प्रतिबिंब : सोनमाटी के 40 साल
बहुचर्चित कामेश्वर कोइरी प्रकरण, राजनीति-अपराध गठजोड़ की पहली कड़ी
-कृष्ण किसलय (संपादक, सोनमाटी)
जब थानादार से बड़ा रंगदार हो गया !
सोन अंचल में नक्सलवाद के उभार से पहले ‘क्राइम-पालिटिक्स-पुलिसÓ का त्रिकोण स्थापित नहींहुआ था। बेशक राजनीति-अपराध की दुरभिसंधि हो चुकी थी, मगर आज की तरह एकदम स्पष्ट नहींथी। भले ही राजनेताओं का दबाव होता, मगर अपराधी को बचाने की अतिरिक्त युक्ति पुलिस नहीं करती और बाध्य भी नहींहोती थी, क्योंकि तब पैसे का प्रवाह आज जैसा नहींथा। चंबल के बीहड़ों की तरह कैमूर पठार पर डाकू-राजा मोहन बिंद की रक्तबीज-संतति बड़कादादा (रामाशीष कोइरी) का दौर खत्म हुआ तो छोटकादादा (कामेश्वर कोइरी) ने आतंक का नया चौसर-चक्रव्यूह पहाड़ी की तलहटी के बंजारी, तिलौथू, ताराचंडी, शिवसागर, कुदरा, भभुआ से जिला मुख्यालय सासाराम तक खड़ा कर लिया, जिसके संरक्षक कई राजनीतिज्ञ थे। कामेश्वर कोइरी कांड को पूरी जीवटता से उजागर करने का साहसपूर्ण कार्य सोनमाटी-संपादक कृष्ण किसलय ने किया था, जो आंचलिक खोजी पत्रकारिता का एक माइलस्टोन है। नौवें दशक के दौर में डाकू उन्नमूलन अभियान के सफल माने गए पुलिस अधीक्षक सुदर्शन प्रसाद सिंह,आईपीएस को 20 साल सेवा करने के बावजूद राजनीति और सरकार के रवैये से खिन्न होकर नौकरी से सेवानिवृति का प्रस्ताव भेजना पड़ा, जिसे उन्होंने पुलिकर्मियों को 2.65 लाख रुपये के पुरस्कार बांटे जाने के फैसले के बाद वापस ले लिया। तब डकैती और डाकू गिरोह बड़ी आपराधिक समस्या थे। डकैत गिरोहों के खत्म होने के बाद फिरौती के लिए अपहरण करने वाले गिरोह खड़े हो गए। शाहाबाद प्रक्षेत्र के डीआईजी टीपी सिन्हा ने सोनमाटी को बताया था कि ताराचंडी, सासाराम के पांच ठेकेदारों का सामूहिक अपहरण शाहाबाद के चारों जिलों में अपहरण के संगठित अपराध का पहला बड़ा कांड है। उस कांड में पुलिस मुठभेड़ में मारे गए बड़का दादा केबिखरे गिरोह को खड़ा करने वाला लंगड़ा दादा राधाकिशुन कोइरी का हाथ था। तब 1994 में बिहार के आईजी विजयपाल जैन ने सोनमाटी-संपादक से कहा था, ‘थानादार से बड़ा रंगदार हो गया हैÓ। –प्रबंध संपादक
संपादकीय (28 अप्रैल 1993) : क्रूर-अपराध के एक अध्याय का अंत
कुख्यात कामेश्वर कोइरी की मौत से रोहतास जिला के क्रूर अपराध के एक अध्याय का अंत हो गया। अपराध से राजनीति में प्रवेश की प्रबल इच्छाधारी और कतिपय राजनीतिज्ञों पर अपना दबदबा बनाए रखने वाले इस दुर्दांत अपराधकर्मी की हत्या इस बुरी तरह हुई कि उसके परिजन उसकी सबूत लाश तक नहींपा सके। वस्तुत: कामेश्वर कोइरी की यह अपराध-दुर्गति उसके नृशंस और घृणित दुष्कर्मों का फल है। हालांकि कामेश्वर कोइरी इतना शातिर था कि दर्जनों गंभीर धाराओं का आरोप-सिद्ध अभियुक्त, सेना और पुलिस अभिरक्षा का भगोड़ा होने के बावजूद उसने देश के सबसे बड़े दैनिक नवभारत टाइम्स के पटना संपादक, प्रकाशक, उसके डेहरी-आन-सोन स्थित जिला संवाददाता और सोनमाटी के संंपादक पर न्यायालय में मानहानि का मामला दाखिल करने का दुस्साहस किया। ताकि पत्रकार बिरादरी पर भरसक दबाव बना सके। दूसरी तरफ उसने अपने गोपन अपराध जीवन का भंडा फोडऩे वाली खोजी खबर के प्रकाशन के भय से कतिपय भ्रमित और अतिरिक्त आशंकित संवाददाताओं को इंटरव्यू देकर अपनी नकली छवि गढऩे का नियोजित प्रयास भी किया।
सोनमाटी और नवभारत टाइम्स (7 अगस्त 1987) के प्रादेशिक पृष्ठ पर खोजी रिपोर्ट ‘कैमूर फिर सुलगने को तैयारÓ शीर्षक से प्रकाशित हुई। उस रिपोर्ट में यह बताया गया था कि पांच महीनों में रोहतास जिला के दुर्दान्त डाकुओं के मारे जाने से एक तरफ रोहतास जिला पुलिस के माथे पर सफलता का सेहरा बंधा तो दूसरी तरफ नए डाकू सरदारों के गिरोहों के पुनर्जीवित होने से पुलिस के समक्ष फिर चुनौती खड़ी हो गई। कैमूर पर्वत के कुख्यात इनामी रामाशीष कोइरी के मारे जाने के बाद गिरोह का सक्रिय सदस्य रहा कामेश्वर कोइरी (गांव करूप, थाना शिवसागर) गिरोह का कमांडर बन चुका है, जिसके गिरोह को भी खास जाति के विधायक-मुखियों का संरक्षण प्राप्त है।
कामेश्वर कोइरी तब एक अतिवादी वामपंथी दल का सदस्य बनना चाहता था और इसके लिए ेनेताओं के साथ सासाराम के एक-दो युवा संवाददाता भी प्रयास कर रहे थे। नवभारत टाइम्स में खबर छपने के बाद प्रतिक्रिया में अंग्रेजी प्रेस के एक हिस्से ने सच की सही पड़ताल किए बिना कामेश्वर कोइरी को बतौर पीडि़त पेश करने कार्य किया। छद्मवेषी कामेश्वर कोइरी के अपराध जीवन को बेनकाब करने वाली अगली खोजी खबर भी सोनमाटी और नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुई। तब उसका राजनीतिक दल में सीधे प्रवेश की संभावना समाप्त हो गई। बाद के सालों में पुलिस अनुसंधान में यह अच्छी तरह सिद्ध भी हुआ कि फौज का भगोड़ा कामेश्वर कोइरी अति खतरनाक किस्म का अपराधी था, जिसने जेल में ही रहकर अनेक अपहरणकाड़ और हत्याकांड को अंजाम दिया। इसीलिए उसे सासाराम से हटाकर कुछ दिनों के लिए बक्सर केेंद्रीय कारा में भी रखा गया। बहरहाल, पांच साल पहले कामेश्वर कोइरी को हीरो बनाने वाले पटना और जिला के प्रेस के उस हिस्से की यह जवाबदेही बाकी है कि वह अपनी चूक गई दृष्टि का परिमार्जन कर पत्रकारिता की जड़ को जमीन से जोड़े रखने की परंपरा का निर्वाह करे। -कृष्ण किसलय
जेल से ही अपहरण-फिरौती का खेल, बिछाई थी चुनाव लड़ने की बिसात
दुर्दांत कुख्यात अपराधी कामेश्वर कोइरी (शिवसागर थाना) से संबंधित खबर सोनमाटी और फिर देश के सबसे बड़े दैनिक नवभारत टाइम्स में 07अगस्त 1987 को छपी तो उसकी ओर से अधिवक्ता भुवन प्रसाद सिंह द्वारा नवभारत टाइम्स के पटना संपादक दीनानाथ मिश्र, प्रकाशक और डेहरी-आन-सोन स्थित जिला संवाददाता कृष्ण किसलय पर न्यायालय में भारतीय दंड विधानकी धारा 500, 501 और 34 के तहत कंपलेंट (सं. 443/87) दायर की गई, जिसमें तीन गवाह उमा सिंह, शंकर सिंह, शशिभूषण सिंह उर्फ शिवभूषण सिंह थे। गवाहों ने चर्चा की कि खबर से कामेश्वरकोइरी की प्रतिष्ठा गिरी है। प्रथम श्रेणी न्यायिक दंडाधिकारी नीलमणि ने 19 सितम्बर को शिकायत खारिज कर निर्णय दिया कि प्रथमद्रष्टया मुकदमा नहींबनता है। इसमें अधिवक्ता(परिवादी)कीहाजिरी बिलंब शुल्क के साथ होने की टिप्पणी भी दर्ज हुई। न्यायालय में शिकायत दर्ज और खारिज होने की जानकारी संपादक, संवाददाता को नहीं हुई। तब जानकारी हुई, जब अधिवक्ता भुवन प्रसाद सिंह ने जिला न्यायालय में नवम्बर में रिवीजन पिटीशन दिया और जिला जज ने 01जुलाई 1988 को व्यक्तिगत या अधिवक्ता के जरिये हाजिरी देने की नोटिस जारी की। नोटिस में दायीं ओर भुवन प्रसाद सिंह के संक्षिप्त हस्ताक्षर (बीपीएस) के साथ 20 फरवरी 1988 की तारीख दर्ज है। पुनर्निरीक्षण आवेदन में तीन तर्क दिए गए कि कामेश्वर सिंह ही कामेश्वर कोइरी है, खबर जाति विशेष के विरुद्ध है और खबर में उल्लेखित सुरेंद्र तिवारी, कुदरा ने झूठा मुकदमा कामेश्वर सिंह पर दर्ज कर रखा है।
नोटिस मिलने पर कृष्ण किसलय ने नवभारत टाइम्स के सासाराम संवाददाता राजेश कुमार (वरिष्ठ अधिवक्ता) से संपर्क किया तो कोर्ट रिकार्ड से यह जानकारी सामने आई। डेहरी-आन-सोन से खबर छपने के बाद कामेश्वरकोइरी के संरक्षक नेताओं ने पत्रकार के साथ पटना में संपादक दीनानाथ मिश्र से भेंटकर खबर का खंडन छापने का दबाव बनाया। दीनानाथ मिश्र खंडने के लिए राजी नहींहुए। इसकेबाद कामेश्वरीकोइरी ने पटना और सासाराम के चंद मीडिया प्रतिनिधियों के समक्ष पीडि़त होने का बयान दिया। सासाराम से 28 अगस्त 1988 को टाइम्सआफइंडिया में ‘आई मे बी मर्डरेडÓ शीर्षक से खबर छपी। खबर में बताया गया कि हिंदी प्रेस के एक हिस्से द्वारा ब्रांडेड डकैत बताने से पुलिस कामेश्वरकोइरीको मुठभेड़ में मार सकती है। जबकि कामेश्वरकोइरी उस वक्त जानीबाजार सासारामके भी डाकाकांड का अभियुक्त था। हालांकि कृष्ण किसलय ने यह खबर भी 20 सितंबर को छापी कि कामेश्वरकोइरी का कहना है कि उसका कैमूर के डाकू सरदार रामाशीष कोइरी से संबंध नहींहै और डाकू गिरोह का सदस्य बताने पर पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने की आशंका है। इस खबर के छापने के बावजूद रिवीजन पिटीशन दाखिल हुआ था। दरअसल उसके पिता रामायण सिंह पर थाना शिवसागर के प्रभारी मोहम्मद इसहाक ने दबाव बनाया था, क्योंकि पुलिस परेशान थी कि कामेश्वरकोइरी किसी गांव,किसी घर में घुस जाता और उसकी दहशत से आबरू की बात पुलिस में दर्ज नहींहोती थी।
11 नवम्बर 1987 को नवभारत टाइम्स में पूर्णिया संवाददाता ने जमीन विवाद में मारपीट की घटना की खबर छापी। उस खबर के अनुसार, केडी शर्मा घटना के अभियुक्त थे, जो सासाराम में जिला जज थे। जिला जज के संज्ञान ले लेने की वजह नवभारत टाइम्स में 11 नवम्बर की छपी खबर भी हो सकती है। कृष्ण किसलय ने मुकदमा की जानकारी संपादक दीनानाथमिश्र को रजिस्ट्री चिट्ठी से दी। दीनानाथमिश्र का स्थानांतरण दिल्ली हो चुका था। आलोक मेहता संपादक बनाए गए थे। नवभारत टाइम्स के पटना कार्यालय के निर्देश पर कृष्ण किसलय ने तथ्यों की जानकारी के साथ वकालतनामा रजिस्ट्री से पटना भेज दिया। इसके बाद कामेश्वरकोइरी के विरुद्ध अनेक अकाट्य साक्ष्य सामने आ गए। डेहरी-आन-सोन में जाति विशेष के मूंछ वाले काले रंग के रंगदार अभियुक्त के जरिये कामेश्वर कोइरी की ओर से कृष्ण किसलय के पिता बिन्देश्वरी प्रसाद सिन्हा को धमकाने का प्रयास किया गया था। मगर पिता ने धमकाए जाने की बात बेटा को नहींबताई और सिर्फ समय से घर में आ जाने की हिदायत दी।
14 नवम्बर 1987 को कामेश्वर कोइरी भभुआ में रंगदारी मांगने के आरोप में पकड़ा गया और जमानत पर रिहा हुआ। वह 11 अक्टूबर को सासाराम के धनीव्यापारी गोपाल शर्मा उर्फ लड्डुमहाराज हत्या (05 जुलाई 1988) कांड में गिरफ्तार हुआ। भगवानपुर थाना कांड का फरार और कुदरा के कांग्रेस नेता सुरेंद्र तिवारी पर 1983 में जानलेवा हमला कांड (सेशनट्रायल), चेनारी हत्या कांड(1986) का अभियुक्त था। 08 जुलाई 1988 के कोनार सामूहिक हत्याकांड में वह कैमूर के डाकू लंगड़ा दादा (राधाकिशुन कोइरी) के साथ था। टीआईपरेड में उसकी पहचान हुई। वह सासाराम जेल से ही हत्या, अपहरण कराने लगा। सासाराम के व्यापारी दिलीप सेठ अपहरण कांड (10 जनवरी 1990) में गिरफ्तार चार अभियुक्तों ने पुलिस को बताया कि उन्होंने छोटका दादा (कामेश्वर कोइरी) के आदेश पर अपहरण किया। तब शिवसागर के थाना प्रभारी अजीत कुमार झा ने उसे सासाराम से जिलाबदर कर दूसरे जेल में भेजने की अनुशंसा की। जब ताराचंडी के पांच ठेकेदारों का अपहरण हुआ, तब उसे बक्सर सेंट्रल जेल भेजा गया। जेल से कोर्ट में पेशी के लिए ले जाते समय वह पुलिस कस्टडी से भाग गया। भभुआ में चकबंदी पदाधिकारी को गोली मारकर भागते समय पकड़ाया और बक्सर केेंद्रीयकारा भेजा गया। राज्य में सत्ता बदल गई। कामेश्वर कोइरी को जमानत मिली। 1992 में वह एक बार फिर अवैध हथियारों के साथ गिरफ्तार हुआ, जेल गया। मगर फिर जमानत पाने में सफल रहा। फरवरी 1993 में जिला ड्रगिस्ट एसोसिएशन के उपाध्यक्ष शंभूपटेल अपहरण हत्याकांड में उसका नाम आया, मगर वह पुलिस के हाथ नहींआया। कुछ ही दिन पुलिस को जानकारी हुई कि उसका श्राद्ध-कर्म कर दिया गया है। पुलिस को लगा, यह चकमा देने का अफवाहहै? पुलिस उसके गांव गई। पता चला, जिस घर में वह घुसा, उस घर से शरीर की बोटी-बोटी बाहर आई।
सोनअंचल : कीकट-करूष की आदिम अपराध-भूमि
विष्णुधर्मोतर पुराण में एक श्लोक है,’चैद्य नैषधयो: विंध्यक्षेत्रश्च पश्चिमे रेवायमुनयोर्मध्ये युद्धदेश इतीर्यतेÓ। इससे जाहिर होता है कि सोनघाटी के इलाके (पूरब में कीकट,पश्चिम में करूष) में आदमी के अस्तित्व-वर्चस्व के संघर्ष में हिंसा-प्रतिहिंसा हजारों सालों तक होती रही। बौद्ध जातक में सोनघाटी क्षेत्र को सुरक्षित नहींमाना गया है। प्राचीन काल में सोन नद व्यापारिक जलमार्ग था और इसके किनारे व्यापारिक केेंद्र थे। सोन नद पार पलामू तक घोड़ों पर सवार ठग पिंडारी 17वींसदी तक व्यापारी-जत्थों को रौंदते-लूटते रहे। इलाके में शासकों के तेजी से बदलते रहने के कारण सैकड़ों सालों तक अराजक स्थिति रही। ठगों-पिंडारियों से मुकाबला के लिए गवर्र्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को बड़ी सेना गठित करनी पड़ी। पिंडारियों पर काबू पाने वाले ब्रिटिश सेना के जनरल विलियम हेनरी स्लीमैन (1833) इतिहास में ठगी स्लीमैन के रूप में ख्यात हैं। 1869 में गया जिला के मजिस्ट्रेट ग्रांट की अनुशंसा पर जपला और बेलउंजा परगनों को गया से काटकर पलामू में जोड़ा गया, ताकि रोहतास-पलामू की पुलिस को मिलकर काम करने में सुविधा हो। 19वींसदी के हंटर कमीशन (1877) की रिपोर्ट बताती है, सोनघाटी के इस इलाके में खास जातियों की जीविका अपराध-कर्म से चलती थी।
आजादी के बाद 1959 में बिहार में पटना स्थित एसपी (डकैती निरोधी) के अंतर्गत तीन डकैती निरोधी बल गठन किए गए थे, जिनमें एक का मुख्यालय डेहरी-आन-सोन में था। तब धनजी सिंह (नासरीगंज), मुखा नोनिया (दिनारा) का आतंक परचम पर था। पुलिस की भाषा में रोहतास जिला को आपराधिक जिला कहा जाता था। यही वजह थी कि प्रशासनिक जिला बनने (10 नवम्बर 1972) से 10 साल पहले ही 04 दिसम्बर 1962 को रोहतास को आरक्षी जिला बनाया गया, जिसके अंतर्गत एक अपर अधीक्षक, दो उपाधीक्षक, छह निरीक्षक, एक सार्जेंट मेजर, एक सार्जेंट, 44 अवर निरीक्षक, 38 सहायक अवर निरीक्षक, 18 हवलदार और 514 सिपाही थे।
बिंध्य-कैमूर क्षेत्र की एक मूलवासी जाति बिंदों के समुदाय का दस्युराज मोहनबिंद 20वींसदी के 8वें-9वें दशक में दंतकथा बन गया था। उसकी समानांतर सरकार रोहतास-कैमूर जिलों के 240 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत कैमूर पठार के 211 गांवों में चलती थी। पहाड़ी गांवों के बाशिंदे उसे राजाजी संबोधित करते थे। उसके आदमी राजस्व कर्मचारियों की तरह रसद आदि वसूलते थे। मोहनबिंद गिरोह पर काबू पाने के लिए दिसम्बर 1980 में लखनऊ में उच्चाधिकारियों की अंतरप्रांतीय बैठक में बिहार सेआईजी शचींद्रकुमार चटर्जी, डीआईजी (डाका) ललितविजय सिंह, एआईजी शिशिरकुमार झा और रोहतास एसपी किशोर कुणाल ने भाग लिया था। प्रतिबंधित नक्सली संगठन भाकपा-माले ने तो 1974 में ही भदवर गांव, ब्रह्म्ïापुर थाना, भोजपुर के प्रेमंचद उर्फ केशव को अपने पहले प्रतिनिधि कामरेड को औरतखोरी-नशाखोरी सुधार के लिए कैमूर पर भेजा था। केशव की हत्या मोहनबिंद गिरोह के रामाशीष कोइरी उर्फदादा ने की,जो मोहनबिंद की मौतके बाद सरदार बना। बाद में नक्सली संगठन भी अतिवादी वैचारिक राजनीति की राह छोड़ उगाही-वसूली के अपराध-पथ पर चल पड़े। -कृष्ण किसलय