दो कविताएं :
एक नए साल और दूसरी गुजरे साल के सन्दर्भ में
-कृष्ण किसलय (संपादक, सोनमाटी)
(1). आओ सफर फिर शुरू करें
(21 साल पहले दैनिक आज, पटना के वार्षिक विशेषांक में प्रकाशित)
अहसास अब भी कितना ताजा है
कि बहुत खुशनसीब गुजरा था
बीते वर्षों का पहला नया सबेरा !
हां, कितना हसीन था
आकाश से जमीन पर
प्रेम के पानी का झरझराना
और, उग आए संबंधों की पौध में
हर साल आहिस्ता-आहिस्ता
एक-एक कर फूलों-पत्तियों का भरना !
जमाने की बन्दिश की बर्फानी ठंड
प्रतीक्षा की तपस्या की कड़ी धूप
और बेकरारी की बाढ़ के बावजूद
हरा-भरा है यादों का वह पौधा,
महक बरकरार है मोहब्बत के फूलों की !
लाखों-करोड़ों की तरह मैंने भी देखा,
एक सपना गुजरे बरस की आखिरी रात में
कि नए बरस का उगता नया सबेरा
और हसीन,
और गुलनशीन,
और मनतरीन होगा
मगर अफसोस रात लंबी खींच गई
और राह में पत्थर फिर बिखर गए !
तब भी आदमी की जिन्दगी तो
दरअसल उम्मीद का सफर है
और, संयोग से अब भी साथी जुगनू
संबंधों की हरियाली में चमक रहे हैं
आओ, उन्हीं की रोशनी के सहारे
मंजिल पर पहुंचने का सफर
फिर से शुरू किया जाए !
(2). बीता वर्ष
(07 साल पहले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र मेरठ मुख्यालय स्थित बहुभाषी-बहुसंस्करणीय प्रकाशन संस्थान सुभारती मीडिया लिमिटेड के 75 साल पुराने दैनिक प्रभात के संपादकीय पृष्ठ पर सृजन स्तंभ में प्रकाशित)
दूर कालखंड के रक्ताभ क्षितिज पर
सर्द दिसम्बर की अंतिम घडि़य़ां गिनते हुए
दम तोड़ते बूढ़े वर्ष का महाप्रयाण हुआ !
आ गई मेरे अधरों पर
अनछूए दर्द की थिरकन
आह, निर्दयी छल गया
मेरे गीतों पर ताल देने का
उसने दिया था वचन !
मेरी बंद मुट्ठियों में
अनुत्तरित प्रश्नचिह्नों को छोड़
यह निष्ठुर वर्ष भी
मेरी हथेलियों से खामोश सरक गया
थमाकर एक रीता कालपात्र !
बीते वर्ष के साथ जो था
उम्मीद का अनुबन्ध
और गणित का गुणनफल
कि कितना कुछ करने का भाग
और कितना कुछ कर पाने का शेष !
बस, चिपका भर रह गया
मेरी जिंदगी की लीक से
कृष्णपखी साये की तरह
उसका स्पृहा अहसास भर !
संपर्क : सोनमाटी-प्रेस गली, जोड़ा मंदिर, न्यू एरिया,
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