लब्धप्रतिष्ठ भाषा वैज्ञानिक और साहित्य इतिहास लेखक प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह सासाराम (बिहार) स्थित शांति प्रसाद जैन महाविद्यालय में हिन्दी (भाषा विज्ञान) के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं। भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति-सभ्यता के प्रति उनका एक नया नजरिया है। उन्होंने अपनी पुस्तक (इतिहास का मुआयना) की भूमिका में लिखा है कि इतिहास लेखन में इतिहासकार तथ्यों का चयन करते हैं, मगर कुछ छोड़ते हैं और कुछ जोड़ते भी हैं। ऐसा इतिहास वस्तुत: राजनीतिक शक्ति का इतिहास है। चिनुआ अचैबी के शब्दों में कहा जाए तो जब तक हिरण अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक हिरणों के इतिहास में शिकारियों की शौर्यगाथाएँ गाई जाती रहेंगी। इसलिए भारत के इतिहास में वैदिक संस्कृति उभरी हुई है, बौद्ध संस्कृति पिचकी हुई और मूल निवासियों का इतिहास बीच-बीच में उखड़ा हुआ है।
प्रस्तुत है प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह की इतिहास लेखन की स्थापना-अवधारणा पर डेहरी-आन-सोन (जिला रोहतास, बिहार) के वरिष्ठ लेखक-पत्रकार कुमार बिन्दु का यह लेख।
संस्कृत से पुरातन है प्राकृत
सामान्यत: यह माना जाता रहा है कि संस्कृत पुरातन है और वह कई भाषाओं की जननी है। मगर बतौर भाषा वैज्ञानिक प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह कहते हैं, प्राकृत पुरातन है। वह सवाल खड़ा करते हैं कि उत्तर भारत के गाँवों के नाम संस्कृत में क्यों नहीं है? अगर संस्कृत भारत की आदि भाषा है तो गाँवों के नाम संस्कृत में होने चाहिए थे। कालिदास की रचनाओं में पुरुष पात्र संस्कृत और नारी पात्र प्राकृत बोलते हंै। यह इस बात को उजागर करता है कि संस्कृत भारत उपमहाद्वीप की अत्यंत प्राचीन जनभाषा नहीं है।
भारत-भूमि पर क्यों नहीं है संस्कृत का भाषाई भूगोल?
वह यह भी सवाल खड़ा करते हैं कि जब हर भाषा का भूगोल है, तब फिर संस्कृत का भूगोल क्या है? भारत उपमहाद्वीप के सिंध प्रदेश में सिंधी, पंजाब में पंजाबी, हरियाणा में हरियाणवी, बंगाल में बंगाली, गुजरात में गुजराती और महाराष्ट्र में मराठी भाषा प्राचीन काल से ही बोली जाती रही हैं। हर भाषा का एक भौगोलिक क्षेत्र है। प्रो. सिंह जवाब भी देते हैं कि भारत में अनार्य अत्यंत प्राचीन काल से हैं। इसलिए हिंदी क्षेत्र के गाँवों के नाम अनार्य मूलक हैं। विजेताओं ने कुछ नगरों के नाम परिवर्तित तो कर दिए, लेकिन वे उत्तर भारत और हिंदी प्रदेश के अधिसंख्य गाँवों के नाम नहीं बदल सके। जब भारत के गाँव अनार्यों द्वारा बसाए गए, तब अनार्य भाषाएँ ही भारत की पुरातन भाषा मानी जानी चाहिए।
बौद्ध सभ्यता का विस्तार सिंधु सभ्यता तक!
प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह की एक और अवधारणा है। आम तौर से इतिहासकारों का एक बड़ा समूह यह मानता रहा कि वैदिक धर्म के विरोध में बौद्ध धर्म का उदय हुआ। वह इस मान्यता को खारिज करते हैं। उनका मानना है कि बौद्ध धर्म नहीं, बल्कि भारत भूमि पर सभ्यता विकास के क्रम में अत्यंत प्राचीन काल से ही सतत जारी रही एक बड़े भारतीय समूह (आबादी) की सांस्कृतिक-यात्रा है, जिसके अनेक ऐतिहासिक सोपान हैं। उनका कहना है, भारत में वैदिक सभ्यता पश्चिमोत्तर में फली-फूली, जबकि बौद्ध धर्म का उदय पूरब में हुआ। उनका तर्क है कि अगर वैदिक सभ्यता के खिलाफ बौद्ध धर्म का विकास होता तो उसका उद्भव-स्थल कीकट प्रदेश (मगध क्षेत्र) के बजाय पश्चिम का इलाका होता। वह बताते हैं कि जैन धर्म के तीर्थंकरों की तरह बुद्धों की भी परंपरा रही है। शाक्य मुनि (गौतम बुद्ध) से पहले कई बुद्ध हुए हैं। वह मानते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता बौद्ध सभ्यता का ही पूर्ववर्ती रूप है, क्योंकि गौतम बुद्ध की मूर्तियों में चादर ओढऩे की शैली और सिंधु घाटी के उत्खनन से मिली मूर्ति की शैली में एक तरह की समानता भी है।
भ ध्वनि उत्तर भारत के अलावा और कहीं नहीं
इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग यही मानता हैं कि आर्यों के बाद शक, हूण, कुषाण, गूजर और आभीर आदि भारत-भूमि पर आए। मगर प्रो. सिंह का कहना है कि जब भ ध्वनि उत्तर भारत के अलावा संसार की किसी भाषा में नहीं है, तब आभीर भारत में बाहर से कैसे आए? अहीर का संबंध आग्नेय परिवार की भाषाओं से है। झारखंड की प्रोटो-आस्ट्रेलाइट प्रजाति वर्ग की एक भाषा है- हो, जिसमें अयेर (अहीर) का अर्थ जानवरों का ले जाना है। झारखंड की लोकभाषा कुरमाली या कुरमवारी का संबंध कुर्मी जाति से है। इस भाषा को बोलने वाले द्रविड़ कुड़मी (कुर्मी) आदिवासी मूल के हैं। कोयरी का संबंध भी द्रविड़ भाषा परिवार से है। द्रविड़ परिवार की भाषा तेलगू में काय का अर्थ कच्चा फल और कायु का अर्थ फल लगाना होता है। द्रविड़ भाषाओं में काय-कोय उत्पादन करने वाले जनसमूह के साथ जुड़ा है। भारत में कुर्मी, कोयरी और अहीर (आभीर) जातियाँ भाषा विज्ञान के हिसाब से आदिवासी मूल की हैं। कैमूर पहाड़ी (विंध्य पर्वत श्रेणी) के एक हिस्से और इसकी उपत्यका में उरांव, खरवार, चेरो के साथ इन जातियों के लोग भी बसे हुए हैं। अहीरों के नायक कृष्ण प्राचीन देवता हैं। वह क्लासिकल संस्कृत क्यों बोलेंगे? मथुरा क्षेत्र की मूल भाषा शौरसेनी है, संस्कृत नहीं। इस संदर्भ में प्रो. सिंह विंध्य पर्वत पर रहने वाली आदिवासियों के एक लोकगीत का उदाहरण देते हैं, जिसमें एक अहीर महिला का वर्णन है।
इतिहास के प्रति नई भाषा विज्ञान दृष्टि
जाहिर है, प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह भारतीय इतिहास को भाषा वैज्ञानिक होने के नाते भाषा-दृष्टि से देखते हैं। भारत की सभ्यता, संस्कृति, साहित्य और भाषा को लेकर उनकी स्थापना-अवधारणा की झलक उनकी पुस्तकों (भाषा, साहित्य और इतिहास का पुनर्पाठ, भारत में नाग परिवार की भाषाएँ, हिंदी साहित्य का सबाल्टर्न इतिहास, आधुनिक भोजपुरी के दलित कवि और काव्य, इतिहास का मुआयना आदि) में दिखाई पड़ती है। इन पुस्तकों के अध्ययन से एक नई इतिहास-दृष्टि के बारे में जानकारी मिलती है।
(फारवर्ड प्रेस वेबपोर्टल से कुमार बिन्दु के लेख का संपादित अंश, , संपादन : कृष्ण किसलय)
लेखक : कुमार बिन्दु
निज संवाददाता, हिन्दुस्तान
सासाराम कार्यालय