हवा झोंके रोंगटे तक आ पहुंचे
उन्होंने कहा
दीप जलाओ
हमने जलाया
वो रौशनी में
नहाते रहे
हम अंधेरे को
टटोलते रहे
रुत बदल गई
अब एक लौ
भीतर सुलग रहा
वो ढूंढ रहे!
खुशी फूलों से होकर ही हम आप तक आती है सो उसे सलाम
जिनके पेट में भूख के गुब्बारे फूटते हैं
जिनकी आंखों में इमानदारी के अंबार लगे हैं
उनसे क्या पूछते हो भला त्योहार के किस्से
जिनके पिता लालच पीकर दुनिया छोड़ चले हैं!
खेसारी पसर-पसर खेतों में शबनम के गीत गाती
उत्सव सा हर शब्द लगे जब फूल कहीं दिख जाता है
हो बसंत का मौसम फिर धरती फूलों से पट जाती है
आरोग्य रहे जन जीवन सबका खग जलचर जलचर का
लालच न हो नर गर विपदा आपस में बंट जाती है!
स्पर्श रागिनी बाज रही जिस पर नाज़ रही
चलती फिरती कौन नगरिया बूझो ओ बाबू तो जानें
आसमान में उड़ती फिरती
नहीं पतंग पर बूझो तो जानें
हरदम सबक सिखाती सबको हर पल ही भरमाती सबको
कितना है नादान कहता हर कोई अक्लमंद बूझो तो जानें!
– लता प्रासर
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