दुनिया के सभी समाज में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करने और इसके खतरे के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इसमें प्रकृति के प्रति चिंता और उसके संरक्षण की भावना है। वास्तव में आदमी पहले तो ज्ञान के अभाव में प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन करता रहा। अब यह समझ में आ गया अनियंत्रित दोहन तो अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी चलाने जैसा है। इसी बात को बताने-समझाने के लिए विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। आज से 52 साल पहले 1972 में संयुक्त राष्ट्र (संघ) के सदस्य देशों ने पर्यावरण प्रदूषण की समस्या को समझा। विश्व के स्तर पर इसके प्रति चिंता के प्रसार के लिए साल का एक दिन पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस घोषित किया गया। इसकी शुरुआत स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम से हुई। इसके 15 साल बाद भारत में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 19 नवंबर 1986 से लागू हुआ। पर्यावरण दिवस के लिए संयुक्त राष्ट्र हर साल एक थीम चुनता है। वर्ष 2024 के विश्व पर्यावरण दिवस की थीम है लैन्ड रेस्टरेशन, डिसर्टिफिकेशन ऐन्ड ड्राउट रिजिलीअन्स (भूमि बहाली, मरुस्थलीकरण और सूखा सहनशीलता)। इस थीम को सऊदी अरब ने चुना है, जो विश्व पर्यावरण दिवस (2024) के लिए मेजबान देश है।
पर्यावरण का संबंध पानी, हवा, जमीन (मिट्टी) से है। इन तीनों से मानव, पेड़-पौधे, जीव-जंतु, नंगी आंखों से नहीं दिखने वाले सूक्ष्म जीवों का अन्योन्याश्रय संबंध है और ये सभी आपस में मिलकर पर्यावरण का, प्रकृति का निर्माण करते हैं। पर्यावरण कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है। इसमें असंतुलन ही पर्यावरण प्रदूषण है। इसीलिए हवा, पानी और मृदा के प्रदूषण प्रमुख माने जाते हैं। प्रदूषण की सूची में दुनिया में वायु प्रदूषण पहले स्थान पर है, शीर्ष पर है। पहले पानी, मिट्टी, जंगल को लेकर चिंता थी। अब वायु प्रदूषण को लेकर बड़ी चिंता है। वायु प्रदूषण वैश्विक संकट बन चुका है।
पर्यावरण संरक्षण का इतिहास बहुत पुराना :
भारत में पर्यावरण संरक्षण का इतिहास बहुत पुराना है। हडप्पा संस्कृति पर्यावरण से ओत-प्रोत थी, तो वैदिक संस्कृति पर्यावरण-संरक्षण हेतु पर्याय बनी रही। भारतीय मनीषियों ने समूची प्रकृति ही क्या, सभी प्राकृतिक शक्तियों को देवता स्वरूप माना। ऊर्जा के स्त्रोत सूर्य को देवता माना तथा उसको ‘सूर्य देवो भव’ कहकर पुकारा। भारतीय संस्कृति में जल को भी देवता माना गया है। सरिताओं को जीवन दायिनी कहा गया है, इसीलिए प्राचीन संस्कृतियां सरिताओं के किनारे उपजीं और पनपी। भारतीय संस्कृति में केला, पीपल, तुलसी, बरगद, आम आदि पेड पौधों की पूजा की जाती रही है। मध्यकालीन एवं मुगलकालीन भारत में भी पर्यावरण प्रेम बना रहा। अंग्रेजों ने भारत में अपने आर्थिक लाभ के कारण पर्यावरण को नष्ट करने का कार्य प्रारंभ किया। विनाशकारी दोहन नीति के कारण पारिस्थितिकीय असंतुलन भारतीय पर्यावरण में ब्रिटिश काल में ही दिखने लगा था। स्वतंत्र भारत के लोगों में पश्चिमी प्रभाव, औद्योगीकरण तथा जनसंख्या विस्फोट के परिणामस्वरूप तृष्णा जाग गई जिसने देश में विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को जन्म दिया।
वेदों में कहा गया है कि मनुष्य शरीर पृथ्वी, जल, अंतरिक्ष, अग्नि और वायु जैसे पांच तत्वों से निर्मित है। यदि इनमें से एक भी तत्व दूषित होता है तो इसका प्रभाव मानव जीवन पर अवश्य पड़ेगा। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही हमारे पूर्वजों ने प्रकृति को देवी-देवताओं का स्थान दिया है। सूर्य, चंद्रमा, अग्नि, वायु व नदियों को देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाता था। जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों को औषधि के रूप में प्रयुक्त किया जाता था। पेड़ों जैसे पीपल, वटवृक्ष व केला को आज भी पूजा जाता है। पेड़ों को लगाना पुत्र प्राप्ति के समान माना गया है परंतु समय परिवर्तन के साथ-साथ सब कुछ परिवर्तित होता गया। हम सब आधुनिकता के पथ पर अग्रसर हो गए। हम विकास और तकनीक पर गर्व करने लगे। औद्योगीकरण एवं असंख्य वाहनों के आवागमन के फलस्वरूप वायुमंडल पूर्ण रुप से दूषित हो चुका है। फसलों की पैदावार में वृद्धि करने के लिए उर्वरक एवं कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग किया जाने लगा। परिणामस्वरूप मृदा के साथ-साथ उसमें उत्पन्न होने वाले खाद्यान्न भी विषैले होने लगे हैं। उद्योगों से उत्पन्न अनावश्यक विषैले पदार्थों से नदियां भी प्रदूषित हो चुकी हैं। भूजल स्तर निम्न हो चुका है। कुल मिलाकर आज के समय में हम अन्न, जल व वायु को प्रदूषित कर चुके हैं। ऐसे में यह बेहद जरूरी हो जाता है कि हम वेद में अर्जित ज्ञान का निरीक्षण कर यह जानने की कोशिश करें कि मौजूदा पर्यावरणीय संकट का समय के अनुसार समाधान हमारे शास्त्रीय परम्परा से निकलने की कोई संभावना है क्या?
सबसे बड़े पर्यावरणीय खतरों में से एक :
मरुस्थलीकरण सबसे बड़े पर्यावरणीय खतरों में से एक। कम वर्षा, वनों की कटाई और खराब सिंचाई प्रथाओं सहित कृषि के विस्तार के कारण भूमि के सूखने को संदर्भित करता है। जलवायु परिवर्तन मरुस्थलीकरण को बढ़ा रहा है।अभी, लगभग 2 बिलियन लोग मरुस्थलीकरण के प्रति संवेदनशील शुष्क भूमि पर रहते हैं, जो 2030 तक अनुमानित 50 मिलियन लोगों को विस्थापित कर सकता है। यदि लोग भोजन नहीं उगा सकते हैं, तो उन्हें ऐसे क्षेत्र में जाना होगा जहाँ वे ऐसा कर सकें, जिससे मरुस्थलीकरण का खतरा बढ़ जाएगा, और भूदृश्यों, वन्यजीवों और मानव स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
प्रदूषण से 90 प्रतिशत से अधिक आबादी प्रभावित :
विकास की अंधाधुंध दौड़ में आदमी ने ही पर्यावरण का सबसे ज्यादा नुकसान किया है। अनियंत्रिक विकास की छलांग के परिणाम और नुकसान अब साफ-साफ दिखाई देने लगे हैं। वायु प्रदूषण की समस्या दिनोंदिन विकराल होती जा रही हैं। ग्लोबल एयर रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी प्रदूषण से प्रभावित हैं। इससे सबसे अधिक प्रभावित देशों में भारत भी शामिल है। हवा में अवांछित गैसों, धूल कणों मौजूदगी बढ़ गई है, जो आदमी तथा प्राकृति दोनों के लिए खतरे का कारण है। कार्बन मोनोआक्साइड, सल्फरडाइआक्साइड, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन और नाइट्रोजनआक्साइड जैसी गैसों की मात्रा में बढ़ोतरी से प्रदूषण में वृद्धि हुई है। सड़कों पर गाडियों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिनसे निकलने वाला धुआं कार्बनडाइआक्साइड और अन्य अवांछित गैसों की मात्रा वायुमंडल में बढ़ा रहा है। तेजी से शुद्ध हवा (आक्सीजन) खत्म हो रही है। इस कारण बिजिंग और अन्य शहरों में हवा यानी आक्सीजन अब डिब्बों में बिकने लगा है।
औद्योगिक इकाइयां, कचरा, कोयला, प्लास्टिक, परमाणु संयंत्र प्रदूषण को बढ़ाते हैं। इससे फेफड़े के कैंसर, त्वचा रोग, सांस की बीमारी हृदय रोग में वृद्धि हुई है। कटते जंगल और बढ़ता शहरीकरण, औद्योगिकरण की होड़ प्रदूषण की बड़ी वजह हैं। इससे मिट्टी, हवा और पानी लगातार खराब हो रहे हंै। जल संकट ने तो विकराल रूप धारण कर लिया है। यह गर्मी के साथ सर्दी के दिनों में भी दिखने लगा है। साफ पानी के अभाव के कारण ही बाजार में बोतलबंद पानी बिकता है। प्रदूषण का असर पशु-पक्षियों पर भी है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां लुप्त हो चुकी है और हजारों प्रजातियां लुप्त होने की कगार पर हैं। अभी भी वक्त हैं, हम सब संभल जाएं। अपनी जीवनशैली को नियंत्रित करें, ग्राम्य शैली अर्थात प्रकृति मित्र शैली अपनाएं। तभी जीवन अधिक से अधिक समय तक सुरक्षित बना रह सकता है।
अच्छी बात हैं कि बदलते समय के साथ लोग धीरे धीरे पर्यावरणके महत्व को समझाने लगे हैं और जागरूक हो रहे हैं। धरती पर हरियाली का बढ़ावा देने के लिए पौधारोपणअभियान चलाया जा रहा हैं, मगर प्रशन अभी भी खड़ा है तेजी से कट रहे जंगल और शहरों में पुराने पेड़ों की भरपाई क्या नये रोप हुए पेड़ कर पायेगें।
प्रस्तुति – रवि प्रकाश, सत्या कुमारी