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पानी रे पानी : पहाड़ पर हाहाकार, दर्जनों गांव बने बेचिरागी

डेहरी-आन-सोन (बिहार)-कृष्ण किसलय। रोहतास जिले के दक्षिणवर्ती पहाड़ी गांवों में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। प्रचंड गर्मी मेंं पानी के भीषण संकट से जूझ रही पहाड़ी वनवासी-आदिवासी आबादी का पलायन-विस्थापन चरम पर है। इन दिनों पानी की तलाश में गांव के गांव बे-चिरागी बनते जा रहे हैं, क्योंकि लोगों ने घर-बार छोड़ दिए हैं और घर-बार छोड़कर पानी की तलाश में पहाड से नीचे उतर चुके लोगों के घरों में चिराग जलाने वाला, संझवत दिखाने वाला कोई नहीं बचा है।


मवेशियों के साथ पलायन
जिले के नौहट्टा, रोहतास, चेनारी, तिलौथू प्रखंडों के दर्जनों पर्वतीय गांव भीषण पेयजल संकट की चपेट में हैं। पहाड़ी गांवों के लोग घरों में ताला बंद कर अपने जानवरों के साथ मैदानी गांवों में रिश्तदारों के घर या किसी अस्थाई मुकाम पर शरण ले रहे हैं। अधिसंख्य परिवारों ने तो सोन नदी के किनारे बालू-टीलों पर ही अपना अस्थायी ठिकाना बना लिया है। नागाटोली, हुरमेटा, कुबा, सलमा, लौड़ी, जोन्हा, धनसा आदि पांच दर्जन गांवों के लोगों को अपने जानवरों (गाय, बैल, भैंस, बकरी) के साथ पलायन कर जाने के कारण अपने घरों को लाचारी में कुछ महीनों के लिए बेचिरागी बनाना और नौहट्टा से बांदू, दारानगर, अकबरपुर, समहुता, करूप, तूंबा, बकनौरा, जमुआ, चकन्हा, पटनवा तक निकट सोन किनारे 50 किलोमीटर की दूरी में अस्थाई बसेरा बनाना पड़ा है।

पानी के लिए लगाना पड़ता है तीन किलोमीटर तक चक्कर
मई-जून के तपते महीनों में पहाड़ के गावों में पीने का पानी आसानी से मयस्सर नहींहोता। इस प्रचंड गर्मी में पहाड़ पर रह रहे लोगों को खासकर महिलाओं को छोटे पहाड़ी झरनों और चुआं (पत्थरों के बीच दरारों) से पानी का प्रबंध करने के लिए हर रोज मीलों चक्कर लगाना पड़ता है। पहाड़ी गांवों में गर्मी के मौसम में यह जरूरी नहींहै कि कल जिस स्थान से पानी का प्रबंध हुआ था, उस स्थान पर दूसरे दिन भी पानी मौजूद बना रहेगा। रानाडीह, नकटी भवनवा, बलुआही, सोली, बंडा, चाकडीह, धंसा, बभनतालाबा आदि गांवों मेंं महिलाओं और ग्रामीणों को एक से तीन किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ रहा है।

 

मवेशियों की मौत शुरू
पहाड़ी गांवों का भू-जलस्तर हर साल दो-चार फुट नीचे जा रहा है। गर्मी से पहाडी गांवों में सैकड़ों की संख्या में मवेशी हर साल मरते हैं। इस साल भी मवेशियों की मौत की शरुआत हो चुकी है। वर्ष 2009 में हजारों मवेशियों की मौत हुई थी। प्रचंढ गर्मी के मद्देनजर वही स्थिति इस बार भी होने की आशंका है। तालाब-पोखर सूखने के कगार पर पहुंच चुके हैं, जहां मवेशी पानी पीते हैं। लोकस्वास्थ्य ग्रामीण अभियंत्र विभाग की ओर से लगाए गए चापाकल जवाब दे चुके हैं। डीप बोरिंग वाले चापाकल काम तो कर रहे हैं, मगर वे कब जवाब दे जाएं, इस भय से पर्वतीय ग्रामीण आशंकित हैं।

पानी ढोते-ढोते महिलाएं बन जाती हैं गंजा
पहाड़ी गांवों की आदिवासी-वनवासी महिलाएं तो खाना बनाने के लिए अपने माथे पर हर रोज कोसों दूर चुओं (पत्थरों के बीच रिसते जलस्रोत) से पानी ढोकर लाने की सदियों की अभिशप्त जिंदगी से मुक्त नहींहो सकी हैं। अनेक गांवों की उम्रदराज महिलाएं आजीवन सिर पर पानी ढोते-ढोते गंजा (जिनके सिर के बाल झड़ चुके) हो चुकी हैं। पहाड़ी गांवों के अधिकांश सरकारी कल सूख गए हैं। पानी के लिए प्राकृतिकचुआं ही विकल्प बचा हु्आ है। गांव से दो-तीन किलोमीटर दूर चुओं से पानी ढोकर दैनिक जीवन की जरूरत की पूर्ति किसी तरह की जा रही है। चुआं से मई-जून में पानी मिलना मृगमरीचिका की तरह होता है। प्यासे जंगली जानवर भी पानी के लिए चुआं पर आ जाते हैं, जिससे लोगों को जान का डर बना रहता है और तालाबों-पोखरों के गंदे पानी से काम चलाने के कारण बीमारी का शिकार होना पड़ता है।
बिजली बिना पहुंचे जलापूर्ति संभव नहीं
मुख्यमंत्री सात निश्चय योजना के तहत हर गांव तक पेयजल पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। जब तक पहाड़ के लोगों को बिजली उपलब्ध नहीं होगी, तब तक सात निश्चय योजना धरातल पर नहीं आ सकती। सोलर प्लेट से एक एचपी की ही मोटर चलाई जा सकती है, जिससे पूरे गांव को जलापूर्ति संभव नहींहै। तीन एचपी की मोटर चलाने के लिए बिजली चाहिए। हालांकि बिहार के दक्षिणी सीमान्त जिले रोहतास और उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश की सीमा से जुड़े बिंध्य पर्वतश्रृंखला की कड़ी कैमूर के गांव रेहल के उदाहरण ने पहाड़ी गांवों में नई उम्मीद जगा दी है। कैमूर पठार पर रोहतास जिले में 83 गांव हैं, जिनमें मुख्यमंत्री के सात निश्चय योजना के तहत हर घर नल का जल योजना का लाभ मिलने के आसार हैं। रेहल गांव में नल जलापूर्ति और 132 घरों के लिए सौर उर्जा ऊर्जा (बिजली) उत्पादन-वितरण का कार्य जारी है।

रेहल ने जगाई उम्मीद
रोहतास जिले के नौहटा प्रखंड के 30 हजार आबादी के आदिवासी समुदाय बहुल गांव रेहल में दो दशकों तक दस्युओं-नक्सलियों का साम्राज्य था,जिसे नक्सलियों का लाल गलियारा कहा जाने लगा था। वन प्रमंडल अधिकारी संजय सिंह की नक्सिलयों द्वारा की गई हत्या (15 फरवरी 2002) पर सुप्रीमकोर्ट ने राज-व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया। तब सरकार को रेहल पर ध्यान देना पड़ा। अन्यथा वोट की गिनती वाले लोकतंत्र में चंद हजार आबादी सात दशकों से महत्वहीन बनी हुई थी। बिहार के मुख्यमंत्री डा. श्रीकृष्ण सिंह के 1955 में कैमूर पर पहुंचे थे। इसके 63 साल बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 6 अप्रैल को रेहल में चौपाल लगाई। मुख्यमंत्री के पहाड़ पर पहुंचने से सदियों से वक्त के थपेड़ों में उपेक्षित पर्वतीय गांवों में आशा जगी है।

      (इनपुट, तस्वीर : निशांत राज)

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