे ! लेकिन कुछ देर तक जब उनके यहाँ से कोई जवाब प्राप्त नहीं हुआ तो यदु को लगा कि डर गए हैं सचदेव बाबू। यह बात वह जानता था कि परिचित आवाज़ में लूटपाट की घटनाओं से अब किसी को किसी पर भरोसा नहीं रहा। सचदेव बाबू के यहाँ आ रहा था वह तब भी यह शंका उसके मन में थी।
लेकिन अपने प्रति उनके आत्मीय एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार को याद कर अपने मन की इस शंका को झटक दिया था उसने, “सचदेव बाबू ऐसे नहीं हो सकते।” अभी भी उसे इस बात का पूरा विश्वास था कि अगर उसकी आवाज़ पहचान लेंगे सचदेव बाबू तो अवश्य दरवाज़ा खोलकर सामने आ जाएँगे और उसकी मदद करेंगे, इसीलिए दरवाज़ा थपथपाते और आवाज़ लगाते हुए वह डटा हुआ था।
बीतते समय के दौरान अचानक तेज रोशनी बिखेरती हुई एक जीप सचदेव बाबू के दरवाज़े आ लगी। यदु को लगा कि या तो सचदेव बाबू के बेटा-पतोह या लड़की-दामाद या कोई अन्य रिश्तेदार आ गए। अच्छा हुआ। अब सचदेव बाबू का दरवाजा खुलेगा और उसका काम भी हो जाएगा। लेकिन यह देखकर आश्चर्य से उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं कि जीप से पुलिस के जवान तेज़ी से उतरे और उसकी तरह ही गेट फांदकर उसकी ओर बढ़ चले। एक क्षण के लिए तो वह भयभीत हो गया। काटो तो उसकी देह में खून नहीं। लेकिन जल्द ही अपने को संयत कर लिया उसने। वह कोई चोर-उचक्का नहीं कि पुलिस को देखकर घबराए या भागे? पुलिस किसी और की खोज में आई होगी या उसे काई सुराग मिला होगा?
ठीक इसी समय सचदेव बाबू दरवाज़ा खोलकर सामने आ गए। अपने गेट के पास आती हुई पुलिस की जीप उन्होंने खिड़की से ही देख ली थी। पुलिस इंस्पेक्टर ने उन्हें देखते ही कहा, “हमने इसे ऐन मौके पर पकड़ लिया इंजीनियर साहब! लेकिन यह कह रहा है कि मैं राज मिस्त्री हूँ। साहब का घर मैंने बनाया है।”
“मैं किसी मिस्त्री-विस्त्री को नहीं जानता!” – बेतकल्लुफ़ी से कह उठे सचदेव बाबू। यह सुन उनकी ओर मुखातिब होते हुए जोर देकर बोल उठा यदु, “मैं यदु मिस्त्री हूँ बड़े साहब! यदु मिस्त्री! मुसीबत में फँसकर कुछ रुपयों के लिए आपके यहाँ आया हूँ!”
लेकिन उसकी बात को अनसुनी कर दिया सचदेव बाबू ने तथा अपनी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से ताकते इंस्पेक्टर से कह उठे वे, “मैं इसे नहीं जानता!”
उनकी यह बात यदु के कलेजे में तीर-जैसी लगी। कट कर रह गया वह। अपने कानों पर उसे विश्वास नहीं हुआ। उनसे पुन: ऊँची आवाज़ में कहा, “मैं यदु मिस्त्री हूँ, बड़े साहब, आपका चहेता यदु मिस्त्री।”
एक क्षण के लिए सचदेव बाबू के गले में आवाज़ फँसती-सी जान पड़ी। लेकिन फिर जल्द ही गला साफ़ करते हुए उन्होंने इंस्पेक्टर से कहा, “ठेकेदार के साथ आनेवाले मिस्त्रियों को मैं नहीं जानता! उनमें से किसी को भी नहीं पहचानता!”
“तो आप मुझे नहीं पहचानते? मैं मिस्त्री नहीं, चोर हूँ?” इस बार यदु की आवाज़ बदल गई थी और उसका पूरा बदन तन गया था। जवाब में इंस्पेक्टर ने उसे डाँटते हुए कहा, “चुप बदमाश! अकड़ रहा है। इस मुहल्ले में बहुत उत्पात मचा रखा था तूने आज पकड़ में आया।” – और साथ के जवानों को आदेश दिया, “ले चलो इसे !”
लेकिन इंस्पेक्टर की डाँट के बावजूद कन्नी-बसुली चलानेवाले उसके हाथ की मुट्ठियाँ कस गईं तथा आग्नेय नेत्रों से सचदेव बाबू को घूरते हुए गरज उठा वह, “तो आप मुझको नहीं पहचानते? मैं चोर हूँ! तो अब उसी रूप में आऊँगा। अब उसी रूप में पहचानिएगा!”
“साला धमकी देता है। चोरी और सीनाजोरी दोनों!”
इंस्पेक्टर ने कसकर उसे एक हाथ लगाया। वह दर्द से कराह उठा। शायद कुजगहा चोट लगी उसे। लेकिन उसकी बातों से उससे कम दर्द का अनुभव नहीं किया सचदेव बाबू तथा उनकी पत्नी ने। वह कहकर गया है कि अब चोर-लुटेरे के रूप में ही आएगा। उससे कुछ भी तो गोपनीय नहीं। सब कुछ उसका देखा-जाना है। अब क्या होगा? उसे न पहचानकर उन्होंने अच्छा नहीं किया। लेकिन न चाहते हुए भी उन्हें ऐसा करना पड़ा। उनके भीतर अंतर्द्वंद्व अभी भी बना हुआ था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि उन्होंने अच्छा किया या बुरा? हालाँकि उन्हें लग रहा था कि यदु को न पहचानना उनकी आंतरिक इच्छा नहीं, समयगत विवशता थी!
पुलिस द्वारा यदु को पकड़कर ले जाने के बाद दरवाज़ा बंद कर पुन: अपने शयन-कक्ष में आए वे दोनों पति-पत्नी। लेकिन उनकी बेचैनी और घबराहट खतम नहीं हुई। अशांति और उद्विग्नता पूर्ववत बनी रही। अपने मन को शांत-सहज बनाने के लिए बिस्तर पर लेटकर वे पुन: सोने का उपक्रम भी करने लगे। लेकिन शांति और चैन कहाँ? यह ठीक है कि अब अपने दरवाज़े पर वे यदु की दस्तक महसूस नहीं कर रहे थे। लेकिन अब तो उनके मन पर सीधे-सीधे दस्तक दे रहा था यदु, जो दरवाज़े की दस्तक से ज़्यादा भयावह और कष्टदायक थी!
- मिथिलेश्वर
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