डालमियानगर पर,तिल तिल मरने की दास्तां धारावाहिक पढ़ा। डालमियानगर पर यह धारावाहिक मील का पत्थर सिद्ध होगा। यह धारावाहिक संग्रहणीय है।अतित के गर्त में दबे हुए, डालमियानगर के इतिहास को जनमानस के सामने प्रस्तुत करने के लिए आपको कोटिश धन्यवाद एवं आभार प्रकट करता हूं। आशा है आगे की प्रस्तुति इससे भी अधिक संग्रहणीय होगी।
–अवधेशकुमार सिंह,
कृषि वैज्ञानिक, स.सचिव : सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार – by Awadesh Kumar Singh e-mail
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on FaceBook kumud singh — हम लोग 10 वर्षों से मैथिली मे अखबार निकाल रहे हैं..उसमें आपका ये आलेख अनुवाद कर लगाना चाहते हैं…हमने चीनी और जूट पर स्टोेरी की है..डालमियानगर पर नहीं कर पायी हूं…आप अनुमति दे तो लगाने का विचार था…
1. तिल-तिल मरने की दास्तां (किस्त-1)
मोहनजोदड़ो-हड़प्पा बन चुका चिमनियों का चमन, सोन अंचल की बड़ी आबादी पर हिरोशिमा-नागासाकी जैसा हुआ असर, इमदाद नहीं बकाएदारों को आज भी है वाजिब भुगतान का इंतजार, दो पीढिय़ां हुईं बर्बाद
डेहरी-आन-सोन (बिहार) – कृष्ण किसलय। कभी पूरे एशिया में प्रसिद्ध रहे देश के तीन बड़े औद्योगिक घरानों टाटा, बिड़ला व डालमिया में से एक के डालमियानगर में 85 साल पहले स्थापित हुए उद्योगसमूह पर आश्रित कर्मचारियों-कारोबारियों की दो पीढिय़ां बर्बाद हो चुकी हैं। 33 साल पहले इस विशाल इंडस्ट्रीज को कबाड़ में तब्दील कर दिए जाने का असर रोहतास जिले (मुख्य तौर पर डालमियानगर, डेहरी-आन-सोन) सहित औरंगबाद, कैमूर व पलामू जिलों की आबादी और अर्थव्यवस्था पर वैसा ही हुआ, जैसा जापान के दो शहरों पर हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद हुआ। 09 जुलाई 1984 की सुबह सभी कारखानों में प्रबंधन ने तालाबंदी की सूचनाएं टांग देने के बाद 500 एकड़ में विस्तृत चिमनियों का चमन विशाल मरघट में तब्दील होकर देश का मोहनजोदड़ो-हडप्पा बन गया।
सबसे भीषण त्रासदी
यह पूरी दुनिया में अपनी तरह की सबसे भीषण त्रासदी रही है। फिर भी इस पर यह न तो भोपाल गैस कांड की तरह राष्ट्रीय मीडिया में चर्चा का विषय बना, न ही राजनीतिक दलों ने इसे मुद्दा बनाया और न ही इसके दीर्घकालिक असर को लेकर कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन हुआ। न ही इस मृत उद्योगसमूह पर आश्रित कर्मचारियों-कारोबारियों को न्यायालय से न्याय मिल सका है, क्योंकि आश्रित कर्मचारियों-कारोबारियों को इमदाद नहीं, वाजिब भुगतान का इंतजार है।
1984 में तालाबंदी के समय रोहतास उद्योगसमूह के विभिन्न कारखानों और संबद्ध कंपनियों में करीब 12 हजार स्थाई कर्मचारी सीधे नियोजित थे। ठेका मजदूरों और इन कारखानों में विभिन्न तरह की सामग्री की आपूति करने वालों की संख्या भी हजारों में थी। जाहिर है कि रोहतास उद्योगसमूह पर परोक्ष-अपरोक्ष रूप से आश्रित करीब 20 हजार परिवार अर्थात कम-से-कम एक लाख लोग तालाबंदी के कारण वक्त के कूड़ेदान में फेेंक दिए गए, जिनके जीने-मरने और अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्ष की करुण कहानी तिल-तिल मरने की दास्तां भी है।
30 साल पहले घोषित हुआ भूतनगर
तालाबंदी के चार साल बाद ही 1988 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (एशियन इंप्लायमेंट प्रोग्राम) ने अपने आर्थिक शोध सर्वेक्षण (लेबर मार्केट कंडीशन इन रोहतास इंडस्ट्रीज) में डालमियानगर को घोस्ट टाउन (भूतनगर) घोषित कर दिया। कभी देश के मजबूत औद्योगिक परिदृश्य का जीवंत उपक्रम रहे डालमियानगर में हंसते-ठिठलाते, गुलजार व रौशन रहा जीवन श्मासान जैसे सन्नाटे, आदमी की शर्मनाक फटेहाली और मनुष्यता के तार-तार होने की सिसकियां झनझनाते बयार की तरह गूंजने लगीं। एक समय था, जब भूगर्भ नालियों, कंक्रीट की चिकनी-साफसुथरी-चौड़ी सड़कों, फूलों के बागीचों और रात में हर तरफ चमचमाती प्रकाश व्यवस्था वाला डालमियानगर शीर्ष नगरीय सुविधा वाले शहर में शुमार था। जहां के सुविधा संपन्न नागर जीवन को देखकर दूसरी जगहों के लोग रहने के लिए लालायित हो उठते थे।
अत्यंत द्रावक दारुण बदहाली
रोहतास उद्योगसमूह में तालाबंदी के बाद इसके कर्मचारियों और इस पर आश्रित रहे कारोबारियों के परिवारों की स्थिति अत्यंत दारुण और अवर्णनीय रही है। जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर गिरे एटम बम ने वहां की आने वाली पीढिय़ों तक को ताबही में रखा, बहुत कुछ उसी तरह का परिस्थिति डालमियानगर की रही है। अंतर इतना है कि जापान में शक्तिशाली देशों के विश्वयुद्ध में निर्दोष नागरिकों पर बम गिराए गए और डालमियानगर में बिना युद्ध हुए ही पूंजीपती, सरकार व श्रमिक नेताओं ने साजिश कर खामोशी से समुंदर की गहराई जैसी स्थिति में डाल दिया, जहां से तैरना जानने वाले व सक्षम लोग ही उबर सके। मगर अधिसंख्यों की अगली पीढ़ी तक गुहार लगाने से वंचित रहकर खामोश तबाही का दंश झेलती रही, जिनके पिछले दशकों की परिस्थितियों को जानना-समझना कराह निकलने जैसे अनुभव से गुजरने जैसा है, कंटीले-पथरीले बन गए जीवन की राह के सच से साक्षात्कार करना है। तब पेट, परिवार और हालात की मार से विवश डालमियानगर की अनेक बहू-बेटियों को दिल्ली के जीबी रोड और कोलकाता के सोनागाछी की बहुचर्चित देहमंडियों के जाल में उलझना पड़ा।
(अगली किस्त में रोहतास उद्योगसमूह के स्थापित होने से मृत होने तक की कहानी)