भारत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही पाटलिपुत्र के गांधी मैदान स्थित ज्ञान भवन में विश्व साहित्य का हिन्दी रंगमंच तब जीवंत हो उठा जब हजारों की संख्या में दर्शकों से भरे बापू सभागार में हिंदी फिल्म जगत के सुप्रसिद्ध अभिनेता, प्रख्यात साहित्यकार अखिलेंद्र मिश्र ने “स्वामी विवेकानंद का पुनर्पाठ” विषय पर राग मल्हार छेड़, ज्ञान की अमृत वर्षा कर श्रोताओं के सुप्त और शुष्क पड़े आत्म ज्ञान को सिंचित कर चेतनामय कर दिया। श्री मिश्र के अद्भुत वक्तृत्व और नाट्य कौशल ने बापू सभागार को मानो देवभूमि का रुद्रप्रयाग बना डाला हो। एक तरफ साहित्य की अविरल प्रवाह लिए अलकनंदा हृदय को आनंदित कर युवाओं का चरित्र निर्माण कर रही थी तो दूसरी तरफ आध्यात्म की संजीवनी प्रवाह लिए भागीरथी आत्मा की शुद्धीकरण कर एक नवयुग का सृजन कर रही थी। इसी अविस्मरणीय क्षण में साक्षात मां शारदा श्री मिश्र के कंठ में अवतरित हो शब्दों और स्वरों का रूप धारण कर स्वयं उच्चरित हो रहीं थी। स्वामी जी के पुनर्पाठ के हवन कुंड की अग्नि को श्री मिश्र ने स्वामी विवेकानंद के संदेशों से प्रज्वलित किया।
” पहले कर्ता करो सुकर्म
तुम फिर पाओगे ख्याति ।
मानवता कि प्रहरी करुणा है
ज्ञान यही बतलाती।।
आओ अपने हृदय द्वार पर
प्रेम का पुष्प खिलाएं।
भटकी हुई भौतिकता को
आध्यात्म की राह दिखलाएं।।”
एक ओर इस घृत मिश्रित काव्य पाठ की प्रथम आहुति पा शनैः-शनैः स्वामी जी के पुनर्पाठ का आध्यात्मिक अनल अपने यौवन सौंदर्य को प्राप्त हो रहा था तो दूसरी ओर हजारों करतल ध्वनियों के महिमामंडन और जय घोष से भगवान बुद्ध और महावीर जैन की यह ऐतिहासिक भूमि गुंजायमान हो रही थी और इन सबों के मध्य कार्यक्रम के सूत्रधार श्री अखिलेंद्र मिश्र जी आदि योगी की भांति नाट्य समाधि में लीन स्वामी जी के कालखंड के बहुआयामी चरित्र का निर्बाध एकल प्रस्तुति दे दर्शकों को ऐसे मंत्रमुग्ध कर रहे थे जैसे शिकागो धर्मसभा में स्वामी विवेकानंद जी ने भारतीय दर्शन और धर्म शास्त्र की आत्मा “सर्व धर्म समभाव” के महामंत्र के मूलतत्व का पाठ कर सात समुंदर पार सभी धर्माचार्यों को वशीभूत कर दिया था।
श्री अखिलेंद्र मिश्र की ओजस्वी प्रस्तुति को जैसे दैवीय आशीर्वाद प्राप्त हो ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे स्वामी विवेकानंद का पुनर्पाठ नही अपितु उनकी जीवनी के चलचित्र का जीवंत प्रसारण हो रहा हो। कई संवाद ऐसे भी थे जिनके श्रवण मात्र से रोम रोम पुलकित हो उठते थे। मेरे समीप बैठे प्रख्यात साहित्यकार और फिल्म आलोचक डा. कुमार विमलेंदु सिंह जी के नेत्र कई बार भाव विभोर हो उत्प्लावित हो उठे थे। ऐसी अवधारणा है की मूलतः भीड़ के गर्भ से कोलाहल ही उत्पन्न होता है किंतु आषाढ़ मास के उस द्वादश तिथि के सांध्य बेला में ज्ञान भवन के सात्विक वातावरण में नव युग का आध्यत्मिक इतिहास अंकुरित हो रहा था। पुनर्पाठ के इस समाधि में पूर्णतः लीन हो चुके श्री अखिलेंद्र मिश्र जी का सांसारिकता में पुनः लौटना किसी चुनौती से कम नहीं था।
नंद मोहन मिश्र
निदेशक सेंट जेवियर्स वर्ल्ड स्कूल
अरवल, बिहार।