राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र मेरठ (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) से वरिष्ठ पत्रकार ललित दूबे की व्हाट्सएप पर प्रतिक्रिया है- बहुत सुंदर रिपोर्ट। बिल्कु ल अलग नजरिये से लिखी गई। आम तौर पर तिब्बती गर्म कपड़ों का कारोबार करते देखे जाते हैं। उन शरणार्थियों द्वारा वंचित परिवारों के भारतीय बच्चों को गर्म कपड़ा बांटने की नई परिपाटी तो बेमिसाल है और उन्हें वृहद भारतीय समाज का अंग बनाती है। बहुत सुन्दर।
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डेहरी-आन-सोन (बिहार)-विशेष प्रतिनिधि। रहने को धरती मिली, जीने के लिए रोजगार मिला, शुक्रिया भारत और सोन तुम्हारा भी आभार ! कुछ इसी भाव, इसी अंदाज में शरणार्थी तिब्बतियों ने बिहार प्रदेश के डेहरी-आन-सोन में शांति दिवस मनाया। अवसर था तिब्बतियों के सबसे बड़े धर्मगुरु दलाई लामा को विश्व का सबसे प्रतिष्ठित नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त होने का दिन। तिब्बती समुदाय की नई पीढ़ी ने केक काटने का आयोजन कर तो पुरानी पीढ़ी ने अपने पारंपरिक लोक-गान के साथ डेजी (बिना दूध चावल-पंचमेवा का मीठा प्रसाद) बनाकर शांति दिवस का आगाज किया।
आंगनबाड़ी के वंचित परिवारों के बच्चों को बांटे गए गर्म कपड़े
बिहार के डेहरी-आन-सोन में स्टेशन रोड स्थित शकरलाज परिसर में तिब्बती समुदाय की ओर से सौ से अधिक स्थानीय स्कूलों और आंगनबाड़ी के वंचित परिवारों के बच्चों को गर्म कपड़े बांटे गए। इस आयोजन में तिब्बती समुदाय के नई-पुरानी पीढ़ी के ताशी, सिचू, सिम्पा, छाम्बा, जिम्पा, लक्सा डोरजी, तेन चोइडेन, मिगमा, लामो, यांगजेन, तेनजिंग दावा, पेमा चोइडेन, एस. डोलमा, डोरजी, करमा, वाजेन डोलमा, पुुबु डोलमा, जाम्पा, बेगोइर, तेनजिंग तेस्ले आदि ने अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह किया।
डेहरी चेस क्लब के अध्यक्ष व पूर्व विधायक सत्यनारायण सिंह, सोनमाटीडाटकाम के संपादक कृष्ण किसलय, नगर परिषद के वार्ड पार्षदों ब्रह्म्ïोश्वरनाथ उर्फ काली बाबू, मो. मुजीबुल हक, किरन देवी, चेस क्लब के संस्थापक संयोजक दयानिधि श्रीवास्तव उर्फ भरत लाल, सह संयोजक स्वयंप्रकाश मिश्र सुमंत, सामाजिक एक्टिविस्ट शिव गांधी आदि अतिथियों ने तिब्बती समुदाय की ओर से मुहैया कराए गए कपड़ों का थैला बच्चों को प्रदान किया।
कार्यक्रम का संचालन चेस क्लब के सचिव नंदकुमार सिंह नंदन ने किया।
पूरी तरह भारतीय आबोहवा में घुलमिल गई है भोट देश की नई पीढ़ी
तिब्बत से पलायन कर भारत आई तिब्बतियों की तीसरी पीढ़ी अपने खुलेपन, अपनी सांस्कृतिक जीवंतता के कारण भारतीयों के साथ पूरी तरह घुल-मिल गई है। भोट देश के बाशिंदों की 21वीं सदी की पीढ़ी को तो आभास भी नहीं होता कि वे किसी दूसरे वतन, किसी दूसरे की जमीन पर हैं। हालांकि इनका ध्वनि-यंत्र अभी जैविक तौर पर पूरी तरह हिन्दी उच्चारण के लायक नहीं ढल सका है, मगर नई पीढ़ी हिन्दी-अंग्रेजी के साथ अपनी मातृभाषा व दक्षिण भारत की स्थानीय भाषा बोलती-समझती है। इस पीढ़ी का कहना है, चीन हमें निगल कर भी पचा नहीं सका है। आज तिब्बती आंदोलन दुनिया का सबसे बड़ा जीवित स्वाधीनता आंदोलन है, जो पिछले साठ सालों में अपने देश, अपने वतन से दूर दूसरे देशों की धरती पर भी जारी है। अपनी दुनिया में मगन रहने वाले इस समुदाय को भारत से कोई ग्रिवांस (अतिरिक्त अभिलाषा) नहीं है।
खेती, कारोबार से आगे वांछित नौकरी के लिए पढ़ाई कर रहे हैं तिब्बती तरुण
भारत में तिब्बती शरणार्थी समुदाय की दूसरी पीढ़ी की जिम्पा ने 2005 में एम.काम. किया और फिर चेन्नई के काल सेन्टर में पांच साल तक टेक्निकल सपोर्टर की नौकरी की। शादी होने के बाद नौकरी छोड़कर अपने समूह के साथ कारोबार में हाथ बंटाने लगी है। पति तेनजिंग शेरपा आर्मीमैन हैं, जो सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में पोस्टेड हैं। जिम्पा कहती हैं, अब तो 21वींसदी में भारत आई तिब्बतियों की तीसरी पीढ़ी भारतीय आबोहवा में पूरी आजादी के साथ सांस ले रही है और मनमाफिक जिंदगी भी जी रही है। पहली पीढ़ी पूरी तरह खेती पर निर्भर थी, जिसे भारत में शरण देने के साथ जगह-जगह खेती करने की जमीन दी गई और शरणार्थी गांव बसाए गए। दूसरी पीढ़ी खेती के साथ कारोबार-स्वरोजगार करना शुरू किया। तीसरी पीढ़ी कारोबार-स्वरोजगार से आगे निकलकर अनुकूल पढ़ाई-लिखाई कर वांछित नौकरी भी कर रही है।
चार महीने के लिए शरणार्थी गांव से बाहर रहने की लेते हैं अनुमति
दूसरी पीढ़ी के दम्पति ताशी (पुरुष) और सिचू (महिला) के संरक्षण में ही तिब्बतियों का नौ परिवार डेहरी-आन-सोन आया है, जिसके टीम लीडर छम्बा हैं। डेहरी-आन-सोन आया तिब्बती समूह कर्नाटक के कोलेगल से वहां के प्रशासन से चार महीनों के लिए शरणार्थी गांव छोडऩे की अनुमति लेकर आया है। दक्षिण भारत में तिब्बती शरणार्थियों के पांच गांव बेलाकोपा में दो और कोलगेल, होनसर, बेलाकोपा व मुनगोट में एक-एक आबाद है, जहां पहले करीब 40 हजार शरणार्थी रहते थे। अब अधिसंख्य युवा वहां से निकलकर भारत के बड़े शहरों में नौकरी कर रहे हैं और साल भर में एक बार शरणार्थी गांवों में आते हैं। इन गांवों में बुजुर्ग और बच्चे ही रहते हैं। गांवों में रहने वाला तिब्बती परिवार सहकारी खेती करता हैं, जिन्हें खाद, बीज अनुदान पर उपलब्ध है और खेती के लिए कम ब्याज दर पर कर्ज भी मिलता है। भारत सरकार ने गांवों में 12वीं तक की स्कूल की व्यवस्था कर रखी है, जिसमें शिक्षक, पाठ्य सामग्री की निशुल्क व्यवस्था है।
किन्नरदेवों के वंशजों को पता है कि 1400 सालों से हमतहजीब रहा है सोन नद का यह इलाका
मध्य हिमालय पर स्थित दुनिया की छत कहे जाने वाले किन्नरदेवों के देश के इन शरणार्थी वंशजों को पता है कि हर्षवद्र्धन के समय से ही पिछले चौदह सौ सालों से बौद्ध धर्म के अनुयायी ह्वेनसांग की तरह उनके पुरखे भी बिहार के सोन नद के इस इलाके के बाबक्त रहगुजर और हमतहजीब रहे हैं। इसलिए वे भारत को शुक्रिया अदा करने के साथ सोन नद के प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं कि जिसकी भूमि पर उन्हें और उनके पूर्ववर्तियों को लगातार साठ सालों से कारोबार-स्वरोजगार की ठांव-पनाह मिली है। वे बिना किसी बाधा के चार महीनों के लिए सोन नद तट के सबसे बड़े शहर डेहरी-आन-सोन को अपना बसेरा बनाते और अपना बाजार सजाते हैं। शहर के साथ सोन अंचल के दूर-दूर तक के गांवों के हजारों ग्रामीणों को जाड़े में गर्म कपड़ों की खरीददारी के लिए तिब्बती मार्केट का इंतजार रहता है। अक्टूबर के तीसरे-चौथे हफ्ते में पहुंचा ये खुशनुमा विदेशी अतिथि व्यापारी दल अपने शरणार्थी शिविर (गांव) के लिए कूच कर जाएंगे, अगले साल फिर दस्तक देने के वादा के साथ। सोन अंचल के लोगों को पिछले दशकों की तरह अगले जाड़ा में इनके फिर आने का इंतजार रहेगा।
(विशेष रिपोर्ट : कृष्ण किसलय,
साथ में निशांत राज, तस्वीर : रामनारायण सिंह)