लक्ष्मीकांत मुकुल की अरुणाचल यात्रा पर कविताएँ : पहली विमान यात्रा, असम के चाय बगान और रास्ते में मिली दिहिंग नदी
पहली विमान यात्रा
रनवे पर तेज दौड़कर उड़ा विमान
जैसे डेग – डेग भरता नीलाक्ष
चोंच उठाये पंख फैलाये उड़ जाता है आकाश की ओर
खिड़की से नजर आते हैं उँचे मकान, पेड़, सड़कें
नन्हें खिलौनों की शक्ल लेते हुए
जैसे पहाड़ की ऊँचाई पर जाते ही
दिखते हैं तस्तरी के आकार के बड़े खेत
डिब्बी की तरह ताल-तलैये, चीटियों जैसी भेड़- बकरियां
धरती को बहुत पीछे छोड़ता हुआ विमान
अपने डैने आड़ी तिरछी करते लेता है दिशा बदलने को मोड़
वैसे ही रास्ते चलते हम घूम जाते हैं तिरछी पगडंडी पर
दोपहा, बनडगरा की ओर
तैतीस हजार फीट की ऊँचाई पर उड़ते जहाज की खिड़की से
झाँकता हूं सामने नीचे की तरफ
दिखती हैं स्याह धुंध के बीच कहीं
डोरी सी घुमावदार रेखाएं
वह नदियाँ होंगी, हमारे दिलों में
पवित्रता – निर्मलता का भाव लिये
कहीं दिख जाते मेघ पुष्पों के समूह-श्वेताभ, नीलाभ, , धुनी रुई सा सफेद बादल
कहीं नजर आती पहाड़ियाँ
कुहरे की नीली साड़ी में लिपटी हुईं
कहीं पर्वतों के उतुंग शिखर बादलों से
गलबहियां करते हुए
तो कहीं दिख जाती कोई तपस्विनी-सी शांत हिमाच्छादित पर्वतमालाऐं
ऊपर से तानी हुई बादलों की श्वेत छतरियाँ
जब कभी बादलों से टकराता विमान, छर से भीग जाते डैने
भीग जाते यात्री-मन के अंतस
तभी बीच में आकर शहद सी मीठी आवाज में
कुछ कहती हैं परिचारिकायें
मुस्कुराते होठों, चहकती आँखों से
सांय – सांय की ध्वनियों में फुसफुसाती हुई
शफ़्फ़ाफ़ सुफैद मोगरे – सी खिलखिलाती
रात्रि के प्रहर में उड़ते विमान से
कहीं-कहीं दिख जाती है
खिड़की से नीचे झाँकते हुए टिमटिमाती बत्तियां
जैसा अंधियारी रात में नजर आता है
तारों भरा आकाश
अंधेरे में लैंडिंग करते हुए लॉग शॉट बिम्बों की तरह
नजर आते हैं तुम्हें महानगर
जगमगाते, चमकते, चकाचौंध करते हुए
भ्रमित करते हुए, अज्ञात भय
पैदा करते हुए तुम्हारे भीतर
जैसे हाइवे पर चलते हुए कोई पदयात्री
पीछे से आती तेज गाड़ी की आहट पाते ही
बढ़ जाता है फुटपाथ की ओर !
असम के चाय बगान
तिनसुकिया के हाइवे पर जाते हुए
दोनों तरफ बघरेड़ा के सघन वन-सा
मिलते हैं चाय बगान
बीच-बीच में बनी-ठनी दुल्हन-सी संवारे
काठ के घर टीन से छाये, बाड़ से सजाये
सुपारी के लम्बे पेड़, बांसों की झाड़
उँची-ढलाऊ जमीन लगायी ये चाय की ठिगनी झाड़ियाँ चुंबक
की तरह खींच लेती है सबका ध्यान
सौ बरस तक जिन्दा रहने वाला यह पौधा
सब्जबाज तलबगार पत्तियों से भरा
खुशबू रग – पत्रों में उमड़ता हुआ
भारतीय का आधुनिक पेय
कितना मनोहारी लगता है पहली नजर में
जैसे हरी चुनरी ओढ़े प्रेयसी हरितवर्णी चूड़ियाँ खनखना रही हो
सावन के दिनों में भी वसंती-राग अलापती हुई
इन बगानों के बीच में खड़े शिरीष के पेड़
किसी आदिम प्रेमी से कम नहीं लगते,
उनके तनों से लिपटी काली मिर्च की लताएँ तो
जैसे युगल नृत्य में झूल रही हों
जैसे थिरकती हैं बिहू पर्व पर अपनी अल्हड़ता में असमी युवतियाँ
अंग्रेजों के जमाने के लगाये इन चाय बगानों के
हरापन में झाँकने पर अवसरहाँ
मिल जाते हैं स्याह रंग के धब्बे
डेढ़ सौ सालों से बसाये चाय पत्तियों तोड़ने लाये गये
बंगाली, उड़ियाई, बिहारियों की दर्द गाथाएँ
असमियाँ स्त्रियों के मर्मान्तक दुख
स्थानीय निवासियों की अपनी भूमि से बेदखली
हरियल पातों में छुपे
सुग्गासांप-सा डंसने को
आतुर बगान मालिकों के कारनामे
कितना कुछ रहस्य छिपा है
असम के चाय बगानों में
जो छलकता है उनके दर्दभेदी गीतों में
तीन पत्तियाँ चुनते हुए, गुनगुनाते हुए ब्रह्मपुत्र घाटी की ओर से आती आर्द्र हवाओं के साथ
मानों शिरीष पेड़ों के सहारे समय के आकाश से
उतरा घना अंधेरा छा गया हो
लोक पर्वों पर ठुमकती हुई
असमिया बालाओं के जीवन में !
रास्ते में मिली दिहिंग नदी
नामसाई जाने के रास्ते में
मिल गई थी दिहिंग नदी
समीप जाते ही उसमें उठने लगीं लहरें
मानों वह पूछ रही हो कि
तुम भी तो नदी के गाँव के हो
तुम्हारे बोल से उठती है भंवर की आवाज
तुम्हारी चाल से अनुगूंजित होती है नदी की कलकल
तुम्हारी देह की शिराओं में दौड़ रही हैं
किसी नदी-सखी की धाराएँ
पटाकाई शैल शिखर की अलबेली पुत्री
नाओ दिहिंग बालू पानी की जीवित दुनिया बसाती
चली आती है, घनक-सी सजीली धरती पर
नीली पहाड़ियों, वर्षा वनों, जैविक उद्यानों, बांस के जंगलों, गीलों धान के खेतों, चाय बगानों,
पेट्रोलियम स्थलों के रसगंधों को सूंघती हुई
अल्हड़ नवयौवना की तरह अंगड़ाइयाँ लेती हुई
अपने रसकत्ता से जीवनदान देती हुई
असंख्य पशु-पंछियों
प्यास बुझाती हुई पिपाषु खेत- मैदानों को
फिटिकरी से चमकते अपने अवरिल धारों से
ब्रह्मपुत्र नद के साथ परिणय सूत्र में बंधते हुए
सिर्फ बहती जलधार नहीं है दिहिंग
खामती लोकगीतों- लोक कथाओं की नायिका है वह
स्थानीय आदिवासी समूहों की माँ
पूजा, आस्था, श्रद्धा की जीवंत तस्वीर
मछलियों, कछुओं, केकड़ों को अपनी कोख में पालती
एक पूरा जल संसार रचती है वह
असंख्य गोखूर झीलों का निर्माण करती हुई
एक सधे कारीगर की तरह
नीर, नदी, नारी का रूपक बनी दिहिंग
सुबक रही है आज निरंतर उथली होती हुई
बेगैरतों ने बांधों, पुलों के निर्माण के नाम पर
छलनी कर दिये हैं उसकी गेह
पेट्रोलियम पाइप के रिसाव से
धधक उठती है उसकी काया
अपने पर आश्रित जलचरों, नभचरों,
अपने भीतर बाहर की असंख्य वनस्पतियों को
बचाने की चिंता में
ठीक रुग्ण माँ की तरह, बच्चों की देखभाल में विवश !
संपर्क :- ग्राम-मैरा, पोस्ट – सैसड, भाया – धनसोई, बक्सर, मोबाइल नंबर : – 6202077236
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