आलेख : कुमार कृष्णन, वरिष्ठ पत्रकार-लेखक
बात 1956 की है। जब स्वामी सत्यानंद ऋषिकेश स्थित स्वामी शिवानंद के आश्रम में रह रहे थे। उन्होंने स्वामी सत्यानंद को अपने पास बुलाया और कहा कि आपका जाने का समय आ गया है। जाओ। दुनिया में परिव्राजक की तरह घूमो। दुनिया को योग सिखाओ। स्वामी सत्यानंद संसार के लिए निकले। 1963 तक परिव्राजक की तरह भ्रमण करते रहे। स्वामी सत्यानंद को बीस साल मिले और इस अवधि में दुनिया को सत्यानंद के जरिए योग मिला। इन्हीं बीस सालों में मुंगेर में बिहार योग विद्यालय की स्थापना हुई, जहां से सत्यानंद पूरी दुनिया में जाते थे और पूरी दुनिया से लोग बिहार योग विद्यालय पहुंचते थे। एक से एक प्रामाणिक, वैज्ञानिक योग ग्रंथों का प्रकाशन हुआ। बीसवीं सदी में योग का जो पुनर्जागरण हुआ, बिहार योग विद्यालय उसका केन्द्र बन गया और स्वामी सत्यानंद सूत्रधार।
दुनिया का शायद ही कोई ऐसा महाद्वीप होगा जहां स्वामी सत्यानंद ने योग का बीज न बोया हो। अरब से लेकर अमेरिका तक। अफ्रीका से लेकर आस्ट्रेलिया तक। स्वामी शिवानंद का परिव्राजक सन्यासी पूरी दुनिया में घूम घूमकर योग बीज बो रहा था जो आगे चलकर पुष्पित और पल्लवित होने वाला था। एक तरफ जहां वे वर्तमान की जमीन पर योग बीज-रोपित कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ वे भविष्य में इसके रख-रखाव की योजना पर भी काम कर रहे थे ताकि कोई फूल खिलने से पहले न मुरझा जाए। यह कोई दस-बीस साल का मामला नहीं था। शताब्दियों का मामला है। एक पवित्र परंपरा के पुनर्जागरण काल में सिर्फ वर्तमान नहीं होता। उसका अपना एक भविष्य होता है और उस भविष्य की अपनी एक दैवीय योजना।
चार साल की उम्र में प्रशिक्षण, 23 साल की उम्र तक विदेशों में योग का विस्तार
चार साल के स्वामी निरंजन इसी दैवीय योजना का हिस्सा होकर बिहार स्कूल आफ योगा पहुंचे थे। 1964 बिहार स्कूल आफ योगा और स्वामी निरंजन दोनों के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण साल है। इसी साल मुंगेर में बिहार योग विद्यालय की स्थापना हुई और इसी साल चार साल के निरंजन योग विद्यालय में प्रविष्ट हुए। छत्तीसगढ़ के राजनादगांव में 14 फरवरी 1960 को जन्मे स्वामी निरंजनानंद की जीवन-दिशा उनके गुरू स्वामी सत्यांनद द्वारा निर्देशित रही। यहां उन्हें गुरू ने योग निद्रा के माध्यम से योग और आध्यात्म का प्रशिक्षण दिया। कम उम्र में ही वे इतने योग्य हो चुके थे कि स्वामी सत्यानंद ने उन्हें दशनामी सन्यास परंपरा में दीक्षित करने के बाद काम पर लगा दिया। उन्हें विदेशों में योग केन्द्रों की स्थापना करनी थी। जहां योग केन्द्र स्थापित हो चुके थे, उनके संचालन को भी सुनिश्चित करना था। उन्हें न सिर्फ योग समझाना था बल्कि दुनिया की विविध संस्कृतियों को समझना भी था। सांस्कृतिक एकता के यौगिक सूत्रों की खोज करनी थी। अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया तक।
उन्होंने विशेष तौर पर ध्यान और प्राणायाम के क्षेत्र में अनुसंधान का काम अल्फा रिसर्च के लिए नोबेल पुरस्कार से मानित डॉ. जो. कामिया के साथ काम किया। सैन फ्र्रांन्सिस्को, कैलिफोर्निया के ग्लैडमैन मेमोरियल सेंटर के जापान के डॉ. टॉड मिकुरिया ने उन पर ध्यान संबधी शोध किया। जिस समय स्वामी निरंजनानंद विदेश के लिए निकले। स्वामी सत्यानंद के योग आंदोलन के परिणामस्वरूप केवल फ्रांस में 77 हजार पंजीकृत येाग शिक्षक बने थे। तब यह तादाद बहुत बड़ी थी। उन दिनों वे सिर्फ योग शिक्षकों को प्रशिक्षित करते थे, ताकि वे स्कूलों में विद्यार्थियों को प्रशिक्षित कर सकें। बाद में यह आंदोलन रिसर्च ऑन योगा इन एड्यूकेशन के नाम से पूरी दुनिया में फैल गया। यूरोप में आंदोलन का सूत्रपात पैरिस की स्वामी योगभक्ति, कनाडा में स्वामी अरून्धती ने आरंभ किया गया। इस आंदोलन का नाम योगा एड्यूकेशन इन स्कूल रखा गया। यह उत्तर तथा दक्षिण अमेरिका में काफी लोकप्रय हुआ। इसके परिणामस्वरूप अनेक देशों की शिक्षा पद्धति में मुंगेर के योग को शामिल किया गया। निरंजनानंद सरस्वती ने 1983 तक वह सब किया। जब तेईस साल की उम्र में कोई नौजवान काम करने के लिए घर से बाहर कदम रखता है, तब इस उम्र तक स्वामी निरंजन एक बड़ा काम पूरा करके वापस लौट आये थे।
मुंगेर में आरंभ सात बच्चों से, आज भारत में 150000 बाल योग गुरु
भारत लौटने के बाद उन्होंने बिहार योग विद्यालय को विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा तक ले गये। साथ ही वे स्वामी सत्यानंद के बीजारोपण की माली की तरह रखवाली भी करते रहे। सन् 1993 के विश्वयोग सम्मेलन के बाद गंगा दर्शन में बाल योग मित्र मंडल की स्थापना की गयी। इसका आरंभ मुंगेर के सात बच्चों से किया गया और आज मुंगेर शहर में ही बाल योग मित्र मंडल 5000 से अधिक प्रशिक्षित बच्चे योग शिक्षक हैं। मुंगेर में यह तादाद 35 हजार और पूरे भारत में 150000 है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं—’वाल योग मित्र मंडल को तीन लक्ष्य दिए हैं — योग के द्वारा संस्कार प्राप्त करना, योग के द्वारा ऐसी प्रतिभा को प्राप्त करना जिससे बिना किसी पर आश्रित रहे अपना जीवन चला सके और योग को आधार बनाकर अपने जीवन को संस्कृति से युक्त कर सके। संस्कार, स्वावलंवन, संस्कृति और राष्ट्रप्रेम, यही वाल योग मित्र मंडल के लक्ष्य हैं।’
बच्चों ने तीन आसनों, दो प्राणायामों, शिथिलीकरण एवं धारणा के एक—एक अभ्यास का चयन किया। यह प्रयोग सात सौ बच्चों पर किया गया और उसकी रचनात्मकता, व्यवहार और व्यक्तिगत अनुशासन पर हुए असर की जांच की गयी तो इसमें गुणात्मक परिवर्तन पाया गया। इन बच्चों को न सिर्फ योग की शिक्षा दी जाती है, बल्कि कराटे, आधुनिक नृत्य, मंत्रोच्चार, स्पोकेन इंगलिश की शिक्षा दी जाती है। दरअसल में स्वामी सत्यानंद सरस्वती का स्पष्ट दृष्टिकोण था कि यदि हम बच्चों तक पहुंच पाते हैं और उनके जीवन की गुणवत्ता और प्रतिभा में सुधार ला पाते हैं, तो वे अपनी रचनात्मकता का अधिकतम उपयोग कर अपने भावी जीवन के तनावों और संघर्षों का सामना बेहतर ढंग से कर पाएंगे।
बिहार की साकारात्मक ताकत है योगनगरी मुंगेर
तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम दो बार मुंगेर बच्चों के कार्यक्रम में आए थे। उन्होंने मुंगेर को योगनगरी की संज्ञा दी।स्वप्रेरणा से दूसरी बार बिहार योग विद्यालय के परिसर में पधारे बिहार के तत्कालीन राज्यपाल और वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने अपने उद्गार में कहा था कि ‘ मुंगेर न केवल भारत की योगनगरी है बल्कि पूरे विश्व की योग की राजधानी है। इसमें ताकत है और वह जो ताकत है, जो साकारात्मकता है, वही सबको आगे ले जाएगी। जो योग शिक्षक यहां से निकल रहे हैं, ये बच्चे-बच्चियां योग और बिहार की साकारात्मक छवि के संवाहक हैं।’
स्वामी निरंजनानंद ने 1994 में विश्व के प्रथम योग विश्वविद्यालय, बिहार योग भारती की तथा 2000 में योग पब्लिकेशन ट्रस्ट की स्थापना की। मुंगेर में विभिन्न गतिविधियों के संचालन के साथ उन्होंने दुनिया भर के साधकों का मार्गदर्शन करने हेतु व्यापक रूप से यात्राएं की। सन् 2009 में गुरू के आदेशानुसार सन्यास जीवन का एक नया अध्याय आरंभ किया। योग दर्शन एवं जीवनशैली की गहन जानकारी रखने वाले स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने योग, तंत्र, उपनिषद पर अनेक प्रमाणिक पुस्तकें लिखी हैं। योग का मानव प्रतिभा के रूप में किस प्रकार इस्तेमाल हो, इसके लिए निरंतर प्रत्यनशील हैं। उनकी खासियत यह है कि काम में यकीन करते हैं और काम ऐसा हो कि लोग स्वयं प्रचार करें।
2013 के विश्वयोग सम्मेलन के बाद अपनी तरह की यह पहल कुछ ऐसी ही अनूठी है जैसे साठ या सत्तर के दशक में स्वामी सत्यानंद ने विदेशों में की थी। इस सम्मेलन के बाद यौगिक पुर्नजागरण का शंखनाद किया।साथ ही इसी साल से उन्होंने योग का प्रसाद वितरित करने के लिए योग यात्राओं का सिलसिला आरंभ किया। यौगिक शिक्षण के नए अघ्याय को विकसित कर योग को शारीरिक अभ्यास की जगह जीवन शैली में विकसित करने करने की मुहिम चला रहे हैं। भारत की अनेक प्राचीन विद्याओं एवं परंपराओं की पुनर्पतिष्ठा के लिए प्रयासरत हैं। इसी श्रृंख्रला में वैश्विक स्तर पर योग संबधी एक रोचक घटनाक्रम आरंभ हुआ। वह था अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का प्रस्ताव, अनुमोदन और अंतत: बड़े पैमाने पर आयोजन। इस घटनाक्रम के चार साल हो गए। इस साल पांचवा साल है। यह पूरी दुनिया के योगसाधकों के लिए खास मौका है, जब यौगिक कल्पतरू की छांव में एकत्र होकर इस प्राचीन विद्या से अपने संबध को मजबूत बना सकें।बिहार योग विद्यालय योग के प्रति वैश्विक सद्भाव और रुचि का समर्थन करते हुए साधकों को प्रेरित करता रहा है कि वे यौगिक अनुभवों को गहन बनाएं तथा योग को मात्र एक शारीरिक अभ्यास के रूप में नही, बल्कि एक सुव्यवस्थित जीवन शैली के रूप में अपनाएं।
स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के अनुसार— ‘ अगर आप अपनी जीवन शैली को सुधारने के लिए योग का उपयोग करना चाहते हैं तो आपको अपने जीवन में साकारात्मक विचार और गुण लाने होंगे। जैसे ही आप अपने विचार साकारात्मक बनाते हैं, आप अपने जीवन में यौगिक रूपान्तरण आरंभ कर देते हैं। स्वामी शिवानंद कहते थे कि विचाररूपि बीज ही अंतत: नियती रूपी वृक्ष बनता है। इसलिए हमें अपने मन में अच्छे साकारात्मक विचार रोपित करना है। जब भी मन में कोई नाकरात्मक विचार, भावना, परिस्थिति या प्रक्रिया उभरे तो तुरंत उसे साकारात्मकता द्वारा संभालना है।’
सत्यानंद की यूरोप-आस्ट्रेलिया यात्रा जैसी जरूरी निरंजनानंद की भारत-यात्रा
स्वामी शिवानंद के कथन को ध्यान में रखकर इस वर्ष के कार्यक्रम में क्षमा का यम और और नमस्कार का नियम रखा गया है। इस तरह स्वामी सत्यानंद ने लोक कल्याण के लिए योग और सन्यास की एक पगडंडी बनाई तो निरंजनानंद ने पगडंडी को प्रस्थापित किया। उस पगडंडी के दो सिरे हैं योग और सन्यास। मुंगेर और रिखिया। स्वामी सत्यानंद ने अपने आचरण से एक सन्यासी के लिए योग को कर्म और सन्यास को सेवा के नए रूप में परिभाषित किया। स्वामी निरंजनानंद की भारत यात्रा भारत के लिए उतनी ही जरूरी है, जितनी कभी स्वामी सत्यानंद की यूरोप-आस्ट्रेलिया की यात्रा थी। जिन्हें स्वामी सत्यानंद ने भविष्य के लिए चुना हो, परमहंस की उपाधि दी हो, वे भला कोई सामान्य सन्यासी हो सकते हैं क्या?