भारत के सोन नदी अंचल (बिहार) केेंद्रित सोनमाटी मीडिया समूह के अग्रणी न्यूजपोर्टल सोनमाटीडाटकाम (sonemattee.com) पर सासाराम स्थित एसपीजैन कालेज के वरिष्ठ हिन्दी प्राध्यापक एवं भाषाविद प्रो. (डा.) राजेन्द्र प्रसाद सिंह की पुस्तकों में इतिहास को नए नजरिये से देखे जाने और उठाए गए सवालों पर चर्चा से संबंधित डेहरी-आन-सोन (रोहतास) के वरिष्ठ पत्रकार कुमार बिन्दु का लेख (हिरणों के इतिहास में शिकारियों की शौर्यगाथाएं आखिर क्यों) एक सितम्बर को प्रसारित हुआ था। उस लेख के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत है डा. श्यामसुंदर तिवारी की यह टिप्पणी, जो उन्होंने सोनमाटीडाटकाम के लिए भेजी है।
डा. श्यामसुंदर तिवारी ने उत्तर प्रदेश में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से जियोग्राफी (आनर्स) और पुस्तकालय व सूचना विज्ञान की पढ़ाई करने के बाद इग्नू से समाजशास्त्र में एमए किया और फिर बिहार के आरा स्थित वीरकुंवर सिंह विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। आकाशवाणी के सासाराम केेंद्र में पुस्तकालयाध्यक्ष के पद पर कार्यरत डा. श्यामसुंदर तिवारी बिहार के सीमांत दक्षिणी जिलों कैमूर व रोहतास के पर्वतीय अंचल, सोनघाटी, महापाषाणिक (मेगालिथ), जनजातीय संस्कृति के शोधकर्ता हैं और बिंध्य पर्वत श्रृंखला के कैमूरांचल में अवस्थित शैलाश्रयों-शैलचित्रों के खोज-कार्य में जुटे हुए हैं। रोहतास का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास इनकी चर्चित पुस्तक है।
बुद्ध से बहुत पहले का है वेदों की भाषा का कालखंड
– डाक्टर श्यामसुंदर तिवारी –
इन दिनों कई अभियानी लोग वेद की रचना ईसा के समय में होने की बात कह रहे हैं। जबकि दुनिया भर के अधिसंख्य भाषा वैज्ञानिक इस बात को मानते हैं कि हत्ती, मितन्नी, फारसी और अवेस्तिक (धर्मग्रंथ अवेस्ता की भाषा) के साथ वैदिक संस्कृत (ऋग्वेद की भाषा) दुनिया की प्राचीनतम भाषाओं में हैं। यह भी माना गया है कि ऋग्वेद दुनिया का सबसे प्राचीन साहित्य है। बहुत पहले वेदों को छंदबद्ध होने के कारण छांदस कहा जाता था और उसी आधार पर वेदों की भाषा (जिसे सरलता के लिहाज से वैदिक संस्कृत कहना अधिक उचित है) को भी छांदस कहा जाता था। निश्चित रूप से वेदों की रचना का कालखंड गौतम बुद्ध से बहुत-बहुत पहले का है।
बौद्धग्रंथ चुल्लबग्गय में संग्रहित कथा है प्रमाण
वेदों की रचना का काल ईसा के बाद होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। इसका एक प्रमाण बौद्ध ग्रंथ चुल्लबग्गय है, जिसमें गौतम बुद्ध से संबंधित एक कथा का वर्णन है। उस कथा (चुल्लबग्गय 5, 33, 1) में यह उल्लेखित है कि एक बार भगवान बुद्ध के दो शिष्यों ने उनसे आग्रह किया- हन्द! मयं भंते! बुद्धवचनं छंदसो आरो पेमातिश्। (इसका अर्थ है भगवान अपने वचन को छंदस् यानी वैदिक भाषा में निबद्ध करने की आज्ञा दें)। इस पर भगवान बुद्ध ने कहा- अनुजानामि भिक्खवे, सकाय, निरुत्तिया बुद्धवचनं परिया पुणितुश्। (अर्थात हे भिक्षुओं, मैं अपने वचन को प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपनी-अपनी भाषा में सीखने-समझने की आज्ञा देता हूं)। इस तरह गौतम बुद्ध ने अपने उपदेश को छांदस या वैदिक भाषा में लिपिबद्ध करने के बजाय लौकिक भाषा में निबद्ध करने का निर्देश दिया था। इससे जाहिर है कि बुद्ध से बहुत पहले से संस्कृत, वेद और वैदिक भाषा (वैदिक संस्कृत) प्रचलन में थी।
आर. पिशल की पुस्तक में भी है उदाहरण
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा प्रकाशित पुस्तक प्राकृत भाषाओं का व्याकरण (लेखक आर. पिशल) में पृष्ठ 56 पर दिए गए विवरण के अनुसार, उत्तराखंड में बौद्ध धर्मावलंबियों के पास उपलब्ध धार्मिक पत्रिकाओं में यह बात लिखी हुई मिलती है कि बुद्ध के निर्वाण के 116 वर्ष बाद चार स्थविरों की मुलाकात हुई थी। चारों स्थविर अलग-अलग क्षेत्र और भिन्न-भिन्न वर्ण के थे, इसलिए वे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और पैशाची भाषाएं बोलते थे। इस पुस्तक (प्राकृत भाषाओं का व्याकरण) का अनुवाद विद्वान साहित्यकार डॉक्टर हेमचन्द्र जोशी ने किया है।
पत्थरों पर लिखे गए राजाश्रय प्राप्त संदेश ही बचे रह गए
मैक्स मूलर ने इंडियन जियोग्राफी एंड हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर में पृष्ठ 367 पर यह बताया है कि कागजपत्रों, ताड़पत्रों पर लिखी हुई पुस्तकें हजारों वर्षों तक सुरक्षित नहीं रह सकती हैं, इसलिए उन पर लिखे जाने का प्रमाण बतौर पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है। मगर राजाश्रय प्राप्त जो संदेश पत्थरों पर लिखवाए गए, वह ही बचे रह गए हैं। मौर्य काल और उसके पहले से भी बौद्ध धर्म को राजाश्रय प्राप्त था। इस कारण सम्राट अशोक और उसके पहले के भी शिलालेख पाली भाषा में मिलते हैं।
अभियानी नवबौद्ध कह रहे हैं वेद और संस्कृत का अस्तित्व ईसा-पूर्व में नहीं
आजकल नवबौद्ध वेद, संस्कृत भाषा और महर्षि पाणिनि को ईसा के बाद का सिद्ध करने के अभियान में लगे हुए हैं। ये अभियानी नवबौद्ध बता रहे हैं कि चूंकि वेद, जिनकी भाषा संस्कृत है, उसमें (संस्कृत में) शिलालेख भारत में ईसा के बाद के मिलते हैं, इसलिए वेद और संस्कृत का अस्तित्व ईसा-पूर्व नहीं था।
(संपादन : कृष्ण किसलय, सोनमाटीडाटकाम)
लेखक : डाक्टर श्यामसुंदर तिवारी
पुस्तकालयाध्यक्ष, आकाशवाणी, सासाराम
(कैमूरांचल और सोनघाटी संस्कृति के शोधकर्ता)