नवभारत टाइम्स (पटना) से आउटलुक (दिल्ली) और नेशनल हेराल्ड तक, पत्रकारिता में राज्य से राष्ट्रीय क्षितिज तक नीलाभ मिश्र की सक्रियता के 32 साल संघर्ष और शानदार कामयाबी का भी सफर सफर रहा है। मगर भारतीय पत्रकारिता में सहज बौद्धिकता का यह ईमानदार चेहरा हमारे बीच से असमय चला गया ! नीलाभ मिश्र का चेन्नई स्थित अपोलो अस्पताल में 23 feb. की सुबह निधन हो गया और वह यह निष्ठुर दुनिया छोड़ गए। प्रस्तुत है नवभारत टाइम्स (पटना 1986) के समय से ही उनकी मित्र मंडली में रहे शीर्ष वरिष्ठ पत्रकारों मिथिलेश कुमार सिंह , गुंजन सिन्हा और नवेन्दु के मार्मिक संस्मरण। साथ में, नवभारत टाइम्स,पटना की अग्रणी टीम में रहे उर्मिलेश (राज्यसभा टीवी के पूर्व कार्यकारी संपादक) और दिवाकर (आउटलुक के पूर्व कार्यकारी संपादक) नीलाभ मिश्र के व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं पर संस्मरणात्मक आलेख भी साभार प्रस्तुत है। -सोनमाटी संपादक
1. नीलाभ मिश्र : बिछड़े सभी बारी-बारी…
सुबह – सुबह ही रांची से विनोद नारायण सिंह (स्टेट्समैन) का फ़ोनः यार, सुनो न. ओम थानवी का ताज़ातरीन पोस्ट देखा क्या? पोस्ट के मुताबिक नीलाभ मिश्र चला गया. पोस्ट में फोटो भी है उसकी. तुम बता सकते हो कि यह वही है न, अपना वाला नीलाभ? कहीं यह खबर झूठ तो नहीं? मुझे शक हो रहा है. कहीं थानवी जी को किसी ने गलत सूचना तो नहीं दे दी? तीन चार दिनों पहले श्रीकांत का भी फोन आया था पटना से: नीलाभ सीरियस है, चेन्नई के किसी अस्पताल में भर्ती है. उसके एक तीमारदार ने तुम्हारा नंबर मांगा है. दे दूँ? मैंने कहा – दे दो. फौरन से पेश्तर. लेकिन तीन दिनों तक चेन्नई से कोई फोन नहीं आया. अब यह खबर कि चला गया वह.
नीलाभ! तुम पर लिखना वाकई त्रासद है. किसी के गुज़र जाने पर वैसे भी उल्टापुल्टा लिखना अशालीन काम माना जाता है,चाहे बात सौ फीसद पक्की ही क्यों न हो. मुझे माफ़ करना दोस्त ! तुम वाकई बेईमान निकले. पक्के बेईमान. मैं इस वक़्त तुम्हें बेईमान के सिवा और कुछ नहीं कहूंगा. जिसे मेरी स्मृति में उदास होने का हक़ था, मुझे उसकी स्मृति में लिखना पड़ रहा है – क्या यह मेरी ओर से कम त्रासद और तुम्हारी ओर से कम कपटपूर्ण कर्म है? तुम मुझसे उम्र में कम से कम दो साल छोटे थे. एकदम गोलू पोलू, बबुआ जैसे, बेहद नाज़ुक, एक हद तक मितभाषी भी.
1986 में हम मिले थे नवभारत टाइम्स, पटना में
1986 में हम मिले थे. नवभारत टाइम्स, पटना में. हमने अखबार के दफ्तर में लगभग एक साथ एंट्री ली थी. सुकांत नागार्जुन, देवप्रिय अवस्थी, महेश खरे, इंद्रजीत सिंह, उर्मिलेश, वेद प्रकाश वाजपेयी, किरण पटनायक, आनंद भारती, राकेश माथुर, किरण शाहीन, गुंजन सिन्हा, नवेंदु, मणिमाला, शरद रंजन शरद, हरजिंदर, राजीव नयन बहुगुणा, इंदु भारती…. फेहरिस्त लंबी है. कोई बिहार के धधकते हुए खेत – खलिहान से आया था तो कोई कलकत्ता से, कोई बम्बई से तो कोई जयपुर से, कोई इलाहाबाद से तो कोई जबलपुर- बम्बई होते हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी सुदूर देहात से. एक से एक अगड़धत्त, एक से एक धनुर्धर. एक से एक पढ़ाकू, एक से एक गप्पबाज़. कोई घनघोर मार्क्सवादी – लेनिनवादी तो कोई घनघोर संघी, कोई गाँधी बाबा का चेला तो कोई लोहिया से ऊपर किसी को मानने को तैयार नहीं. किसी की जान संगीत में बसे तो कोई गोष्ठी प्रवीण.
राजेंद्र माथुर ने जोड़ा था वह कुनबा
यह उन अलमस्तों की टोली थी जिसे पत्रकारिता को पुनर्परिभाषित करना था. माथुर साहब (राजेंद्र माथुर) ने यह कुनबा जोड़ा था और वह बड़े फख्र से पटना की इस मंडली के बारे में कहते थे- We’re the best available team. दीनानाथ मिश्र इसके पहले संपादक बने. कट्टर संघी, लेकिन एक्टिविज़म से जुड़े लोगों को, चाहे वे किसी भी धारा के हों – अपने यहाँ लाने को हर पल बेचैन. वाकई वह बिहार में हिन्दी पत्रकारिता का स्वर्ण युग था. तुम उस भीड़ में कहाँ थे नीलाभ? तुम सबके साथ भी थे और नहीं भी थे. हर सामने वाले को लगता था कि तुम उसी के हो. सतत संपर्क के पैरोकार और सूचनाओं के आदान-प्रदान में इतने कच्चे कि ‘किसी से कहना नहीं यह बात’ कहते हुए तुम सबसे वही बात पे आते। मसलन दफ़्तर में क्या क्या चल रहा है, कहाँ किसकी गोटी सेट है, किसका विकेट गिर जाना है कुछेक दिनों में, किसका प्रोबेशन बढ़ना है वगैरह -वगैरह. तुम दीनानाथ मिश्र के भी प्रिय रहे और उनके बाद आए आलोक मेहता के भी.
जब तीसरे संपादक के तौर पर अरुण रंजन आए तो चीज़ें गड्डमड्ड होने लगीं। नीलाभ को धुन सवार हुई अंग्रेज़ी जर्नलिज्म में जाने की. वह जयपुर चला गया. अब मुलाकातें कम होने लगीं। साल दो साल बाद वह फिर दिखने लगा। कभी इसरार करता कि चल मंगोलिया तो कभी जेब टटोलता कि आज मेरी ही जेब से कर ले अमृतपान. अमृतपान यानी चल दारू पी जाए.
जब हम दोनों ने गम गलत किया
1995 में मार्च महीने की इक्कीस तारीख। होली का दूसरा दिन. मिड शिफ्ट की ड्यूटी. अपने राम मस्ती में, होली की खुमारी के बीच रिक्शे से एसपी वर्मा रोड (पटना) की ओर बढ़े जा रहे थे. उसी समय चुनाव भी थे. सारे रिपोर्टर तयशुदा केंद्रों को रवाना हो चुके थे. अचानक डाक बंगला चौराहे पर एक पुकार गूंजी: इधर आजा बच्चा. यह नीलाभ था. मैंने काम के बोझ का हवाला दिया. उसने बदले में जो कहा, वह सुन कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. इतनी पुख्ता सूचना तो सीआईए के पास भी नहीं होती होगी। उसने कहा : अखबार रहेगा, तब ना काम करोगे? रात में ही ताला लग गया. नवभारत टाइम्स वाकई बंद हो चुका था. पुलिस का भारी जमावड़ा. भाषण का दौर. नीलाभ उस दिन मंगोलिया ले कर गया और हम दोनों ने गम गलत किया.
किन-किन रूपों में याद करूं?
एक महीने बीत गए. बेकारी अब सताने लगी. अचानक एक दिन दोपहर वो मेरे घर आ धमका. खाना खाने के बाद बोला : तुम्हें जाना है डाल्टनगंज. आज की ही रात. राष्ट्रीय नवीन मेल की संपादकी करने. शाम को मुन्ना आएंगे …तुम तैयार रहना. इस तरह उसने मुझे राष्ट्रीय नवीन मेल का संपादक बनवाया. मेरे दोस्त! मैं तुम्हें किन किन रूपों में याद करूं? पहले वेद प्रकाश वाजपेयी गया, फिर सहजा़नंद ओझा और अब तुम. तुम्हारे लिखे- पढ़े पर भी चर्चा करूंगा लेकिन अभी नहीं। अभी मूड नहीं है नीलाभ।
संस्मरण : मिथिलेश कुमार सिंह
2. नीलाभ मिश्र : चले जाना यूँ चुपचाप !
अपनी लाइलाज बीमारी का जिक्र करते हुए उन्होंने कुछ महीनों पहले मुझसे कहा था कि घंटी बज चुकी है अब गाडी जब खुल जाए. .बस उसे जितना हो सके डिले करने की कोशिश चल रही है. मौत यूँ तो अचानक आने के लिए बदनाम है लेकिन जब वह पहले से आहट देते, अट्टहास करते आती है तो कम ही लोग होते हैं जो उसके इस तामझाम के साथ दबिश देने पर विचलित नही होते, और नीलाभ ऐसे ही लोगों में थे. ऐसे ही वो उन गिने चुने लोगों में थे जिनसे शब्दों के सही उच्चारण और वर्तनी पर मेरी जम कर बहसें होती थीं. जिद्दी वे भी थे और मैं भी, और जबतक हम एक सही तर्क/प्रमाण सम्मत निष्कर्ष तक पहुँच न लें, हम भिड़े रहते थे.
चाय दूकान पर बहसें करते पूरी रात बिता दिया करते
ये उन दिनों की बात है जब बहसें व्यक्तिगत नही हुआ करती थीं. और नभाटा दफ्तर से रात एक बजे निकलने के बाद हम पटना रेलवे स्टेशन के सामने काली की चाय दूकान पर बहसें करते पूरी रात बिता दिया करते थे. उन्होंने ही एक रात मुझसे अचानक वह लेख लिखवा लिया था जिसे मैं अब भी अपने दिल का सबसे करीबी लेख समझता हूँ. उन्होंने कहा, “मुझे बढती आवारागर्दी पर एक पेज निकालना है लेकिन जिसे लेख देने को कहा था,वो नही दे सका. कल सुबह ही चाहिए. आप लिख कर दे दीजिये.” मैंने जवाब दिया -“नहीं मैं आवारागर्दी पर नही लिखूंगा. उसके खिलाफ नही लिख सकता. लेकिन आप कहें तो आवारगी पर जरूर लिख सकता हूँ. नीलाभ का चेहरा खिल उठा. बोले, एकदम सही. आप उसी पर लिखिए. रात एक बजे घर पहुँच कर मैं लिखने बैठा और सुबह चार बजे उसे पूरा कर सो गया.
उदास रूह से मिलन की भटकन
वह लेख था – “आवारगी – अपनी उदास रूह से मिलन की भटकन”. शीर्षक नीलाभ ने ही लगाया था. इस विषय पर उस पेज पर दूसरा लेख बेहद संवेदनशील मित्र वेद प्रकाश वाजपेयी का था. वेद इस कठोर दुनिया को ठुकरा कर बहुत पहले निकल गए. मुझे लगता है मैंने तो आवारगी पर सिर्फ एक लेख लिखा लेकिन उसे ज्यादा जिया इन दोनों ने, बेलौस ईमानदारी के साथ. और दोनों चले गए – इसलिए कि दोनों मुझसे ज्यादा ईमानदार थे. एक लाइन इन दिनों बहुत याद आती है – बहुत कठिन है, डगर पनघट की……नीलाभ आपने वह डगर बिना डिगे पार कर ली. अलविदा मित्र ! संस्मरण : गुंजन सिन्हा
3. नीलाभ मिश्र : क्योंकि वो खास था
नीलाभ मिश्र पत्रकारिता में जन की प्रतिबद्धता और सरोकार से हिला नहीं. पढ़ाका था तो लड़ाका भी. उसकी बौद्धिकता पद्लिप्सा का साधन नहीं, बदलाव का सामान थी. नवभारत टाइम्स पटना के ज़माने में दफ़्तर में काम और सड़क पर विमर्श की रातें खूब काटी है हमने. मेरे तब के निवास पटना सालिमपुर अहरा के पोद्दार भवन पर कभी भी रात-विरात धमक जाते नीलाभ और गप्प-गोष्ठी में भोर कर देते. पत्नी Sangita Sinha कहती, ये कौन सी पत्रकारिता करते हैं आप दोनों और कौन मसला सुलझाते रहते हो! नीलाभ ठहाके लगाते और एक बारी और चाय की डिमांड. फ़िर अपना पियरका रंग का वेस्पा उठाते और रात के सन्नाटे को चीरते अपने घर पुनाईचक निकल जाते. दिल्ली से पटना तक और फ़ोन पर, बाद में भी ये सिलसिला रुका कहाँ!
इस बात का गर्व है कि
सब जैसे सूना-सूना है. दरअसल पिछले हफ़्ता दिन से चेन्नई में ही मन बझा हुआ था जहां नीलाभ अपोलो अस्पताल में लीवर ट्रांसप्लांट के लिए भर्ती थे. वे तो अर्द्धचेतन,बात करने की हालत में नहीं थे. उनकी संगिनी कविता जी से फ़ोन पर बातचीत हो जाती रही… दोस्त कैसे जा रहा है, ये दूर रहकर महसूसता रहा. जब तक साँस तब तक आस वाली बात थी…शनिवार की सुबह वो भी टूट गयी !
नीलाभ के जाने के साथ नभाटा स्कूल ऑफ़ जर्नलिज्म और उस दौर का सब कुछ हम मित्रों के बीच जैसे जी उठा. गुंजन सिन्हा ने सही लिखा है उस दौर के हम पत्रकार…हम लोग तो बहुत लड़ झगड़ के भी प्यार करते रहे, और अब लगता है सचमुच हम पत्रकारिता के एक शानदार दस्ते के लोग थे. आना है तो जाना भी है ही. लेकिन इस बात का गर्व है कि हम सब उस बेमिसाल टीम के साथी थे… पटना नभाटा की वह टीम, जिसके बारे में आधुनिक हिंदी पत्रकारिता के मनीषी और हमारे प्रधान संपादक स्व राजेन्द्र माथुर साहब कहते थे कि ये हिंदी पत्रकारिता की बेस्ट एवलेबल एडिटोरियल टीम है.
वह टीम. वे लोग. और लिखने-पढ़ने, बहस-विमर्श्, छपने -छापने के सारे किस्से. वे किस्से हमारा गौरवमयी कमायी है…कई किस्से अपने साथ लेते गये- विमर्श के बिंदु छोड़ गये पंडित!( दोस्त नीलाभ को यही कह कर बुलाता था मैं )…आवारा था. बावला कर गया!
संस्मरण : नवेन्दु
4. नीलाभ मिश्र : बिल्कुल अलग थे वह
आज के घमंड और दिखावे भरे मीडिया-माहौल में नीलाभ बिल्कुल अलग ढंग के जीव थे। मक्कारी, झूठ, अपढ़ता और घमंड से भरे अपने-अपने ‘स्टारडम’ में डूबे ज्यादातर टीवी एंकर्स और हिंदी-अंग्रेजी के ज्यादातर बड़े संपादक-पत्रकार मामूली सी ‘प्रसिद्धि’ हासिल करने के बाद राजनीति में ‘कुछ बड़ा’ हासिल करने के लिये बड़े नेताओं की परिक्रमा करना शुरू कर देते हैं। इसके उदाहरण सत्ता-पक्ष और पूर्व सत्ता-पक्ष, दोनों तरफ मौजूद हैं।
मगर नीलाभ ने पत्रकारिता का रास्ता चुना
नीलाभ पढ़ाई-लिखाई के बाद सीधे राजनीति में जा सकते थे। अगर वह चाहते तो बिहार में कोई भी पार्टी उन्हें कम से कम विधानसभा का टिकट देने में शायद ही किसी तरह का संकोच करती। थोड़ी कोशिश करते तो लोकसभा का टिकट हासिल करना या भविष्य में मंत्री आदि बनना भी उनके लिये ज्यादा मुश्किल नहीं होता क्योंकि उनके पास एक बहुत प्रसिद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि थी। पर नीलाभ ने अपने छात्रजीवन में ही आम जन के पक्ष में काम करने का फैसला कर लिया। वह चाहते तो मुखर्जी नगर या तिमारपुर की तरफ रहने वाले हजारों बिहारी युवकों की तरह दिल्ली विश्वविद्यालय के अपने छात्रजीवन में सिविल सर्विसेज के लिए जुट सकते थे। उनकी अंग्रेजी और हिन्दी, दोनों ठीक-ठाक थी। प्रतिभाशाली तो थे ही। अफसरशाही में घुसना भी उनके लिये बहुत दुष्कर कार्य नहीं था। पर नीलाभ ने अस्सी के दशक में पत्रकारिता का रास्ता चुना। उन्हें लगा कि इसके जरिये वह एक बड़े दायरे में आमजन की बात पहुंचा सकते हैं। तब मीडिया का माहौल आज जैसा घुटनाटेकू और कलुषित नहीं था। समाज और जनता के व्यापक सरोकारों के लिए पत्रकारिता में जगह थी। इसके ठोस कारण भी थे। समाज में बदलाव की बेचैनी थी। कई तरह के बड़े-बड़े आंदोलन हो चुके थे। इनमें सबसे ताजा था बिहार और गुजरात से उठा भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ बड़ा जनांदोलन। इसमें युवाओं की अहम भूमिका थी। इससे पहले बंगाल, बिहार सहित देश के कई राज्यों में भूमि, इज्जत और मजदूरी के लिए खेत-मजदूरों, आदिवासियों और गरीबों के उग्र आंदोलन हो चुके थे।
ऐसा नहीं था कि पत्रकारिता में सत्ता की चाटुकारिता तब नहीं होती थी। घुटनाटेकू लोग तब भी थे। पर उन दिनों बिहार में पत्रकारिता में एक ऐसी सशक्त धारा उभर रही थी, जो हर तरह के सर्वसत्तावाद के खिलाफ जनता की आवाज बनने की कोशिश करती थी। तब आज की तरह हर शाम टीवी चैनलों पर भक्तिभाव के साथ एक ही तरह का ‘भजन’ गाने वाली किस्म-किस्म की ‘मृदंग-मंडलियां’ नहीं सजती थीं। पत्रकारों का एक समूह जोखिम लेकर समाज और अवाम की बात करता था। आम लोगों में ऐसी पत्रकारिता और पत्रकारों के लिये पर्याप्त सम्मान और समर्थन था। नीलाभ और हम सभी लोग उसी दौर में पत्रकार बने।
नये संस्करण की तैयारी के दौरान हम घुल-मिल गये
नीलाभ से मेरी पहली मुलाकात पटना स्थित नवभारत टाइम्स के दफ्तर में हुई। मैं दिल्ली से बिहार गया था। नीलाभ दिल्ली से पढ़े थे पर बिहार से थे, ठेठ बिहारी। जेएनयू से निकलने के लगभग ढाई साल बाद मुझे रेगुलर जॉब मिली थी। उन दिनों नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक हिन्दी के यशस्वी पत्रकार राजेंद्र माथुर थे। उन्होंने तय किया था कि पटना के लिये सारी नियुक्तियां वह टेस्ट और इंटरव्यू के मार्फत करेंगे। इसलिए वहां मामा-भांजा, चाचा-भतीजा, जीजा-साला, ‘भूमिहार-भूमिहार’, ‘ब्राह्मण-ब्राह्मण’ या ‘राजपूत-राजपूत’ (उन दिनों बिहार में 95 फीसदी से ज्यादा पत्रकार इन्हीं बिरादरियों से आते थे) वाला मामला नभाटा की उस नियुक्ति-प्रक्रिया में आमतौर पर नहीं चला। बताते हैं कि टेस्ट की कापियां माथुर साहब की निगरानी में जांची गईं। उपसंपादक से समाचार संपादक, सभी पदों के इंटरव्यू में माथुर साहब स्वयं मौजूद रहे। नीलाभ सहित हम सब लोग उसी प्रक्रिया से गुजरते हुए नभाटा के पत्रकार बने। मैं स्टाफ रिपोर्टर के रूप में नियुक्त हुआ था और नीलाभ डेस्क पर उप संपादक। मैंने सन 1986 के अप्रैल के पहले सप्ताह में ज्वाइन किया। संभवतः उन्होंने कुछ समय बाद ज्वाइन किया। अखबार का पटना से नया संस्करण निकलना था और यहां कई बड़े क्षेत्रीय अखबार पहले से जमे हुए थे, इसलिये हमारे दफ्तर में नये संस्करण की तैयारी कुछ पहले ही शुरू कर दी गई। कई-कई बार कार्यशालाएं लगाई गईं। इस दौरान हम सारे लोग एक-दूसरे से घुल-मिल गये। कौन क्या और कितना खाता या पीता है, इससे भी हम सब वाकिफ हो गये।
कभी भनक तक नहीं मिली
मेरे जैसे बिहार के बाहर से आये व्यक्ति को नीलाभ की तरफ से इस बात की कभी भनक तक नहीं मिली कि वह चंपारण के मशहूर और बेहद सम्मानित समाजसेवी और बिहार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष प्रजापति मिश्र के पौत्र और बिहार सरकार के पूर्व कैबिनेट मंत्री प्रमोद कुमार मिश्र के पुत्र हैं। उनके सम्बन्धी और मेरे मित्र-पत्रकार अरविन्द मोहन ने बताया कि नीलाभ की दादी केतकी देवी भी चंपारण के चनपटिया क्षेत्र से दो-दो बार विधायक रह चुकी थीं। नीलाभ की मां यूपी से थीं और जाने-माने समाजवादी नेता व सांसद रमाशंकर कौशिक की भतीजी थीं। नीलाभ के दादा चंपारण सत्याग्रह में महात्मा गांधी के सहयोगी रहे थे। पर इतने जाने-माने परिवार से आने वाले नीलाभ ने उस दौर में हम जैसे नये लोगों के बीच अपनी इस पारिवारिक पृष्ठभूमि की कभी चर्चा नहीं की। जो लोग पहले से जानते थे, उनकी बात अलग थी।
सच पूछिये तो नीलाभ की इस पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में मुझे बहुत बाद में तब पता चला, जब किसी ने बताया कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और जेएनयू में मेरे समकालीन डॉ. अनिल मिश्र और पत्रकार अरविन्द मोहन के रिश्तेदार हैं। जिस मित्र ने यह बात बताई, उसी ने नीलाभ की पारिवारिक पृष्ठभूमि का विस्तार से जिक्र किया। नीलाभ से इस पृष्ठभूमि के सिर्फ एक पहलू की मुझे जानकारी मिली थी। एक दिन हम लोग किसी टीवी चैनल पर साथ-साथ पैनल-डिस्कसन में मौजूद थे। विषय यूपी से जुड़ा था। कार्यक्रम में नीलाभ ने बहुत अच्छी टिप्पणियां कीं। कई नयी बातें सामने रखीं। मैंने उत्सुकतावश पूछा, ‘नीलाभ, तुमने यूपी की भू-संरचना और सामाजिक-राजनीतिक समीकरणों के इतिहास और वर्तमान के बारे में इतनी सारी जानकारी कहां से हासिल की? लगता है, इधर यूपी पर काफी पढ़े हो!’ उस दिन पहली बार नीलाभ ने अपनी मां की यूपी स्थित पैतृक पारिवारिक पृष्ठभूमि की चर्चा की।
राजनीतिक विरासत के नहीं बने ध्वजवाहक
लेकिन नीलाभ अपने पिता या दादा या दादी की राजनीतिक विरासत के ध्वजवाहक नहीं बने। संभवतः छात्रजीवन में ही उसका लगाव मार्क्सवादी विचारों से हुआ। बिहार में कई जाने-माने वामपंथी विचारकों, लेखकों, बुद्धिजीवियों और प्रगतिशील सोच के पत्रकारों से उसके गहरे रिश्ते रहे। इनमें प्रो. प्रधान हरिशंकर प्रसाद, डॉ. शशिभूषण, डॉ. विनयन, पत्रकार अरुण सिन्हा, उत्तम सेनगुप्ता और किरण शाहीन आदि के नाम प्रमुख हैं। जब मुझे पता चला कि नीलाभ बिहार के एक मशहूर और प्रतिष्ठित कांग्रेसी परिवार से आते हैं तो तनिक आश्चर्य भी हुआ। उन दिनों मैं नभाटा में ‘राजनीतिक बीट’ देखता था और सत्ताधारी कांग्रेस और विधानमंडल आदि की गतिविधियों के कवरेज का प्रभारी था। पर मैंने अपने पटना कार्यकाल में शायद ही कभी नीलाभ को किसी कांग्रेसी नेता या सर्किल में कहीं देखा हो! वह हमेशा तरक्कीपसंद सोच के वाम रूझान वाले या सिविल लिबर्टीज संगठन से जुड़े लोगों के नजदीक दिखते थे।
पटना स्थित टाइम्स हाउस में हम लोगों ने प्रबंधन के कई उल्टे-सीधे फैसलों और अन्यायपूर्ण कदमों के खिलाफ साथ-साथ लड़ाई भी लड़ी। नवभारत टाइम्स में हमारे एक दूसरे मित्र नवेंदु के साथ नीलाभ की जोड़ी बहुत मशहूर हुई थी। दफ्तर और यूनियन से जुड़ी तमाम गतिविधियों में दोनों के बीच अच्छा समन्वय दिखता था। चूंकि दोनों डेस्क पर साथ-साथ थे, इसलिए एक-दूसरे के साथ समय भी ज्यादा बिताते थे। अपने डेस्क पर कई लोगों को बेहतरीन संपादन के लिये जाना जाता था। इनमें पिछले दिनों गुंजन सिन्हा ने कैंसर से लंबी लड़ाई में जीत हासिल की। ये सभी साथी हमारे बीच हैं, बस अपना नीलाभ न जाने क्यों पहले ही साथ छोड़कर चला गया।
उस दिन ‘नेशनल हेराल्ड’ के प्रधान संपादक के रूप में किया पेश
पटना स्थित नवभारत टाइम्स के बंद होने के बाद नीलाभ दिल्ली होते हुए जयपुर जा पहुंचे। वहां उन्होंने इनाडू समूह के अंगरेजी अखबार ‘न्यूज टाइम’ के राजस्थान संवाददाता के रूप में बहुत अच्छा काम किया। बाद के दिनों में उन्होंने ‘हिन्दी आउटलुक’ में काम किया और कुछ समय बाद उसके संपादक बना दिये गये। विनोद मेहता जैसे अंगरेजी के सधे संपादक ने नीलाभ से अनुरोध कर ‘आउटलुक’ के लिये अंगरेजी में नियमित स्तम्भ लिखवाया। उस स्तम्भ को खूब पढ़ा गया। इससे नीलाभ को राजधानी के अंगरेजी पत्रकारों और पाठकों में न केवल अपना प्रवेश दर्ज कराने का मौका मिला अपितु पर्याप्त सम्मान भी मिला। हिन्दी आउटलुक की संपादकी छोड़ने के बाद नीलाभ कुछ समय तक फ्रीलांसिग करते रहे। फिर ‘नेशनल हेराल्ड’ के पुनर्प्रकाशन की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई और उसके प्रधान संपादक बने। अपने नये संस्थान में अभी उन्होंने संभवतः ज्वाइन भी नहीं किया था कि एक दिन मेरे अनुरोध पर वह राज्यसभा टीवी पर मेरे द्वारा प्र्रस्तुत साप्ताहिक कार्यक्रम ‘मीडिया मंथन’ में एक पैनेलिस्ट के रूप में आये। उन्होंने अपनी नयी जिम्मेदारी की सूचना मुझे दे रखी थी। फिर भी मैंने पूछा, ‘नीलाभ, आज के कार्यक्रम में तुम्हें किस रूप में संबोधित करूं या दर्शकों को तुम्हारा क्या परिचय दूं…वरिष्ठ पत्रकार या…?’ नीलाभ ने अपनी सुपरिचित मंद मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘अब आप नयी जिम्मेदारी का उल्लेख कर सकते हो!’ और इस तरह उस दिन मैंने नीलाभ को ‘नेशनल हेराल्ड’ के प्रधान संपादक के रूप में दर्शकों के समक्ष पेश किया।
कार्यक्रम के बाद चाय पीते हुए उनसे ‘हेराल्ड’ में उनकी ज्वाइनिंग को लेकर ढेर सारी बातें हुईं। उन्होंने एक बात बहुत शिद्दत से कही, ‘आप सोच रहे होंगे कि अपने मिजाज से अलग एसाइनमेंट मैंने क्यों मंजूर किया? पर हेराल्ड के शीर्षतम लोगों ने मुझे सुनिश्चित किया है कि पार्टी के ‘मुखपत्र’ जैसी बात तो दूर रही, यह हर मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी की लाइन का अनुसरण भी नहीं करेगा। कांग्रेस की आलोचना भी करेगा। यह सेक्युलर-डेमोक्रेटिक आवाज का एक मीडिया मंच होगा। आज जिस तरह के खतरे हमारे संविधान पर मंडरा रहे हैं, उसमें ऐसे मंच की जरूरत मैने भी महसूस की। इसीलिए एसाइनमेंट मंजूर भी किया। देखो, क्या होता है!’ नीलाभ ने कम ही दिनों में हेराल्ड और नवजीवन की वेबसाइट लांच कर दी। उत्तम सेनगुप्ता जैसे उसके वरिष्ठ और सुयोग्य साथी भी टीम में कार्यकारी संपादक के रूप में जुड़ गये। पर यह क्या नीलाभ ज्यादा वक्त रूके नहीं, अनंत की यात्रा में न जाने क्यों इतनी जल्दी उड़ गये! तुम्हारी बहुत याद आयेगी नीलाभ, वो पटना के फ्रेजर रोड की घुमक्कड़ी, राजस्थान रेस्तरां या मंगोलिया की यदाकदा की बैठकी और किसी दोस्त के घर जमके भोज-भात!
खानदान में कई लोग इस रोग से कम उम्र में मरे
अस्वस्थता के दौरान दो या तीन बार मेरी नीलाभ से मुलाकात हुई। अंतिम मुलाकात दिल्ली स्थित भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के विशेष वार्ड में हुई। कविता जी उसके साथ थीं। तब वह आशा से लबरेज था। लगता था, सबकुछ ठीक होगा, वह पहले की तरह ठहाका लगायेगा, दोस्तों के साथ जमकर मटन खायेगा, अच्छा संगीत सुनते हुए ग्रीन टी पिलायेगा और सियासत के भावी समीकरणों पर विचारोत्तेजक चर्चा करेगा। लेकिन आज अचानक याद आ रहा है, एक बार अस्वस्थता के दौरान ही एक प्रीतिभोज में मुलाकात हुई। उसे सामान्य भोजन नहीं करना था। मसालेदार खाने से बचना था। कुछ हल्की-फुल्की चीजें एक प्लेट में लेकर वह एक तरफ जाकर बैठ गया। मैं खाना खा चुका था। मैं भी वहीं जाकर बैठ गया। काफी देर तक हम लोग लॉन में अकेले बतियाते रहे। मैंने सेहत में सुधार के बारे में पूछा। उसने बड़े साफ शब्दों में कहा, ‘देखो, पहले से हालत निश्चित ही सुधरी है लेकिन इस बीमारी के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। मेरे खानदान में कई लोग इसी तरह के रोग से कम उम्र में मरे हैं। उनमें कइयों के मुकाबले मैंने अधिक उम्र पाई है।‘ मैंने उसमें आशा और विश्वास भरने की गरज से कहा, ‘ उस दौर से तुलना मत करो। आज पहले से ज्यादा विशेषज्ञ चिकित्सक और समर्थ चिकित्सा पद्धति हमारे पास हैं। इसलिये वो सब बातें मत सोचा करो!’ काफी समय बाद एक दिन मैंने उसे फोन कर हालचाल जानना चाहा पर फोन नहीं उठा। बाद में पता चला, तबीयत ज्यादा खराब हो गई है। और उन्हें बेहतर इलाज के लिये चेन्नई ले जाया गया। पर नीलाभ चले गये…। सलाम और श्रद्धांजलि दोस्त। बार-बार बहुत याद आओगे। ( नवजीवन से साभार)
संस्मरण : उर्मिलेश
किताबों से बहुत प्रेम
आज पत्रकारिता का जो हाल है, उसमें यह रूप बनाए रखना दुष्कर ही था। लेकिन नीलाभ ऐसा कर पाए तो इसकी वजह थी। नीलाभ ने कई काम बहुत खूबसूरती से किए और यही इस तरह की पत्रकारिता को संभव बना पाया। नीलाभ को किताबों से बहुत प्रेम था। वे सभी चीजें पढ़ सकते थे और उन सबको पचा सकते थे। हिंदी-अंग्रेजी और बहुत हद तक संस्कृत साहित्य तो वे पढ़ते ही रहते थे, समाजशास्त्र, समाज मनोविज्ञान और राजनीति की नवीनतम किताबें भी वे बहुत मनोयोग से पढ़ते थे। भाषा और सही शब्दों के उपयोग पर वे इसी वजह से जोर दे पाते थे। अर्थनीति राजनीति को नियंत्रित करती है और पिछले तीन दशकों में तो इसने राजनीति के व्यवहार को ही बदल दिया है। इसलिए माइक्रो फाइनेंस जैसे विषय तक को उन्होंने साध रखा था। उनसे बातचीत करते हुए मजा आता था क्योंकि वे उस वक्त और आने वाले दिनों की संभावनाओं के बारे में बात करते हुए बहुत दूर तक चले जाते थे। यह सब करते हुए उनमें ज्ञान को प्रदर्शित करने का तनिक भी उतावलापन नहीं था, वे सामान्य ढंग से सूचनाएं-जानकारियां सामने वाले के सामने परोस देते थे।लेकिन नीलाभ ऐसा सिर्फ किताबी ज्ञान के आधार पर नहीं करते थे।
ध्यान से सुनने के बाद ही वे अपनी बात शुरू करते
उनके साथ यात्रा करने में इसलिए आनंद आता था कि वे लोगों से बातचीत के दौरान अपनी इस तरह की जानकारी को दुरुस्त भी करते रहते थे। नवभारत टाइम्स, पटना में तो नहीं लेकिन आउटलुक हिंदी में स्टोरीज करने के दौरान उनके साथ यात्रा करने का यह मेरा भी व्यक्तिगत अनुभव है। वे सबसे खुलकर बात कर लेते थे। उनका तरीका बहुत सीधा-सरल था लेकिन आम तौर पर लोग इसे अपना नहीं पाते। वे किसी भी तरह के आदमी से आराम से बात करते थे, उससे आम तौर पर बहस नहीं करते थे। ध्यान से सुनने के बाद ही वे अपनी बात शुरू करते थे। यह किसी को स्पेस देना और फिर अपने लिए पर्याप्त स्पेस निकाल लेने का बहुत ही सोचा-समझा तरीका है। ह्यूमन रिसोर्स और प्रोफेशनल एक्टिविटीज के ज्ञानी लोग भारी-भरकम पैसे लेकर इस तरह की बातों की ट्रेनिंग इन दिनों दिया करते हैं। नीलाभ इसे वर्षों से आजमा रहे थे। राजनीति के प्रचलित मुहावरे में कहूं तो बिलकुल अंतिम आदमी तक से संवाद करने, उसका दुख-दर्द जानने, उसे सार्वजनिक कर पाने का नीलाभ का यह तरीका इस मामले में अद्भुत था।
ढर्रे पर नहीं, अलग लकीर खींचने वाले
नीलाभ राजनीति को नेताओं नहीं, समाज की तरफ से जानने-समझने की कोशिश करते थे। किसी मुख्यालय से निकलकर हाइवे किनारे के ढाबों पर रुक जाने तक ही नहीं, बल्कि वास्तविक रूरल रिपोर्टिंग करने के लिए वे लालायित रहते थे। पॉलिटिकल रिपोर्टिंग में यह बात अनुपस्थित-जैसी हो गई है। आज की भागमभाग जिंदगी में इसका अभाव हो गया है। राजनीतिक संवाददाता अब अपने संपर्कों का गैरपत्रकारीय कामों में ही ज्यादा उपयोग करने लगे हैं। नीलाभ के साथ यह दुविधा नहीं थी। वे किसी भी आयोजन में जाते अवश्य थे और वहां मिली जानकारी का अपने लेखन में उपयोग कर लेते थे। इसीलिए किसी सामान्य सभा से लेकर गंभीर विषय वाले सेमिनारों और शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में भी नीलाभ दिख जाते थे, तो यह आश्चर्य की बात नहीं थी। इस दौरान बने सपर्कों से किसी भी तरह का अतिरिक्त लाभ उठाने की उन्होंने कभी कोशिश नहीं की। आज की तथाकथित प्रोफेशनल पत्रकारिता में यह दुर्गुण की तरह है। लेकिन नीलाभ ढर्रे पर चलने वाले थे ही नहीं, वे तो अलग लकीर खींचने वाले थे।
सूचना के अधिकार के लिए आंदोलन में महती भूमिका
नीलाभ रूढ़ अर्थों में एक्टिविस्ट भी नहीं थे। वे पटना में रहते हुए पीयूसीएल से जुड़े और उसके महासचिव बने। वहां से जयपुर जाने के बाद मजदूर किसान शक्ति संगठन से जुड़े। सूचना के अधिकार के लिए चले आंदोलन में उन्होंने महती भूमिका निभाई। नर्मदा आंदोलन, छत्तीसगढ़ में आदिवासी आंदोलन वगैरह के लोगों के बीच भी वे सब दिन सक्रिय रहे। यह दोधारी तलवार की तरह था। लेकिन इस राह पर चलते हुए उन्होंने इसे पत्रकारिता में नारा नहीं बनाया। जिस दौर में एक्टिविज्म को पत्रकारीय कॅरिअर के लिए खतरनाक माना जाने लगा है, नीलाभ इस तरह की गतिविधियों और इनसे प्राप्त सूचनाओं का पत्रकारिता में सकारात्मक उपयोग करते रहे। जनपक्षीय पत्रकारिता की आकांक्षा पूरी करने की यह कला आम तौर पर अब कहां पाई जा सकती है? बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि यूपीए शासनकाल के दौरान नरेगा जैसी योजना के लिए कॉन्सेप्ट पेपर तैयार करने वालों में पी साईनाथ, ज्यां द्रेज जैसे लोगों के साथ नीलाभ भी थे।
इसीलिए मुझे लगता है, नीलाभ को मिशनरी पत्रकार के रूप में याद किया जाना चाहिए। शायद इसी रूप में वे याद किया जाना चाहते भी रहे होंगे। ( आउटलुक से साभार)
संस्मरण : दिवाकर