पुस्तक समीक्षाः यात्रियों के नजरिए में शाहाबाद

पुस्तक समीक्षा यात्रियों के नजरिए में शाहाबाद

लक्ष्मीकांत मुकुल की नई किताब ‘‘यात्रियों के नजरिये में शाहाबाद‘‘ ग्रामीण परिवेश में रची-बुनी गई ग्रामीण इतिहास पर आधारित एक प्रमाणिक पुस्तक है। हिन्दी और भोजपुरी भाषा-साहित्य के लिए समर्पित भाव से सृजनकार लक्ष्मीकांत मुकुल इस किताब के जरिये एक मंजे हुए इतिहासकार के रूप में नजर आते हैं। वैसे किताब का टाइटल ‘‘यात्रियों के नजरिये में शाहाबाद‘‘ अपने आप में इतना आकर्षक है, कि साहित्य के प्रेमी इसे पढ़ने से नहीं चूकेंगे। सच कहे तो प्रथम दृष्टया ही यह किताब पाठकों को इतिहास के झरोखा से गुजारते हुए साहित्य के रस में भी भिंगोने में सफल दिखता है। धर्म का इतिहास से जुड़ाव को प्रमाणित करते हुए लेखक दिनारा के प्रसिद्ध देवीस्थल भलुनी गांव व धाम के लोक इतिहास और देवी मंदिर के कई मिथकीय संदर्भों से परिचित कराते हैं। भलुनी धाम की महत्ता को यह किताब आधारभूत तथ्य दे रही है।
रोहतास जिला के दिनारा निवासी लक्ष्मीकांत मुकुल पेशेवर रूप से खेती और किसानी का काम करते हुए साहित्यिक रचनाधर्मिता में गतिशील बने रहते हैं। यह पुस्तक एक ओर साहित्यिक पुट के साथ इतिहास की जानकारी देती है, वहीं दूसरी ओर शिक्षार्थियों और शोधार्थियों के लिए ज्ञानवर्द्धक किताब के रूप में सामने आती है। इस पुस्तक में रोहतास जिला के एक प्राचीन प्रखंड दिनारा के इतिहास को रेखांकित करते हुए औपनिवेशिक काल में यहां की प्रतिरोधी चेतना को विस्तार से जानकारी है। किताब को पढ़ने से रोहतास जिला और विशेष रूप से दिनारा प्रखंड और आसपास के इलाकों में पुराना शाहाबाद के विभिन्न गांवों की भौगोलिक-सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक और धार्मिक गतिविधियों और तत्कालीन रहबासियों के रूझानों को जानने-समझने में मदद मिलती है। इसमें गांवों की सभ्यता-संस्कृति और परंपरा, रीति- रिवाजों को भी पढ़ने-जानने वालों के लिए काफी कुछ है। दरअसल यह किताब पुराना शाहाबाद के ग्रामीण समाज और इतिहास को समझने के लिए बेहतरीन किताब है। आगे यह संदर्भ पुस्तक के रूप में सहायक सिद्ध होगी।

लक्ष्मीकांत मुकुल एक ग्रामीण-कस्बाई इलाके में रहने वाले गंभीर साहित्यकार समर्पित भाषा-सेवी अध्येता हैं। वैसे तो यह मूलतः हिन्दी और भोजपुरी साहित्य के आदमी हैं। लेकिन इतिहास लेखन में इनकी गहरी रूचि रही है। साहित्य और इतिहास का संबंध मानव के जीवन और समाज से जुड़ा हुआ है। मानव जीवन है तो साहित्य है और समाज है तो उसका इतिहास भी कुछ ना कुछ रहा है। समय के साथ साहित्य का स्वरूप बदलता है। इसी तरह समाज का इतिहास भी बदलता है। मुकुल जी ने अपनी किताब को शोधपरक दृष्टि से तैयार किया है। तभी इसमें इतिहासकार की दृष्टि से लेखक ने अपनी यायावरी प्रवृत्ति के मुताबिक किसी तथ्य पर देख-सुनकर नहीं, बल्कि यथासंभव उनका भौतिक सत्यापन और विश्लेषण करने के बाद ही लिखते हैं। ग्रामीण इतिहास पर अध्ययन करने वाले शोधार्थियों के लिए पुस्तक मागदर्शन का काम करेगी।
इस पुस्तक को छोटे- बड़े कुल पांच अध्यायों में बांटकर लिखा गया है, जो तारतम्यता के साथ अपने पाठकों को बांधकर रखने में सक्षम दिखती है। आलेखों में सहज-सरल भाषा और शब्दावली का प्रयोग हुआ है, इससे ऐतिहासिक बोध रखते हुए भी किताब कहीं से बोझिल नहीं लगती है। साहित्य से लबरेज फैंटेंसी उपन्यास की तरह पाठकों को अंत तक पढ़ने के लिए विवश करती हैं।

पहले आलेख में ‘‘औपनिवेशिक काल में दिनारा क्षेत्र और उसकी प्रतिरोधी चेतना‘‘ में दिनारा के शौर्यपूर्ण गौरवशाली इतिहास को विस्तार से सामने रखने में लेखक सफल रहे हैं। जिला मुख्यालय सासाराम से करीब 30 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में बसा दिनारा का अतीत गौरवगाथाओं से परिपूर्ण रहा है। इसका जिक्र आईने अकबरी से लेकर टोडरमल के भू- राज व्यवस्था में भी शामिल था। ईस्ट इंडिया कंपनी की विश्वप्रसिद्ध खोज-यात्रा में भी दिनारा की चर्चा है। अंग्रेज सर्वेयर फ्रांसिस बुकानन के नेतृत्व में हुई यह यात्रा 1812- 13 में पूरी हुई थी। उस समय करंज थाने की स्थापना हो गई थी। करंज थाना के क्षेत्राधिकार में दिनारा एवं दनवार परगनों के सभी क्षेत्र शामिल थे।
यात्रा विवरण में औपनिवेशिक काल के दिनारा क्षेत्र के बारे में काफी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। उस दौर में बुकानन ने अपनी यात्रा-क्रम में सूर्यपुरा, करंज, कोआथ, बहुआरा, बड़हरी, दनवार, धरकंधा, शिवगंज, दिनारा, कोचस, दावथ, भलुनी, आदि गांवों का जिक्र किया हैं। घने जंगलों में स्थित भलुनी देवी मंदिर को उसने एक अति महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल माना है। दिनारा क्षेत्र के प्रमुख धार्मिक स्थलों में भलुनी धाम मंदिर, धरकंधा का दरिया मठ, खास का चंदन-शहीद, देवढ़ी का शिवमंदिर, सिमरी का महावीरी झंडा, कड़सर का सोखा धाम और ठोरा नदी के संबंधित मिथकीय संदर्भों से अनेक दंतकथाएं और कहानियां लोककथाओं से उद्धृत होती हैं। बुकानन के सूर्यपुरा से भलुनी धाम, कोआथ से करंज, कोचस और कोनडिहरा से बहुआरा की यात्रा, दिनारा से करंज और कोचस-सूर्यपुरा और नटवार की यात्राओं का आंखों-देखी उसकी डायरी से मिलती है। इसके आधार पर हम उन स्थलों की पूर्व की स्थिति से वर्तमान हाल की तुलना कर आज के युग में विकास के लिए मॉडल या मानकों का मूल्यांकन कर सकते हैं, इससे विकास का मार्ग प्रशस्त होगा।

पुस्तक के दूसरे लेख ‘‘यात्रियों के नजरिये में शाहाबाद‘‘ में इस भू-खंड में प्रवास किये लोगों की यात्राओं को फोकस किया गया है। यात्रियों के यात्रा-विवरण के विषयवस्तु वहां के निवासियों की केवल गतिविधियां ही नहीं होती, बल्कि धार्मिक क्रियाकलाप, सामाजिक गतिविधि, आर्थिक लेनदेन की प्रक्रिया, स्थापत्य के तत्व और स्मारक भी होते हैं। यदि इस नजरिये से देखेंगे तो दिनारा-रोहतास में यात्रा की शुरूआत चीनी यात्री ह्वेनसांग सबसे पहले आया। मुगल सल्तनत के संस्थापक बाबर अपनी ‘बाबरनामा’ में शाहाबाद के उत्तरी भाग में अपनी छावनी डालने और आरा से गुजरने का जिक्र है। ईरानी यात्री अब्दुल लतीफ आगरा स्थित राजमहल की यात्रा के वृत्तांत के दौरान चैसा और सासाराम से गुजरने के दौरान इस इलाके की चर्चा की है। यूरोपीय यात्री जीम वापरिस के पटना यात्रा के दौरान शाहाबाद के सासाराम और दुर्गावती से गुजरने की चर्चा है। इसी तरह अंग्रेज चित्रकार थॉमस डेनियल और विलियम्स डेनियल बंधुओं द्वारा शाहाबाद क्षेत्र के कई ऐतिहासिक-धार्मिक स्थलों के मनमोहक चित्र बनाये गये हैं। इसमें सासाराम के शेरशाह रौजा का तालाब, नवरतन किला, शहर से सटे स्थित धुआंकुंड व मांझरकुंड, रोहतासगढ़ का किला, भगवानपुर स्थित मुंडेश्वरी मंदिर का शिखर, शेरगढ़ का किला, रामगढ़ का किला और मंदिर के चित्र हैं। शाहाबाद में भ्रमण करने वाले यात्रियों में फ्रांसिस बुकानन हेमिल्टन एक बड़ा नाम है। वह एक उच्च कोटि के अन्वेषक थे।

किताब में तीसरा लेख ‘‘शिया मुस्लिम द्वारा प्रारंभ सिमरी का महावीरी झंडा‘‘ है। इसके माध्यम से लेखक ने इस क्षेत्र में कौमी एकता की परंपरा को स्थापित करने की सफल कोशिश करते हैं। रोहतास के दावथ प्रखंड स्थित सिमरी गांव में सामाजिक-धार्मिक समरसता का एक अद्भुत नमूना देखने को मिलता है। जहां दशहरा में महावीरी झंडा उठाने की प्रथा एक शिया मुस्लिम द्वारा करीब 110 साल पहले शुरू की गई थी। जो आज तक बदस्तूर जारी है। मुस्लिम समाज द्वारा हिन्दू देवी-देवताओं और धार्मिकग्रंथों के प्रति सम्मान की भावना के कई उदाहरण देखने को मिलता है, जिसमें रामभक्त हनुमान के प्रति आदर की भावना सबसे प्रबल मिलती है। हनुमान के प्रति मुस्लिमों द्वारा प्रकट किए गए सम्मान-समर्पण का व्यापक रूप से विवरण कल्याण के हनुमान अंक में मिलता है। जिमसें लखनउ के तत्कालीन अवध के नवाब मुहम्मद अली शाह की बेगम रबिया ने संतान प्राप्ति के लिए स्वप्न-दर्शन के आधार पर इस्लामबाड़ी में हनुमान मंदिर बनवाया था। दरअसल सिमरी गांव में बसा शिया मुस्लिम परिवार कोआथ के नवाब परिवार से जुड़ा रहा है। कोआथ के नवाब नुरूल हसन के परिवार और उनकी जमींदारी का विस्तार से उल्लेख बुकानन द्वारा शाहाबाद के सर्वेक्षण रिपोर्ट में मिलता है। इनके पुरखे शुजाउद्दौला की फौज में विंग कमांडर थे। कोआथ-सिमरी गांव की मशहूरी उस दौर में इन्हीं संपन्न मुस्लिम परिवारों और उनकी कोठियों के कारण थी। उनका खान-पान, रहन-सहन, चाल-चलन, व्यवहार, तत्कालीन समाज में समरसता एवं बराबरी के लिए प्रतिबद्ध दिखता है।

इस पुस्तक के चैथा आलेख ‘‘बक्सर में गंगाः अतीत से वर्तमान तक‘‘ में गंगा नदी के विस्तार और इसके धार्मिक-सामाजिक महत्व को रेखांकित किया गया है। गंगाजल को सबसे पवित्र और निर्मल माना गया है। गंगातट पर बसे बक्सर के आध्यात्मिक-धार्मिक महत्व एवं गंगा से जुड़ाव को लेखक ने अपने अकाट्य तर्क और तथ्यों से प्रमाणित किया है। बक्सर एवं गंगातट के पुराने चित्रों को आधार बना लेखक ने लिखा है कि प्राचीन काल में बक्सर के गंगातट निर्मलता, सहजता और प्राकृतिक छवियों के प्रतिबिंब थे। यह जहाजियों के लंगर, जलमार्ग की आवाजाही के साथ धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र था। नावों की शोभायात्रा को देखने वाले दर्शनार्थियों की भारी भीड़ साबित करती है कि 200 साल पहले भी बक्सर में तीर्थयात्रियों की संख्या कम नहीं थी। इसके साथ लेखक ने बक्सर क्षेत्र में लगने वाले कई ऐतिहासिक-धार्मिक महत्व के मेलों के बारे में काफी जानकारी दी है। इसमें संक्रांति मेला, पंचकोशी मेला व श्रीराम विवाह मेला प्रमुख है।

इस किताब का पांचवा लेख ‘‘ग्रामीण इतिहास की समझ‘‘ इस पुस्तक की आत्मा है। शाहाबाद के ग्रामीण इतिहास को जानने-समझने के लिए यह संदर्भग्रंथ साबित हो सकती है। इतिहास में रूचि रखने वाले लोग, खास तौर पर ग्रामीण इतिहास में, उनके लिए यह पुस्तक बहुपयोगी है। इस किताब से एक ओर इतिहास को जानने-समझने की एक नई समझ मिली है, तो वहीं दूसरी ओर साहित्य और इतिहास के बारीक संबंधों को अध्ययन करने का मौका है। किताब के माध्यम से लेखक ने इतिहास के क्षेत्र में बिल्कुल ही नया प्रयोग किया है। उन्होंने पूरे किताब में कहीं भी जरूरी इतिहास बोध को लेखन से अलग नहीं होने दिया। बड़े ही खुबसूरती से इतिहास की नई व्याख्या करते हुए तमाम तथ्यों और संदर्भों को सहेजते हुए एक इतिहासकार के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। साहित्यिक मिजाज में लिखी गई किताब एक व्यवस्थ्ति इतिहास के रूप में सामने आई है। जिसमें लेखक अपने अंदर के अंतर्विरोधों के बावजूद वैसे तथ्यों को समाहित किए हैं, इससे ग्रामीण इतिहास की समझ व्यापक क्षेत्र के इतिहास की अपेक्षा केंद्रभूत होती है। यह विशालता से सूक्ष्मता की ओर की यात्रा है। इस मामले में लेखक ने अपनी इतिहास दृष्टि से बार-बार संकेत किया है।

किताब का आखिरी आलेख ‘‘शाहाबाद गजेटियर का महत्व‘‘ अपने आप में खास है। कारण कि शाहाबाद गजेटियर से तत्कालीन शाहाबाद के गांव, कस्बों, बाजारों और छोटे-बड़े शहरों की आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक स्थिति के बारे में पता चलता है। दरअसल गजेटियर प्रकाशित करने की परंपरा ब्रिटीश शासनकाल में प्रशासकीय दृष्टि को ध्यान में रखकर अधिकारियों को क्षेत्र विशेष की जानकारी देने के लिए शुरू हुई थी इसमें क्षेत्र विशेष या जिले का भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक और धार्मिक स्थलों के बारे में जानकारी के साथ ही सरकारी गतिविधियों की मोटा-मोटी जानकारी रहती थी। इससे अंग्रेज अधिकारियों को शासन की व्यवस्था को सुचारू ढ़ंग से चलाने में सहूलियत होती थी। किसी क्षेत्र विशेष के बारे में जानने-समझने के लिए गजेटियर का अध्ययन बहुत जरूरी होता है। यदि इतिहास की सूक्ष्म जानकारी लेनी है, किसी क्षेत्र में शोध करना है तो पुराने गजेटियर कितना सहायक होगा, यह लेखक ने स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया है। विदित हो कि भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला बिहार का पुराना शाहाबाद जिला आज के समय में प्रशासनिक दृष्टि से चार नए जिलों में विभक्त हो चुका हैऋ भोजपुर(आरा),रोहतास (सासाराम), बक्सर व कैमूर(भभुआ)।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि लक्ष्मीकांत मुकुल की अध्ययन शैली बहुत साफ-सुथरी और सारगर्भित है। अपने लेखन में इतिहास की गहरी समझ रखते हुए साहित्यिक शैली में अपनी किताब को प्रस्तुत किया है। यह किताब आने वाले समय में शाहाबाद के इतिहास की जानकारी रखने वाले के लिए बहुलाभकारी साबित होगी। किताब के माध्यम से उन्होंने क्षेत्रीय इतिहास लेखन के लिए एक नई लकीर खींची है। संदर्भ सामग्री के रूप में यह किताब भविष्य में शोधार्थियों के लिए बहुत काम की साबित होगी। ग्रामीण इतिहास की गहन अध्ययनशीलता लेखक के मनोयोग और गांव के इतिहास से जुड़ी उनकी यह किताब लीक से हटकर है।

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