कुमार बिन्दु का पहला काव्य-संग्रह है ‘साझे का संसार’। हालाँकि वे अस्सी के दशक से कविताएँ लिख रहे हैं और उम्र के सातवें दशक में रचनारत हैं। उनकी बुनियादी बनावट समाजवादी रही है। पत्रकारिता, रंगमंच और सामाजिक सक्रियता से निर्मित व्यक्तित्व ने उन्हें सदैव ज़मीनी सच्चाई से जोड़कर रखा है।
‘साझे का संसार’ काव्य-संग्रह में कुल 78 कविताएँ हैं और पृष्ठों की संख्या 128 है। छोटे आकार की इन कविताओं में कुमार बिंदु ने अपनी साहित्यिक समझ को विभिन्न प्रसंगों में प्रकट किया है। उनकी कविताएँ इस बात को प्रकट करती हैं कि हमारा समाज साझे का संसार बनकर रहना चाहिए। इस जीवन में, समाज में और इस संसार में साझे का सुख-दुख, साझे का इतिहास और साझे की समझ ही सच्ची समझ है। एक तरफा समझ का विशेष महत्व नहीं हो सकता है। यही कारण है कि कवि ने परंपरा की कई चीजों के प्रति अपनी असहमतियाँ व्यक्त की हैं। उसे जब-जब लगता है कि यह विचार या यह समझ साझेदारी के खिलाफ है तो कवि की कलम उसके खिलाफ अपनी बात कहने में कोई संकोच नहीं करती। उनकी कविताओं में सामाजिक दृष्टि से जो पक्षधरता दिखायी पड़ती है उसे हम बहुजन समाज से जुड़ी हुई पक्षधरता के रूप में रेखांकित कर सकते हैं। इस प्रसंग में ‘रक्तबीज’ शीर्षक कविता को रेखांकित किया जा सकता है,
“मैं मरा नहीं हूँ मैं मिटा नहीं हूँ क्योंकि मैं रक्तबीज हूँ मैं जिंदा हूँ लोकगीतों में लोकोक्तियों में, लोकगाथाओं में मुझे पूर्ण विश्वास है एक दिन मेरी भावी पीढ़ी लोकोक्तियों के मर्म को समझेगी लोकगाथाओं का पुनर्पाठ करेगी” |
इसी कविता में वे आगे कहते हैं कि
“हिरणों के इतिहास में शिकारियों की शौर्य गाथाओं के खिलाफ दासराज्ञ का नया अध्याय रचूँगा” |
बहुजन वैचारिकी को विस्तार देते हुए कुमार बिंदु अपनी कुछ दूसरी कविताओं में भी इस तरह की बात कहते हैं। वह रावण और महिषासुर-जैसे व्यक्तित्वों में बहुजन समाज के पक्षों की तलाश करते हैं। बहुजन वैचारिकी के इस नये दौर में यह समझ बनी है कि पौराणिक गाथाओं में बहुजन समाज के प्रति खलनायकत्व आरोपित किया गया है। न्यायप्रिय समाज को सोचना-विचारना चाहिए और आरोपित खलनायकत्व से इन नायकों को मुक्त किया जाना चाहिए। कुमार बिन्दु ‘ओ पितरो’ शीर्षक कविता में अपने प्रतिरोध को सांस्कृतिक समझ को असहमतिमूलक शब्दावली में रखते हैं। वे आश्विन माह के पितृपक्ष का पक्ष लेते हुए कहते हैं कि
“हमें नहीं चाहिए ऐसा शुक्ल पक्ष हमें नहीं चाहिए ऐसी सभ्यता-संस्कृति जो रक्त से लथपथ कर दे धरती हम श्वेत नहीं श्याम पक्ष के हैं पक्षधर हमें वह पखवारा है पसंद जिसमें तुम आते हो धरा पर हमको देने शुभाशीष हमें पसंद है श्याम पक्ष जिसमें जन्म लेते हैं मनमोहन प्रेम के देवता श्रीकृष्ण जो मन के मधुबन में जो तन के वृंदावन में बजाते हैं प्रेम की वंशी रचाते हैं रासलीला” |
कवि को इस बात का एहसास है कि बहुजन समाज की लड़ाई बहुत दिनों से चल रही है। यह लड़ाई जीती भी गयी है और इस लड़ाई में लगातार हार भी मिली है। अब यह लड़ाई एक ऐसी लड़ाई बन गयी है जिसे निरंतर लड़ते रहने की जरूरत है। यह सोचे बगैर कि इस लड़ाई का अंत कब होगा? इस लड़ाई में अंतिम तौर पर पर कब न्याय मिलेगा? कुमार बिंदु अपनी एक कविता ‘अभी मैं हारा नहीं’ में लिखते हैं,
“सामाजिक न्याय के इस महाभारत में वीर अभिमन्यु का वध करके तुम यह जंग जीते नहीं हो और मैं भी युद्ध हारा नहीं हूँ अभी समर शेष है दुर्योधन अभी समर शेष है दुःशासन” |
कवि को अपने गाँव और परिवेश की बहुत चिंता है। वह जानता है कि उसका परिदृश्य जिन लोगों के कारण बना हुआ है; उनके बारे में ठीक से बात किए बगैर, उनको ठीक से समझे बगैर, बहुसंख्यक बहुजन समाज की तरफ से ठीक से नहीं बोला जा सकता है। एक कवि को चाहिए कि वह अपनी पृष्ठभूमि के सच को कविता का विषय बनाए। सार्वभौमिक और शाश्वत विषयों की जगह अपने जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक अनुभवों को कविता का विषय बनाना बहुत जरूरी है। इसलिए वह ‘भूगोल की किताब’ शीर्षक कविता में कहता है कि यह किताब मेरे गाँव के भूगोल को नहीं बताती है, इसलिए जरूरी है कि ऐसी किताब लिखी जाए जिसमें मेरे गाँव के बारे में ठीक से बताया जाए। मेरे गाँव का और जिन लोगों से मेरा गाँव बना है, उन सबका जिक्र भूगोल की उस किताब में मौजूद हो। इसी तरह कवि ने एक कविता लिखी है, ‘पोटली’। इस कविता में पीढ़ियों के अंतर और गाँव से शहर पहुँची हुई पीढ़ी के द्वारा पुरानी पीढ़ी की अवहेलना की मार्मिक चर्चा कवि ने की है। एक और कविता है ‘मेरे गांव की औरतें’। इसके शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इस कविता में इस बात की तरफदारी है कि मेरे गाँव की औरतों को जाने बगैर समाज को कैसे ठीक से जाना जा सकता है? कुछ ऐसी कविताएँ भी कुमार बिन्दु लिखते हैं जिनमें वे गाँव के पात्र-विशेष को आधार बनाकर यह प्रकट करते हैं कि समाज का कमजोर वर्ग आगे बढ़े, सुखी हो, समृद्ध हो। उनकी प्रसिद्ध कविता है ‘ओ रघुनिया पासी’। इसकी कुछ पंक्तियों को देखा जाना चाहिए। वे संबोधित कर रहे हैं कि रघुनिया पासी तुम कुछ ऐसा करो कि तुम्हारे बाल बच्चे एक अच्छी जिंदगी जी सकें,
“ओ रघुनिया पासी! तुम ताड़ पर चढ़ सकते हो तुम ताड़ का फल तोड़ सकते हो ताड़ के रस ‘ताड़ी’ को धरा पर ला सकते हो जब तुम धरती-आकाश एक कर सकते हो तब अपनी पत्नी के लिए अपने बाल बच्चों के लिए अपने घर-परिवार के लिए चाँद से रोशनी क्यों नहीं छीन सकते हो?” |
कुमार बिन्दु की कविताओं के एक और पक्ष को रेखांकित करने के लिए उनकी चार कविताओं को यहाँ ध्यान में रखा जा रहा है। ये कविताएँ हैं, ‘तथागत से सवाल’, ‘हे ईश्वर’, ‘मैं शहर नहीं जाऊँगा’ और ‘सुनो कबीर’। इन चारों कविताओं में कवि का स्वर परंपरागत समझ से थोड़ा भिन्न है। ध्यान दिया जाना चाहिए कि बुद्ध, कबीर और लोक गायक बालेश्वर यादव की समझ को कवि ने प्रश्नांकित किया है। इसी तरह से उन्होंने ईश्वर को भी कुछ सवालों के बीच में घेरा है। ईश्वर से प्रश्न करना कोई नयी बात नहीं है, लेकिन कबीर के ईश्वर पर सवाल खड़ा करना, बुद्ध से उनके संघ-संबंधी प्रश्न पूछना और बालेश्वर से उनके गीत से संबंधित प्रश्न पूछने में कुछ नयापन है। वह बुद्ध से सवाल करते हैं कि
“तुम्हारे संघ में शोषित-पीड़ित दासों का प्रवेश वर्जित और प्रतिबंधित क्यों है? शहर के सेठ-साहूकारों को भारत के राजे-रजवाड़े को तुम्हारा धम्म अत्यधिक पसंद क्यों है?” |
इसी तरह वे कबीर से सवाल करते हैं कि तुम्हें माया महा ठगिनी लगती है। मगर मैं तो चाहता हूँ कि मैं किसी के प्रेम में इस जीवन को बिता दूँ,
“सुनो कबीर! मैं किसी के लिए जीना चाहता हूँ मैं किसी के लिए मरना चाहता हूँ मैं प्रेम-पथ पर चलना चाहता हूँ” |
इसी तरह वे लोकगायक बालेश्वर को संबोधित करके पूछते हैं कि तुमने पटना शहर को ही दोष क्यों दिया है? ऐसा दोष तो दिल्ली, मुंबई, जयपुर, कोलकाता आदि सभी शहरों में है,
“ओ मेरे लोक कवि! लिखो कि हर शहर में सोने की चिरैया होती है लिखो की हर शहर में सोनागाछी होती है लिखो कि हर शहर विक्रेताओं और खरीदारों का एक अड्डा है” |
इस तरह से कवि ने बहुजन समाज की परंपरागत समझ पर भी कुछ सवाल उठाए हैं! कुमार बिंदु तर्क के साथ बहुजन जीवन और उससे जुड़े प्रश्नों से उलझते हैं। वे ऐसा नहीं करते हैं कि बहुजन समाज के हर पक्ष को सही मानकर चलते हों। उनके यहाँ यह भी नहीं है कि वे बहुजन समाज की प्रत्येक परंपरा को अप्रगतिशील कहकर ठुकरा देना चाहते हों। वे उन परंपराओं से प्रेम करते हैं जिनकी जड़ें गाँव-घर-परिवार के भीतर तक समायी होती हैं। हो सकता है कि प्रचलित अर्थ में ये परंपराएँ प्रगतिशील और आधुनिक समझ के विपरीत हों। मगर, इनकी उपस्थित जीवन के गहरे अर्थ से जुड़ी हो! वे ‘रिश्ता-नाता’ नाम की कविता में लिखते हैं,
“मेरे मन में तीव्र अज्ञात आकर्षण है मेरे घर की एक कोठरी में रखे पूज्यमान पुरखे मनुसदेवा की लाठी जैसे गाँव-घर की देवी के मंदिर में बने प्रस्तर पिंड जैसे आँगन में लगाए गए तुलसी के गाछ जैसे गंगोत्री से लाए गए गंगा-जल के प्रति मेरे मन में गहरा लगाव है” |
यहाँ लग सकता है कि कवि बहुत पुरानी चीजों के प्रति अपना आकर्षण व्यक्त कर रहा है, मगर जो लोग गाँव की जिंदगी के बारे में जानते हैं उन्हें महसूस होगा कि कवि की पक्षधरता रूढ़ियों के प्रति नहीं है बल्कि वहाँ के जीवन की सहजता के प्रति है।
कुमार बिंदु की कविताओं में जगह-जगह राजनीतिक चिंताएँ भी प्रकट हुई हैं। उनकी कविताओं में अंतर्धारा की तरह समाजवादी समझ, धर्मनिरपेक्ष समझ और एक ऐसे समाज की समझ काम करती रही है जहाँ जन्म-आधारित भेदभाव से मुक्त होकर प्रेमपूर्ण जीवन जीने की संभावना बनी हुई हो! इस संग्रह की अंतिम कविता है ‘यह कौन-सा साल है’। इस कविता में उन्होंने इधर के वर्षों में बढ़ी हुई तल्ख़ियों का जिक्र किया है। उन्हें चिंता है कि हमारा देश इक्कीसवीं सदी में शायद नहीं जी रहा है। आज जिस तरह से हिंदू-मुस्लिम का भेद बढ़ा है उससे यही लग रहा है कि धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई हम हार चुके हैं और शायद 1947 के समाज में हम पहुँच चुके हैं। कवि अपने शब्दों में थोड़ी-सी झाँकी यहाँ रख रहा है। वह इशारे कर रहा है। जो लोग आज की खबरों से, आज की घटनाओं से वाकिफ हैं वे इन इशारों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं,
“यह भी शुक्र है कि मेरा घर मुस्लिम बहुत इलाके में नहीं है और सबसे अच्छी बात यह है कि मुझे हनुमान चालीसा पूर्णता कंठस्थ है” |
कुल मिलाकर यह किताब इस प्रतिज्ञा के साथ सृजित हुई है कि ‘साझे का संसार’ मनुष्य का स्वाभाविक संसार है। साझेदारी परस्पर के सम्मान से उत्पन्न होती है। इसकी बुनियाद नफरत में नहीं है, बल्कि एक-दूसरे को समझने में है।
बहुजन समझ से जुड़ी हुई कविताएँ अपने कथ्य के कारण सामाजिक रूप से आकर्षित करती हैं। ऐसी कविताएँ विशेष रूप से ऐसे लोगों को पसंद आती हैं जो न्यायपूर्ण सामाजिक सरोकारों को अपनी चिंता के केंद्र में रखना चाहते हैं। ये कविताएँ अपनी अंतर्धारा में जाति के प्रश्नों के प्रति सचेत रहती हैं इसलिए इनकी सामाजिक समझ में परम्परागत समझ से कुछ भिन्नता ज़रूर मिलती है।
इनमें काव्य-रूप के प्रति अलग से कोई सजगता प्रायः दिखायी नहीं पड़ती है। कुमार बिन्दु की कविताओं में भी शिल्पगत वैशिष्ट्य को अलग से रेखांकित करने योग्य कोई बात दिखायी नहीं पड़ती हैं। इन कविताओं का ज़ोर कथ्य पर है। भविष्य के लिए यह ज़रूरी है कि अपने कथ्य को शिल्प के नए-नए रूपों में प्रयोग करके देखा जाए। ऐसा करने से कविता की चमक बढ़ सकती है। कविता की आयु पर भी इसका प्रभाव पड़ सकता है।
समीक्षित पुस्तक – साझे का संसार (काव्य संग्रह) कवि– कुमार बिन्दु प्रकाशक-अभिधा प्रकाशन, मुज़फ्फरपुर पृष्ठ – 128, मूल्य – 250/-
समीक्षा– कमलेश वर्मा A-20, सन्धिनी, त्रिदेव कॉलोनी, चाँदपुर, वाराणसी – 221106 मो .- 09415256226 ईमेल : [email protected]
(संपादन : निशांत राज )